“अनुपम खेर, आपने बग़ैर सोचे-समझे गाँधी को मार डाला !”

संध्या

 

अनुपम खेर…! इन महोदय की पहली फ़िल्म का नाम “सारांश” था। जीवन की लंबी फिल्मी यात्रा के दौरान वर्ष 2005 में इनकी एक और फ़िल्म आई थी जिसका नाम था “मैंने गांधी को नहीं मारा”।

कुछ वर्षों से इनका अंदाज़-ए-बयाँ हद दर्जे तक परिवर्तित हो चुका हैं, जिसके कारण इनकी इन दो फिल्मों की पड़ताल जरूरी है। एक है इनकी पहली फ़िल्म सारांश और दूसरी जिसके बारे में मैं बात कर रही हूँ वो है- “मैंने गांधी को नही मारा”।

आपने अपने एक वीडियो में बेहद ही तल्ख अंदाज़ में ये कहा कि हमारे देश में न बहुत ही घटिया प्रवृत्ति के लोग रहते है, देश में लॉकडाउन 95% सफल है लेकिन इनलोगों को इस बात की पड़ी है कि कहाँ से कमी ढूंढ़कर लाएं। बाकी इन्होंने अपना आंकड़ा भी पेश किया कि हमारे देश में 2% जो लोग हैं, वो बहुत ही घटिया प्रवृति के लोग है। बहुत गुस्सा आया उनको ये कह कर, उसके बाद अपने चिर परिचित अंदाज़ में उन्होंने ओम नमः शिवाय का जाप भी किया।

आपकी ये विकार युक्त वाणी सुनकर मेरे मन में ढेरों सवाल तैरने लगे।

सबसे पहले तो मुझे ये समझ में नही आया कि इस 2% के आंकड़े का साइंस यानि विज्ञान क्या है?? ये आंकड़ा इन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?? आप  जरा यह बताने का कष्ट कर सकते हैं कि यह आंकड़ा किस आधिकारिक सूचना की बाबत आपने पेश किया? क्या आप इस आंकड़े की ज़िम्मेदारी लेते हैं?? और अगर ये आंकड़ा निहायत ही खोखले उत्साह में ज़बान तक आया है तो यह निहायत ही अनैतिक और अमानवीय है।

खोखला उत्साह क्या होता है? तनिक देख लेते हैं-

खोखला उत्साह वह होता है जिसमें स्वयं को सफल व्यवसायी के तौर पर या ये समझिए कि कुछ मनोरोगियों में यह बीमारी लीजेंड होने के नाम से भी जानी जाती है, आप समझ रहे होंगे कि मैं क्या कहना चाह रही हूँ, जी हाँ स्वयं को लीजेंड समझने की बीमारी से भी ये ग्रस्त होते हैं, सबसे बड़ी बात है कि इसकी मान्यता या घोषणा भी एक महान स्वयंसेवी के तौर पर भी स्वयं ही कर रहे होते हैं और निःसन्देह इस सफल होने की भावना के संचार के कारण आप अति उत्साह नामक बीमारी से ग्रषित हो जाते हैं, इसे स्वार्थी उत्साह भी कहा जा सकता है, इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को यह ग़लतफहमी हो जाती है कि वो जो बोल रहा है वो ब्रह्म वाक्य है, और इसी उत्साह में वह तथ्य को भी अपने सीमित मानसिकता में बंद कर उसे आम लोगों के आगे पूरे विश्वास के साथ परोस देता है।

पुनः आपकी ये विकारयुक्त वाणी मुझे आपकी पहली फ़िल्म “सारांश” की पृष्ठभूमि में ले गई। उस पृष्ठभूमि में मुझे वो वी बी प्रधान याद आया जो इस फ़िल्म का मुख्य पात्र था। वो 60 वर्षीय वी बी प्रधान जो एक लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए व्यवस्था (सिस्टम) से टकरा जाता है। जो सरकारी जुल्म, सत्ता की अन्याय पूर्ण प्रहार से एक दृश्य में पूर्ण रूप से टूट जाता है और एक सरकारी अधिकारी के दफ्तर में जबरन घुसता है और मारे तकलीफ के फट पड़ता है और कुछ इस तरह से अपनी बात कहता है-

जरा दृश्य की शुरुआत देखिए –

दृश्य खुलता है सत्यमेव जयते के प्रतीक चिन्ह के साथ, उसके बाद वी बी प्रधान आक्रोश में सरकारी दफ्तर में जबरन घुस जाता है, उसको रोकने के लिए ऑफिस का एक मुलाज़िम उसके पीछे जाते हुए कह रह होता है कि

‘सुनिए! आप अंदर आए कैसे?

गार्ड-गार्ड चिल्लाते हुए यह कह रहा होता है कि, सुनिए पता नहीं है आपको सेशन चल रहा है! वी बी प्रधान कहता है “आई डोंट केयर”

फिर वी बी प्रधान को वह मुलाज़िम धमकाता है कि आप अरेस्ट भी हो सकते हैं, वी बी प्रधान का दृढ जवाब “आई नो”

आपका अप्पवाइंटमेंट है?

फिर से मुलाज़िम का सवाल आपने परमिशन (Permission) लिया है?

कमिश्नर की दरवाजे की रखवाली में जो बैठा है वो खड़ा होकर पूछता है कि कहाँ जा रहे हैं आप?

वी बी प्रधान का आक्रोशित जवाब, कमिश्नर से मिलना है मुझे।

फिर उसका सवाल, इस बार वो वी बी प्रधान को हल्का धकेलते हुए कहता है कि आप यहाँ तक आए कैसे?

60 वर्ष का वी बी प्रधान पूरे ताकत के साथ गेट कीपर को धक्का देते हुए कमिश्नर की ऑफिस के अंदर जबरन घुस जाता है और आक्रोशित भाव से कमिश्नर को कहता है कि

“मैंने चुना है आपको मैंने, मेरी वजह से आप यहाँ  इस कुर्सी पर हैं, अपॉइंटमेंट्स लेनी पड़ेगी मुझे??? वहाँ उस ऑफिस में पहले से ही बैठा एक व्यक्ति कहता है कि हू इज़ दिस मैन???, बी वी प्रधान का जवाब “आई टेल यू हू आई एम”

आगे वी बी प्रधान अपनी बात जारी रखते हुए कहता है कि अपना खून दिया है मैंने इस देश को, अपनी ज़िन्दगी के कीमती साल लगा दिए देश की आज़ादी के लिए। बापू के साथ मैंने लाठियां खाई हैं, ये देखिये इसके निशाँ, वो अपने कंधे के घावों को दिखलाता भी है और इसका ये सिला दे रहे हैं आप मुझे? ये है मेरा इनाम? शाबाश अरे एक मासूम की जान बचाने के लिए मुझे यहाँ पागलों की तरह गिड़गिड़ाना पड़ेगा, अप्वाइंटमेंट लेनी पड़ेगी तो लानत है, लानत है, नो आई डोंट सी एनी होप फॉर दिस कंट्री, नो होप।” यह कहकर उसका गला भर जाता है और वो करीब करीब रोने लगता है।

कुछ याद आया आपको?????

आपको वी बी प्रधान की ही भाषा में समझाऊँ तो अनगिनत वी बी प्रधान इस देश में हर दिन अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। आपने जिस 2 प्रतिशत को घटिया कहा है उसकी लड़ाई को आप सोच भी नहीं सकते। आप नहीं सोच सकते कि किस प्रकार एक महिला मजदूर मुजफ्फरपुर के स्टेशन पर मरी हुई पाई जाती है और उसका दो या तीन साल का बच्चा अपनी ही माँ के लाश के साथ खेल रहा होता है। वो वी बी प्रधान ही पूछता है कि एक मजदूर साइकिल से कोरोना की डर से घर लौट रहा होता है और रास्ते में हार जाता है और मनोबल टूटने के कारण पेड़ से फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेता है और उसकी लाश को चेक किया जाता है तो उसके मोबाइल में कॉल करने तक के पैसे नहीं थे। क्या इस दर्दनाक वाकये की रिपोर्टिंग करना नकारत्मकता है???? वो वी बी प्रधान यह सवाल भी पूछता है कि किस प्रकार एक मजदूर गर्भवती महिला हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर अपने घर पैदल जा रही है, और सड़क पर ही बच्चे को जन्म देती हैं, और जन्म देने के कुछ देर बाद ही वह पैदल चलने लगती है, क्या ये सच्चाई को बताना घटियापन की निशानी है??

वो क्या है ना ज़िन्दगी में ऐसी दर्दनाक घटनाओं के घटित होते वक्त बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं बजता, अगर आत्मा जीवित है तो आत्मा ही वह म्यूजिक होती है और मुझे वी बी प्रधान का अभिनय करने वाले कथित शख्स से आत्मा के जीवित होने की कोई उम्मीद नहीं है।

एक निश्चित जनसंख्या की मुसीबतों और तकलीफों को दरकिनार करते हुए, 2% जैसे अमानवीय, तर्कहीन, आधारहीन आंकड़ा रख कर आपने जो  उनका माखौल बनाया, उस वक्त आप शायद भूल गए कि सारांश का वो वी बी प्रधान भी उसी 2% में आता है, लेकिन तमाचे वाली बात ये है कि आंकड़ा सिर्फ 2% नही हैं बल्कि आप जैसों की कल्पना से भी परे है। ना हो तो आप जिस संस्था को निष्पक्ष मानते हैं उसी के माध्यम से अपने आंकड़ों को सही कर लें।

25 मई 1984 को यह फ़िल्म सिनेमा घरों में प्रदर्शित हुई थी। इस साल यह फ़िल्म लगभग 35 वर्ष पुरानी हो जाएगी। इस फ़िल्म की लागत 1 करोड थी और इसकी कमाई 2 करोड़ हुई थी। इसका मतलब यह हुआ कि यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से भी काफी सफल फ़िल्म थी।

आपने जिन लोगों की ज़िन्दगी को परदे पर अभिनीत कर, आपने उससे अपने लिए नाम और दाम हासिल किया और फिर उन्हीं लोगों को घटिया कहकर आपने जो अपना अहंकार दिखाया है, उसके एवज में आपको हर्ज़ाने की रकम देने के साथ-साथ माफ़ी भी मांगनी चाहिए।

आपने एक फ़िल्म और कि थी “मैंने गांधी को नहीं मारा”। इस फ़िल्म में आपने एक डिमेंशिया के मरीज का किरदार निभाया था जो कि हिंदी का प्रोफेसर था। यह प्रोफ़ेसर बुढ़ापे के कारण बहुत सारी चीजों को भूल जाता है लेकिन उसे लगता है कि उसने गांधी को मारा है, और इस गिल्ट में वह जीता रहता है। लेकिन सच्चाई ये होती है कि बचपन में एक खेल को खेलते वक्त जिसमें गांधी की एक तस्वीर लगी होती उसपर वो गुब्बारे से मारता है जिसके अंदर लाल रंग भरा होता है। और ये करते वक्त उसके पिता जी उसे बहुत मारते हैं। उस बच्चे को ऐसा महसूस होता है कि उसने सच में गांधी को मार दिया है।

अपने बुढ़ापे में डिमेंशिया के कारण उसे सच में लगता है कि उसने गांधी को मार दिया है और जिसके एवज में उसे सजा होगी।

खैर! ये तो हुई फ़िल्म की बात लेकिन आपने जिस तरह की बात की वो सच में गांधी को मार देने जैसा ही है। आपने बगैर सोचे समझे यानी असारांशित होकर गांधी को मार डाला। मैं यह बात पूरे ज़िम्मेदारी के साथ इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मुझे गांधी जी का जंतर याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था-

मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं। जब भी तुम्हे संदेह हो या तुम्हारा अहम तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त… तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।’’

आपने जिन लोंगो को घटिया कहा, दरअसल वो बापू का वो अंतिम जन जिसकी बात वो सबसे पहले किया करते थे। आपने जो अपना अहंकार दिखाया है वो इस देश के ही नहीं पूरे मानव समाज की हत्या के साथ-साथ उस गांधी की भी हत्या है जिसकी दुहाई के नाम पर आपने ऊपर उल्लिखित फिल्मों से नाम और शोहरत बनाया। किसी और की न सही अपने द्वारा अभिनीत चरित्रों के प्रति ज़िम्मेदारी और निष्ठा का ही ध्यान रख लिया कीजिए। और मुझे लगता है कि आपको NSD के सच्चे विद्यार्थी होने का भी परिचय देना चाहिए। बाकी गांधी का ये जंतर अपने घर के किसी महत्वपूर्ण दीवार पर लगा दीजिए (वैसे आपको ध्यान दिला दूं कि इस दीवार का निर्माण एक मजदूर करता है और इन मजदूरों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट चुका है और इनकी बात करने वाले को आपने घटिया कहा) और जब भी आपको लगे कि आपकी आत्मा अहंकार का शिकार हो चुकी है तो इसे पढ़ा कीजिए।

मैं पूरे सम्मान के साथ आपको ये बात याद दिलाना चाहती हूँ कि जिस दिन ये मजदूर, ये कामगार अपने आप पर उतर आए, तो आपको अपने फ्लैट, विला, किला या मैन्शन इत्यादि भारी भरकम नामों वाले घरों से निकल कर सड़क पर आना पड़ेगा। इनकी कुर्बानियों की कीमत इस से तनिक भी कम नहीं है।

आपको अपने अंदर झांकने का यह शाब्दिक मौका अगर आपको अपने लिए पब्लिक फिगर होने का या पब्लिसिटी का मौका दिख रहा हो तो आप समझ लेना कि आपके आत्मा का पता लापता है। इस नाम से भली हम जैसों की गुमनामी। कम से कम ये गुमनामी मुझे मेरे आत्मा में प्रवेश करने से तो नहीं रोकती।

जय आत्मा!!

एक गुमनाम


संध्या फिलहाल स्वतंत्र रूप से लेखन करती हैं। पहले अरविंदो सोसायटी समेत कई संस्थाओं से बतौर कंटेंट राइटर जुड़ी रही हैं।

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