प्रशांत भूषण को सज़ा सुप्रीमकोर्ट की स्वतंत्रता पर उठे सवालों का जवाब नहीं!

प्रशांत भूषण ने जो सवाल उठाए थे, उनपर तो अब भी चर्चा बाकी है! भले ही यह मामला एक व्यक्ति पर अवमानना का मुकदमा बन गया हो, लेकिन असल में तो ये सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता का मामला था। क्योंकि कहानी की शुरुआत ही हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और भूमिका पर सवाल के ट्वीट से हुई थी।

प्रशांत भूषण शुरू से कह रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट चाहे जो सज़ा दे वो सहर्ष स्वीकार करेंगे, लेकिन अपने कहे पर माफी नहीं मानेंगे। माफी न मांगने का कारण ये था कि उन्हें अपने ट्वीट में कही बात गलत नहीं लगती है। जो बातें उन्होंने कहीं वो तो आज के इस दौर में हर नागरिक का धर्म होना चाहिए। इसके अलावा प्रशांत भूषण लगातार कहते रहे कि उनके ट्वीट्स अच्छी नीयत से किए गए थे और उस सुप्रीम कोर्ट के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए थे जिसकी उन्होंने तीन दशक से सेवा की है।

सब जानते हैं कि भारी दबाव के बावजूद प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया क्योंकि वो अपनी बात पर पूरी तरह कायम हैं। उन्होंने कहा था कि ऐसी बात के लिए माफी मांगना उनकी ‘अंतरात्मा की अवमानना’ होगी। लेकिन माफी न मांगते हुए भी न्यायालय के सम्मान में उन्होंने बार बार कहा कि अदालत जो भी सज़ा देगा उन्हें स्वीकार है।

अब जब सुप्रीम कोर्ट ने उनपर एक रुपये का जुर्माना लगाया तो उस सज़ा का पालन करना उन पिछले बयानों के क्रम में है। साथ ही उन्होंने अदालत के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की भी बात कही है जो कि उनका न्यायिक अधिकार भी है। ये बात भी प्रशांत भूषण दोषी ठहराए जाने के वक़्त से ही कहते आये हैं। मेरा मानना है कि यह बिल्कुल उचित निर्णय है और इससे प्रशांत भूषण का कद और ऊँचा होता है। इससे साबित होता है कि उनके लिए ये कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं बल्कि एक सैद्धान्तिक संघर्ष था। उनका माफी न मांगना कोई ज़िद नहीं, बल्कि अंतरात्मा के प्रति एक गाँधीवादी प्रतिबद्धता है।

जुर्माना न भरने पर जेल और तीन साल प्रेक्टिस बंद करने की बात अगर सुप्रीम कोर्ट नहीं भी कहता तो भी वो इस सज़ा का पालन करते। इतना तो अब तक सबको समझ आ गया होगा कि प्रशांत भूषण को जेल जाने का कोई डर नहीं था। वरना अवमानना का यह मामला यहाँ तक नहीं पहुंचता। उल्टा, प्रशांत भूषण को अगर जेल की सज़ा हो जाती तो यह पूरे देश के लिए एकजुट होकर खड़े हो जाने का एक अवसर बन जाता।

वैसे अगर जज साहब तीन साल के लिए उनका अदालत में प्रवेश बंद करवा देते, तो ज़रूर देश का और सुप्रीम कोर्ट का नुकसान होता। प्रशांत भूषण अगर उच्चतम न्यायालय में न हों, तो देश के गरीब, मजदूर, छात्र, किसान, पीड़ित और शोषितों की आवाज़ वहाँ कौन उठाता?

अब जब मामला यहाँ तक पहुंच चुका है, तो मुझे लगता है कि इस प्रकरण में जो सबसे ज़रूरी बात थी, वो अभी भी अधूरी रह गयी है। प्रशांत भूषण चाहे दोषी करार दे दिए गए, चाहे उन्हें सजा सुना दी गयी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता पर जो आरोप लगे उनपर कौन और कब चर्चा करेगा, विशेषकर पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका पर?

यह मामला इतना बड़ा नहीं बनता अगर ये सिर्फ प्रशांत भूषण पर अवमानना के मुकदमे तक सीमित रहता। असल में ये हमारे सुप्रीम कोर्ट के उन गंभीर सवालों से उपजा मामला है जिनके जवाब देश को अब भी नहीं मिले हैं। ये सवाल तो पूछे जाएंगे और किसी भी कानून का भय, देश के नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सच बोलने की आज़ादी नहीं छीन सकती।


अनुपम, ‘युवा हल्लाबोल’ के संस्थापक हैं।

 


 

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