‘कोविड ब्राह्मणवाद’ बताता है कि बीमारी देसी है, दुर्घटनावश चीन में ईजाद हुई

कोरोना के बहाने जाति और छुआ-छूत

 

कोरोना वायरस और उससे बचाव के उपायों पर काफी लिखा जा चुका है और इसमें एक नया शब्द आया है, सोशल डिस्टेंसिंग। असल में इसे फिजिकल डिसटेंसिंग होना चाहिए पर पता नहीं कैसे और क्यों हर तरह से फिजिकल डिस्टेंसिंग होने के बावजूद इसे सोशल डिसटेंसिंग कहा जा रहा है। अगर फिलहाल फिजिकल और सोशल को छोड़कर बाकी जरूरतों की बात की जाए तो यह पुराने जमाने का भारत बना रहा है। पहले जाति के आधार पर दूरी बरती जाती थी अब हर किसी से दूरी बरती जाती है। भारत में दूरी बरतने का मामला कुछ ज्यादा था और अब भी यह वैसे ही है। पुरानी स्थितियों को ही याद दिला रहा है या कहिए हम पुराने जमाने में पहुंच रहे हैं। इस लिहाज से द टेलीग्राफ में मुकुल केसवन ने एक दिलचस्प लेख लिखा है। इसका शीर्षक है, जाति और छुआ-छूत। व्यंग्य में ही सही, इसमें कहा गया है कि कोविड-19 एक देसी बीमारी है और दुर्घटनावश इसकी शुरुआत चीन से हुई।  

भारत में छुआछूत ही नहीं, शुद्धिकरण भी एक बीमारी की तरह है और अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है। मुकुल केसवन ने लिखा है कि उनके परदादा बेहद जातिवादी दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे और मैसूर में रहते थे। रिवाजों का पूरे मन से पालन करते थे और कुछ नया या अलग करने के लिए भले ही उन्होंने पत्नी को दहेज में मिले चांदी के गहने बेचकर ग्रामीफोन की दुकान खोली पर वह चल नहीं पाई क्योंकि वे बहुत देर से दुकान खोलते थे।और इसका कारण यह था कि पूजा-पाठ किए बगैर वे घर से नहीं निकलते थे और यह सब करते हुए उन्हें 11 बज जाते थे। शुद्ध रहने की उनकी चाह ऐसी थी कि रास्ते में  किसी ऐसे व्यक्ति की छाया उन पर पड़ जाए जो साफ न हो तो वे फिर घर आते थे और शुद्ध होने की पूरी प्रक्रिया दोहराते थे। ऐसे व्यक्ति की ग्रामोफोन की दुकान क्यों नहीं चल पाई होगी इसे समझना मुश्किल नहीं है। मेरी नानी भी ऐसी ही थीं। वे जब कभी वाशरूम जाती थीं (भले तब वाशरूम ऐसे नहीं होते थे) नहा कर ही निकलती थीं। 

ऐसे में कोरोना का डर भारत में हमसे वही सब करा रहा है जो हम पहले से करते रहे हैं और अब छोड़ रहे थे। सुरक्षित रहने के लिए और क्वारंटाइन के दौरान जो सब करने के लिए कहा जाता है वह सब हमारे यहां पहले से होता आया है। अब हमारे यहां कोई कुछ देने आता है तो हम उससे सुरक्षित दूरी बनाकर रखने के लिए जो सब करते हैं, वही पहले करते थे। दूसरी ओर, पश्चिम के लोगों को यह सब समझ में ही नहीं आ रहा है। हम पहले भी हाथ नहीं मिलाते थे, अब भी नहीं मिला रहे हैं। कोई फर्क नहीं पड़ रहा। पर पहले जो गले लगते थे और जिसे हम गले पड़ना कहते थे वो अब कैसे समझेंगे कि नमस्ते कैसे करते हैं या मास्क लगाकर ललाट पर किस लेने से कोरोना कैसे होगा? लेखक ने लिखा है कि आजकल सामान देने आने वालों को घर के दूसरे दरवाजे पर बुलाते हैं। वहां एक मेज इसी काम के लिए रख दी गई है और उसपर बीस का एक नोट टिप के लिए पहले से रखा रहता है। 

भारत में पुराने लोग टिप नहीं भीख देते थे और वह टन्न से बजता था और नहीं बजे तो अंधा भिखारी भी समझ जाता था कि कुछ नहीं मिला। मुकुल केसवन ने इस बारे में लिखा है, इंग्लैंड में एक युवा स्नातक छात्र के रूप में मैंने देखा कि लोग पैसे सीधे नकद लेने वाले के हाथ में रखते थे जबकि भारत में हम लोग काउंटर पर पैसे रखते रहे हैं। कुछ लोग हाथ में देने लगे होंगे। अब वो फिर पुराना तरीका अपना लेंगे। इस तरह पैसे या सामान के लेन-देन में अब छूने की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई है। यह एक बार फिर सवर्ण होने का अहसास करा रहा है और सवर्ण ही अच्छी तरह अलग-थलग रह सकता है। आज अगर ज्ञान क्षेत्र में काम करने वालों को नया ब्राह्मण मान लिया जाए और पुराने ऊंची जाति के ब्राह्मण अब अगर नए ज्ञान कार्यकर्ता हैं और पुराने लोग नई ऊंची जाति के ज्ञान कार्यकर्ता हैं तो यह समझने वाली बात है कि भारत में डिजिटल काम काजी जीवन सवर्णों के एकाधिकार में है। छोटे-मोटे काम करने वाले ब्राह्मण, फेरी वाले, शिल्पकार, कृषि मजदूर, निर्माण कर्मचारी, स्वरोजगार वाले और वो लोग जिन्हें अपना काम करने के लिए या आजीविका कमाने के लिए शारीरिक रूप से मौजूद रहना चाहिए वे महात्मा ज्योतिबा फुले के शब्दों में नए शूद्र हैं या कहिए कि काम की इस बेहद विस्तृत ऑनलाइन दुनिया में क्वारंटाइन किए हुए लोग अति शूद्र हैं। 

नया कोविड ब्राह्मणवाद पुरानी दुनिया की सभी टेक्नालॉजी का उपयोग करता है। छुआछूत के इस मौसम में  हमारे पूर्वजों ने सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग का यह उपहार हमें दिया है। और वे रहते तो उन्हें पसंद आता। उन्हें अनजानों से छूत लग सकने के बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ती। भारतीय समाज में जो ऊंच-नीच और भेदभाव है उसके लिए जाति-व्यवस्था शब्द एक अच्छा सा और भारी-भरकम आवरण है। यह कोई अडिग व्यवस्था नहीं है। इसने बस रूप बदला है जो पूंजीवादी आधुनिकता से प्रेरित एक जबरदस्त राजनीतिक प्रक्रिया है। अगर ऑफलाइन रहने वाले वाले गरीब नए शूद्र हैं तो समकालीन भारत में बेहद कमजोर और अछूत नए दलित हैं। वे बेहद गरीब तो हैं और ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वे मुस्लिम न रहें। जातियों में बंटे समाज में अगर हाशिए पर होने के कारण दलित अछूत थे तो आर्थिक कारणों से हाशिए पर होने के कारण मुसलमानों को भारतीय समाज से खारिज कर दिया गया है। इसका कारण राजनीतिक तो है ही, उन्हें पूरी तरह अलग-थलग कर दिया गया है।  

गुजरे महीने के दौरान कोविड-19 महामारी के कारण पैदा हुई उत्सुकता और जिज्ञासा को मुसलमानों के खिलाफ हथियार बना देने की जोरदार कोशिश चल रही है। निजामुद्दीन में मरकज के लिए जुटे तबलीगी जमात के लोगों की भूमिका वायरस फैलाने में थी। इस तथ्य का उपयोग भारत की सोशल मीडिया के साथ मुख्यधारा की मीडिया और इसके राजनीतिक दलों के साथ आरडब्ल्यूए (रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन) और यहां तक कि केंद्र और राज्य सरकारों ने भी किया है। इसकी आड़ में पूरे समाज के खिलाफ खुली चर्चा चली। एक राष्ट्रीय अखबार ने खबर दी कि अहमदाबाद के एक अखबार ने मरीजों को धर्म के आधार पर बांटना शुरू कर दिया है। ऐसी ही काम मेरठ के एक अस्पताल ने बाकायदा विज्ञापन निकाल कर किया। हालांकि बाद में उसने माफी मांग ली। पर जिस अखबार ने विज्ञापन छापा उसका कुछ नहीं बिगड़ा। इसका कारण यही था कि मुसलमानों को खुलकर कोरोना जेहाद का कारण बताया गया। मुख्य धारा के मीडिया चैनल भी इसमें पीछे नहीं रहे। 

एक तरफ लोग मुसलमानों से सब्जी नहीं ले रहे दूसरी तरफ फल की दुकानें हिन्दू घोषित की जा रही हैं और इसके बीच आरडब्ल्यूए वाले जानना चाह रहे हैं कि मुस्लिम विक्रेताओं को आने की अनुमति दी जाए या नहीं, क्योंकि क्या पता वे कहां और कैसे रहते हैं। मध्यमवर्गीय लोगों को इतनी चिन्ता है कि मुसलमानों को ही नहीं, कोरोना पीड़ित देश से आए किसी भी पड़ोसी को मोहल्ले से खदेड़ दें। थूकने पर कोरोना फैलाने का आरोप और पुलिस प्रशासन पर दबाव से लेकर मनमानी तक के मामले हो चुके हैं। इसका कारण यही है कि भारत में कोरोना वायरस गंदगी फैलानी वाली एक बीमारी है जिसे नियमपूर्व बरती जान वाली सतर्कता से दूर रखा जा सकता है। करीब आने से बचकर और लगातार शुद्धिकरण के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है। यह एक चुनौती है जिसका सामना करने के लिए जातियों में बंटा समाज बनाया गया था। और जैसा मुकुल केसवन ने लिखा है, मेरे परदादा जानते थे कि उनकी समझ से हर दिशा में प्रदूषण फैलाने वाले दलितों से उन्हें कितनी दूर रहना है। यही हाल अब हर अनजान का हो गया है। और सबको दूर-दूर रहने के लिए कहा जा रहा है।    


प्रस्तुति- संजय कुमार सिंह

 

 

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