एक दंगा, दो परस्पर विरोधी आख्यान और ‘बुलशिट’!

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पिछले दो सप्ताह से मैं दो आख्यानों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

पहला आख्यान (narrative): इसके अनुसार दिल्ली में जो कुछ हुआ वह:

  1. हिंदुओं ने किया, मुसलमानों के विरुद्ध।
  2. इस में सरकार और दिल्ली पुलिस ने मदद की।
  3. दिल्ली में मुसलमानों का ‘जनसंहार’ (genocide) हुआ।
  4. हिंदुओं ने मुसलमानों की ‘तबाही’ (pogrom) किया।
  5. भारत में मुसलमानों का जनसंहार किया जा रहा है, यह जनसंहार हिन्दू सरकार के सहयोग से कर रहे हैं।
  6. भारत के हिन्दू मुसलमानों से घृणा करते हैं और उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं।
  7. भारत मुसलमानों के लिए सब से असुरक्षित देश हो गया है।
  8. इस सारी चीज में मुसलमान एकदम निर्दोष हैं, भले हैं, शांतिप्रिय रहे हैं और वे सामान्य तौर पर शान्तिप्रिय हैं।
  9. मुसलमानों के जनसंहार का ये दौर कपिल मिश्रा के बयान के कारण शुरू हुआ।

दूसरा आख्यान

  1. दिल्ली का दंगा मुसलमानों ने हिंदुओं पर संगठित आक्रमण के रूप में किया।
  2. मुसलमानों ने बहुत मजबूत पूर्व तैयारी कर रखी थी।
  3. यह देश को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के समय दुनिया भर में बदनाम करने की सजिस थी।
  4. यह हिंदुओं को डराने और सरकार को बदनाम करने के लिए था।
  5. हिन्दू निर्दोष और शान्तिप्रिय हैं।
  6. मुसलमान सदा आक्रामक और दंगा शुरू करने वाले होते हैं।

मुझे आख्यान शब्द से बहुत प्रेम नहीं है। इस में सदा ही मुझे तर्क और तथ्यों की कमी को काल्पनिक व्याख्याओं से भरने के प्रयत्न की बू आती है। ये काल्पनिक व्याख्याएँ बहुत बार निराधार और गलत आरंभिक मान्यताओं पर चलती हैं, जिन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता। पर यहाँ यह आख्यान शब्द बहुत ही सटीक है। मेरे विचार से इन दोनों आख्यानों में झूठ के साथ-साथ जिसे हैरी फ़्रंकफ़र्ट “बुलशिट” (बकवास?) कहता है उसकी मात्रा बहुत अधिक है।

फ़्रंकफ़र्ट के अनुसार बुलशिट का सदा ही झूठ होना जरूरी नहीं है। बुलशिटर सच्चाई और झूठ से निरपेक्ष रह कर जो उसे उस वक़्त काम का लगता है वह आख्यान बनाने की कोशिश करता है। और बुलशिट समाज में झूठ के बजाय ज्यादा हानिकारक होता है।

उपरोक्त दोनों आख्यानों के लिए खुदरे ‘प्रमाण’ संचार माध्यमों में, विशेष रूप से सोशल-मीडिया में, बहुतायत से उपलब्ध हैं। उन्हें सिर्फ सुविधा अनुसार या अपने-अपने उद्देश्यों के अनुसार, चुनने की जरूरत होती है। बुलशिटिंग में कथित-लिब्रल बुद्धिजीवियों की महारत मोदी-समर्थकों की तुलना में कहीं ज्यादा है। जब आप सिद्धान्त-निर्माण को आख्यान गढ़ने का समानार्थक मान लेते हैं, तो सिद्धान्त निर्माण के नाम पर बुलशिटिंग के अभ्यास के बहुत मौके मिलते हैं। और कथित-लिब्रल बुद्धिजीवी अपनी आर्थिक सामाजिक बढ़त के चलते इसके मौके अपेक्षाकृत अधिक पाते हैं। इस लिए पहला आख्यान दुनिया भर में अधिक प्रचलित हो रहा है।

इस बात के कोई भरोसेमंद प्रमाण नहीं हैं कि यह “जनसंहार” या “पोग्रोम” था पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है, भारतीय बुलशिटर्स की मदद से। इस बात के कोई भरोसेमंद प्रमाण नहीं हैं कि यह एकतरफा दंगा था, पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है। इसमें मुसलमानों ने उतनी ही हिंसक-दुर्भावना से हिस्सा लिया है जितना हिंदुओं ने। भारत में शान्तिप्रिय और सबके प्रति सद्भावना रखने वाले लोग मुसलमानों और हिंदुओं दोनों में हैं, पर मीडिया में प्रचार एकतरफा है।

मेरे विचार से उदारवाद के लिए सत्य और न्याय का पक्ष लेना नैतिक ज़िम्मेदारी है, पर भारतीय उदारवादी दुनिया भर में मिथ्या प्रचार का कोई जवाब देने की जरूरत नहीं समझते, जब तक कि वह प्रचार उनके वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति करता रहे। ये हिन्दू को और देश को असहिष्णु, क्रूर, मुसलमानों के लिए दुर्भावनाग्रस्त और बहुसंख्यावादी साबित करने वाले आख्यान जितने ज्यादा सफल होंगे उतना ही जल्दी पलट कर अपने निर्माताओं पर आएंगे। मुस्लिम असहिष्णुता, आक्रामकता, इस्लामिक-वर्चस्व की भावना और मुस्लिम-वोटों की मुहिम को जितना छुपाया जाएगा उतना ही वह बढ़ेगी।

दिल्ली दंगों में दोनों पक्षों ने भाग लिया है। दोनों ने क्रूरता की है। अमानवीयता की है। शाहीन-बाग जैसे विरोध-प्रदर्शनों के पीछे जितनी धोंसपट्टी आम जनता के लिए है, जितनी उग्रता और दुर्भावना साफ दिखती है, बच्चों तक को सिखाई जा रही है, उसे छुपाने से वह मिट नहीं जाएगी। और बढ़ेगी।

इस बुलशिट आख्यान का एक हिस्सा दुनिया भर में प्रचारित यह है कि दंगे कपिल मिश्रा के बयान/भाषण से भड़के। मैंने कपिल मिश्रा के वास्तविक बयान और विडियो ढूँढने की कोशिश की। मुझे जो मिला वह यह है। कपिल मिश्रा ने कहा कि (1) हम ट्रम्प की यात्रा के समापन तक चुप हैं। (2) “हमने दिल्ली पुलिस को तीन दिन की अंतिम-चेतावनी दी है कि जाफराबाद और चांदबाग की सड़कें खुलवा दे”। (3) पुलिस के सामने खड़ा हो कर कहा कि “नहीं तो (हम खुलवाएंगे) और आप की (पुलिस की) भी नहीं सुनेंगे”।

दंगा कपिल मिश्रा और उसके समर्थकों के चले जाने के एक घंटे बाद शुरू हुआ। सवाल यह है की कपिल मिश्रा के बयान में ऐसा क्या है कि तुरंत दंगे हो गए? इस बयान के अलावा तो मुझे कपिल मिश्रा की कोई कारस्तानी इस दंगों के संदर्भ में कहीं मिली नहीं। तो इस आख्यान में कपिल मिश्रा के बयान को दंगों के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया जा रहा है? कोई तर्क? कोई प्रमाण?

यह सवाल मैं दो कारणों से रख रहा हूं। एक, मैं समझ नहीं पा रहा कि दंगों की कड़ी मिश्रा के बयान से कैसे जुड़ती है। मेरी मिश्रा जैसे लोगों को दोषमुक्त करने की या उनके समर्थन की कोई मंशा नहीं है पर मैं यह नहीं मान पा रहा कि ये बयान अपने आप में दंगा शुरू करने में समर्थ हैं। दो, मिश्रा के बयान को दंगों के आधार के रूप में स्वीकार करना पहले आख्यान के लिए जरूरी है। यही वह कड़ी है जिसके माध्यम से दंगों का पूरा दोष बीजेपी समर्थक हिंदुओं पर मढ़ा जा रहा है। तो इसे समझना जरूरी है क्योंकि आगे का बुलशिट आख्यान इसी आरंभिक मान्यता पर आधारित है।

अपने आप को प्रगतिशील, लिब्रल और धर्मनिरपेक्ष साबित करने की इच्छा रखने वाले सभी, खास कर युवा पीढ़ी के, भारतीयों को शर्मिंदा होने की बहुत आदत है। वे हर बात पर, हिन्दू होते पर, भारतीय होने पर, इस देश में रहने पर शर्मिंदा होते रहते हैं। शायद इसलिए कि शर्मिंदा हैं यह कह देना सब से सरल तरीका है अपने आप को लिब्रल बुद्धिजीवी साबित करने का।

मेरी बिना मांगी सलाह है कि पहले थोड़ा तथ्यों की जांच करें, सब तरफ के आख्यानों को जाँचें; फिर तय करें कि शर्मिंदा होना है या गुस्सा होना है या दुखी होना है, या कुछ और। और फिर शर्मिंदा, गुस्सा, दुखी या कुछ और हो कर बैठ नहीं जाएँ; बल्कि जहां हैं वहाँ अपने काम में इस समस्या से जूझने की कोशिश करें। वरना आप की कई पीढ़ियाँ शिर्फ शर्मिंदा होती रहेंगी; आप पर भी।


यह लेख शिक्षाविद् रोहित धनकर के ब्लॉग से साभार प्रकाशित है 

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