‘थाने में हत्या से थानेदार की हत्या तक’ की यात्रा लोकतंत्र के पतन का रूपक!

लाल बहादुर सिंह

 

थाने में हत्या से थानेदार की हत्या तक की यात्रा 21वीं सदी में हमारे लोकतंत्र के अधःपतन का रूपक है!

देश के सबसे बड़े राज्य में 2001 में पिछली भाजपा सरकार के राज में थाने में दर्ज़ाप्राप्त राज्यमंत्री की हत्या से शुरू हुई यात्रा भाजपा के मौजूदा शासन में थानेदार, CO, पुलिसकर्मियों की हत्या तक पहुंची !

21वीं सदी के बीते 20 वर्षों में प्रदेश में लोकतंत्र के क्रमिक पतन और पुलिस-माफिया राज में तब्दील होते जाने की यह दुर्भाग्यपूर्ण कहानी है !

इन 20 वर्षों में उत्तर प्रदेश अनेक पार्टियों की सरकारों-मुख्यमंत्रियों का साक्षी रहा है, पर दिनदहाड़े तत्कालीन सरकार के दर्ज़ा प्राप्त मंत्री का हत्यारा, जो अन्य हत्याओं समेत अनगिनत अपराधों का अभियुक्त है वह इन 20 सालों में फलता-फूलता रहा, तमाम मामलों में बाइज्जत बरी होता रहा, bail पर जेल से बाहर आता रहा, उसका आर्थिक साम्राज्य मजबूत होता रहा और अंततः उसने ऐसी दुर्दांत घटना को अंजाम दे दिया।

यह समूचा प्रकरण एक रूपक है यह समझने के लिए कि कैसे इस पूरे दौर में राज्यतंत्र और समाज पर राजनेता-अपराधी-पुलिस/प्रशासन गठजोड़ का ऑक्टोपसी शिकंजा मजबूत होता गया है, और उसी अनुपात में आम नागरिकों के सम्मान, सुरक्षा और मानवाधिकार का space सिकुड़ता गया है ।

यह परिघटना हमारी समूची न्यायिक व्यवस्था पर भी गम्भीर टिप्पणी है, जिसे विधायिका और कार्यपालिका के विचलन और विफलता पर अंकुश लगाना था और संविधान की रक्षा करना था ।

आखिर यह कैसे हुआ कि थाने में दरोगा के सामने सरेआम हत्या करनेवाला सबूत और गवाह के अभाव में रिहा हो गया! और फिर संगीन अपराधों में bail मिल गयी ताकि वह अगले जुर्म को अंजाम दे सके !

सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, पार्टियां बदलती रहीं, मुख्यमंत्रियों के चेहरे बदलते रहे लेकिन माफिया का जलवा बदस्तूर कायम रहा, उसका बाल नहीं बाँका हुआ!

आज हालत यह है कि ऊपर राष्ट्रीय स्तर पर कारपोरेट के धनबल, उसके द्वारा controlled मीडिया के प्रचारतंत्र तथा नीचे जमीनी स्तर पर माफिया-राजनेता गठजोड़ के बाहुबल ने प्रधान से लेकर संसद तक के चुनाव पर अपना प्रभावी नियंत्रण कायम कर लिया है और समूची लोकतांत्रिक राजनैतिक प्रक्रिया और चुनावों को बेमानी बना दिया है।

समाज में जैसे जैसे लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है, तरह तरह से उसकी जड़ों को खोदा जा रहा है,  लोकतांत्रिक ताकतों पर निरंकुश हमले हो रहे हैं, तो स्वाभाविक रूप से इस खूनी गठजोड़ के खेलने के लिए खुला मैदान मुहैया होता जा रहा है।

वैसे तो इस दिल दहला देने वाले मामले पर तरह तरह की भावुक प्रतिक्रियाएं आ रही है, कुछ एजेंडा प्रेरित कहानियां चल रही हैं, घिरी हुई सरकार जनता के गुस्से के मद्देनजर निकलने की राह तलाश रही है लेकिन असली जरूरत यह है कि कानपुर कांड के बहाने पिछले 20 वर्षों के इस नापाक गठजोड़ के इतिहास से पर्दा उठे,

यह शुभ होगा प्रदेश के भविष्य और लोकतंत्र के लिए!


 
लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोकप्रिय छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं।

 


 

First Published on:
Exit mobile version