‘सत्याग्रही’ राहुल को चौबीस के रण से हटाने को बेचैन बीजेपी!

कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ जारी घेरेबंदी ने साबित कर दिया है कि बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर राहुल गाँधी से बुरी तरह भयभीत है। उसे राहुल गाँधी का विपक्षी एकता का शिल्पकार होना रास नहीं आ रहा है। लेकिन राहुल गाँधी की संसद सदस्यता से लेकर उनका आवास छीन लेने जैसे उसके दाँव-पेच, राहुल गाँधी की निर्भय भंगिमा के सामने बचकाने लगते हैं। यह भंगिमा संकेत देती है कि राहुल अपने संघर्षपथ पर आगे बढ़ने के लिए हर क़ीमत चुकाने को सहज रूप से तैयार हैं। लालच या भय से विपक्ष को तोड़ने-झुकाने की आदी हो चुकी बीजेपी को समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल जैसे ‘सत्याग्रही’ से कैसे निपटे?

मानहानि मामले में गुजरात हाईकोर्ट के फ़ैसले ने यह सवाल गहरा दिया है कि राहुल गाँधी 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ भी पायेंगे या नहीं? यह सही है कि न्यायधीश की नीयत पर सवाल नहीं करना चाहिए, लेकिन फ़ैसले की आलोचना पर कोई रोक नहीं होती। कई बार फ़ैसले ‘इंसाफ़’ नहीं होते, और यह बात न्यायपालिका भी मानती है। निचली अदालतों के हज़ारों फ़ैसले हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में पलटे जाते हैं। यानी वे ग़लत माने जाते हैं। गुजरात हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने फ़ैसला देते हुए जिस तरह सावरकर को लेकर राहुल गाँधी की आलोचना का ज़िक्र किया है उसने राजनीतिक छाया की ओर इशारा तो कर ही दिया है। वैसे भी देश के इतिहास में मानहानि केस में अधिकतम यानी दो साल की सज़ा देना अभूतपूर्व ही है। अगर दो सला की सज़ा न होती तो राहुल गाँधी की संसद सदस्यता बरक़रार रहती।

राहुल गाँधी की सज़ा बरक़रार रखते हुए अदालत ने इस बात का जवाब नहीं दिया कि मामला दायर करने वाले पूर्णेश मोदी की मानहानि कैसे हुई? या राहुल के कथित मानहानिकारक वाक्य से उनका निजी तौर पर क्या नुकसान हुआ? राहुल का उनके प्रति द्वेष क्या था? ये सारे सवाल मानहानि सिद्ध करने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण माने जाते हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट मे इस पर विस्तृत चर्चा होगी।

दिलचस्प बात ये है कि गृहमंत्री अमित शाह पिछले दिनों में दो बार 2024 का चुनाव मोदी या राहुल गाँधी के पीएम बनने के बीच का चुनाव बता चुके हैं। ये धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है कि बीजेपी चाहती है कि 2024 मोदी और राहुल के चेहरों के बीच मुकाबला बन जाये। इसे बीजेपी के लिए बेहतर बताया जा रहा है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा है तो राहुल को संसद के बाहर करने में इतनी तत्परता क्यों दिखायी गयी?  राहुल गाँधी के खिलाफ़ मामला दायर करने वाले पूर्णेश मोदी बीजेपी के ही विधायक हैं। मजिस्ट्रेट कोर्ट में सुनवाई पूरी होने के बाद उन्होंने ही फ़ैसला सुनाने पर हाईकोर्ट से पहले स्टे लिया था और बाद में नये जज के आ जाने पर फ़ैसला जल्द सुनाने का आग्रह किया। ये सारे परिस्थितिजन्य साक्ष्य बताते हैं कि राहुल को अधिकमत सज़ा दिलाकर उन्हें संसद से बाहर करने में बीजेपी की भरपूर रुचि थी। यह भी संयोग नहीं कि गुजरात हाईकोर्ट के माननीय जज ने जिन अन्य मामलों का ज़िक्र किया है वे सभी बीजेपी से जुड़े लोगों ने ही दायर किये थे।

यह बताता है कि असल में 2024 के लोकसभा के रण में बीजेपी राहुल गाँधी की उपस्थिति नहीं चाहती। वो देख रही है कि राहुल गाँधी की लोकप्रियता दिनो-दिन बढ़ रही है। अपनी हालिया अमेरिका यात्रा में राहुल गाँधी ने जिस तरह हार्वर्ड विश्वविद्यालय से लेकर वाशिंगटन स्थित नेशनल प्रेस क्लब में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक से लेकर सामरिक विषयों तक से जुड़े सवालों का खुलकर जवाब दिया उसके सामने प्रेस से घबराते और टेलीप्राम्पटर के सहारे बोलने वाले पीएम मोदी कहीं ठहरते नहीं हैं। गोदी मीडिया में मोदी की लगातार दुंदुभि बजने के बावजूद सोशल मीडिया के सहारे ये हक़ीक़त तेजी से फ़ैल रही है।

दूसरी तरफ़ ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोलने पर राहुल गाँधी का ज़ोर पूरे देश के लिए राहत का संदेश है। यह बात भारत जोड़ो यात्रा के दौरान काफ़ी शिद्दत से महसूस की गयी थी और राहुल गाँधी ने जिस तरह हाल में मणिपुर के राहत कैंपों में पहुँचकर लोगों को ढाँढस बँधाया, उसने भी समाज में भाईचारा कायम करने को लेकर उनकी गंभीरता को सिद्ध किया है। जबकि हिंसा शुरू होने के दो महीने बीत जाने के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी के मुँह से मणिपुर के लोगों को राहत देने के लिए दो बोल भी नहीं फूटे। हालाँकि देश के नेता बतौर हर पीड़ित को सुरक्षा का अहसास कराना उनकी पहली ज़िम्मेदारी है।

बीजेपी को उम्मीद थी कि नेतृत्व के सवाल पर विपक्षी एकता बन नहीं पायेगी। ख़ासतौर पर ‘गैरकांग्रेसवाद’ की परंपरा से उपज़ीं पार्टियाँ कांग्रेस ख़ासतौर पर राहुल गाँधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगी। लेकिन विपक्षी पार्टियाँ देख रही हैं कि बीजेपी किस तरह हर क्षेत्रीय दल का सफ़ाया करने में जुटी है। ख़ासतौर पर संघीय ढाँचे पर उसका मुसलसल हमला लोगों को एकजुट करने के लिए बड़ी वजह मुहैया करा रहा है। महाराष्ट्र में जिस तरह से पहले शिवसेना और अब एनसीपी को तोड़ा गया, उसके बाद बीजेपी के बारे में किसी को कोई भ्रम नहीं रह गया है। उधर, राहुल गाँधी या कांग्रेस की ओर से नेतृत्व को लेकर न कोई शर्त रखी गयी है और न ऐसा कोई संकेत ही है। राहुल गाँधी के प्रति विश्वास का ही नतीजा है कि पटना बैठक में आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल की ओर से हुई उछलकूद को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है और बंगलुरु में उनके बिना ही अगली बैठक की तैयारी हो रही है।

बीजेपी को दिक्क़त ये है कि राहुल संसद में बैठते नहीं बोलते भी हैं। और उनका बोलना मोदी सरकार के उस स्याह चेहरे को उजागर कर देता है जिसे वह विकास की चमकीली घोषणाओं से ढंकना चाहती है। अडानी को प्रतीक बनाकर राहुल गाँधी ने याराना पूँजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज़्म) और बीजेपी के गठजोड़ को उजागर किया है जो उनके मुताबिक देश की आर्थिक बदहाली और बढ़ती विषमता की मूल वजह है। यही नहीं वे नाभि पर तीर मारने यानी आरएसएस को भी एक क्षण के लिए निशाने से बाहर नहीं होने देते। आरएसएस से वैचारिक संघर्ष को उन्होंने एक तरह से कांग्रेस में होने की शर्त बना दी है। इसे ‘गाँधी और गोडसे’ के बीच युद्ध बताकर वे बीजेपी की दुखती रग दबा देते हैं।

राहुल गाँधी की यह दृष्टि और प्रतिबद्धता उन्हें विपक्ष के अन्य सभी नेताओं से अलग करती है। इस बात की शर्त तो राह चलता व्यक्ति भी लगा सकता है कि केंद्र से मोदी की सत्ता हटाने के लिए राहुल गाँधी बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार हैं। राहुल की यह विश्वसनीयता ही उन्हें इस युग का नया नायक बना रही है जो आरएसएस-बीजेपी के दुर्गद्वार को ध्वस्त कर सकता है।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

(यह लेख सत्यहिंदी में पहले छप चुका है। साभार प्रकाशित।)

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