भीमा कोरेगाँव के महत्व को न समझना इतिहास का उच्चवर्णीय नज़रिया!

1 जनवरी 2018 को कोरगॉंव विजय के 200 साल पूरे हो रहे थे। पुणे में इसकी याद को जीवित करने जा रहे दलितों के जत्थे पर बर्बर हमला किया गया था। जाहिर है यह हमला विरोधियों द्वारा किया गया था और वे कौन थे बतलाना जरूरी नहीं है। हिंसा के फलस्वरूप एक की मौत और अनेक घायल हुए थे। इसकी प्रतिक्रिया में मुंबई समेत महाराष्ट्र के अनेक शहरों -कस्बों में विरोध प्रदर्शन हुए थे। उससे सम्बद्ध मुकदमों में बहुत से लोग आज भी तंग तबाह किए जा रहे हैं। इसकी एक अलग कहानी है। भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवियों का अधिकाँश कोरगॉंव -प्रकरण से ही अनजान हैं, इसलिए इन विरोध -प्रदर्शनों को कभी नहीं समझ पाया। दरअसल यह हमारी उस उथली शिक्षा -व्यवस्था और उसकी नकेल संभाले संकीर्णमना या फिर शातिर मिज़ाज़ लोगों के कारण हुआ है, जिन्होंने हमें इतिहास को आधे -अधूरे और उच्चवर्गीय -वर्णीय नजरिये से पढ़ाया -बतलाया।

कोरेगांव में 1818 में बाजीराव पेशवा की सेना और ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के बीच युद्ध हुआ था। इस में पेशवा सेना की पराजय हुई। कम्पनी सेना जीत गई। यह ऐतिहासिक और दिलचस्प लड़ाई थी। पेशवा सेना में 28000 सैनिक थे। बीस हज़ार घुड़सवार और आठ हज़ार पैदल। कम्पनी सेना में कुल जमा 834 लोग थे। पेशवा सेना में अरब, गोसाईं और मराठा जाति के लोग थे, जबकि कम्पनी सेना में मुख्य रूप से बॉम्बे इन्फैंट्री रेजिमेंट के सैनिक शामिल थे, जो जाति से महार थे। 834 सैनिकों में कम से कम 500 सैनिक महार बतलाये गए हैं। पेशवा सेना का नेतृत्व बापू गोखले, अप्पा देसाई और त्रिम्बकजी कर रहे थे, जबकि कम्पनी सेना का नेतृत्व फ्रांसिस स्टैंटन के जिम्मे था। 31 दिसम्बर 1817 को लड़ाई आरम्भ हुई थी,जो अगले रोज तक चलती रही। कोरेगावं , भीमा नदी के उत्तरपूर्व में अवस्थित है। कम्पनी सैनिकों ने पेशवा सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए। पेशवा सेना के पांव उखड गए और अंततः बाजीराव पेशवा को जून 1818 में आत्मसमर्पण करना पड़ा। यह अंग्रेजों की बड़ी जीत थी। इसकी याद में अंग्रेजों ने कोरेगांव में एक विजय स्मारक बनवाया, जिस पर कम्पनी सेना के हत कुल 275 सैनिकों में से चुने हुए 49 सैनिकों के नाम उत्कीर्ण हैं। इनमें 22 महार सैनिकों के नाम हैं। निश्चित ही अंग्रेज सैनिकों को तरजीह दी गई होगी, लेकिन यह सबको पता था कि यह जीत महार सैनिकों की जीत थी।

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इस स्मारक को हमने राष्ट्रीय हार के स्मारक के रूप में देखा। हमने राष्ट्रीय आंदोलन का ऐसा ही स्वरूप निर्धारित किया था। लेकिन आंबेडकर ने कोरेगांव की घटना को दलितों, खास कर महारों के शौर्य -प्रदर्शन के रूप में देखा। यह इतिहास की अभिनव व्याख्या थी, वैज्ञानिक भी। तब से कोरेगांव के विजय को दलित-विजय दिवस के रूप में बहुत से लोग याद करते हैं। इन्हें याद करने का अधिकार होना चाहिए। कोरेगांव के बहाने हम अपने देश के इतिहास का पुनरावलोकन कर सकते हैं। क्या कारण रहा कि हम ने अपनी पराजयों के कारणों की खोज में दिलचस्पी नहीं दिखाई। हम तुर्कों, अफगानों, मुगलों, अंग्रेजों और चीनियों से लगातार क्यों हारते रहे। हमने अपनी बहादुरी और मेधा केलिए अपनी पीठ खुद थपथपाई और मग्न रहे। हम ने तो अपने बुद्ध को बाहर कर दिया और वेद सहित समग्र संस्कृत साहित्य को कूड़ेदान में डाल दिया। अश्वघोष को जानने में हमें वक्त लगा। बुद्धचारित, मिलिंद प्रश्न और वज्रसूची को हमने तड़ीपार कर दिया था। हाँ ,मनुस्मृति को नहीं भूले। हमने एडविन अर्नाल्ड द्वारा बुद्ध को जाना; और मैक्समुलर के जरिये वेदों को। लगभग समग्र संस्कृत साहित्य की खोज-ढूँढ यूरोपियनों ने की। हमने तो केवल नफरत करना सीखा और सिखलाया। यही हमारा जातीय संस्कार हो गया। इसे ही आप हिंदुत्व भी कह सकते हैं।

क्या आपको पता है कि भारत में अंग्रेजों की पहली जीत भी दलितों के कारण ही हुई थी? प्लासी युद्ध का हमें झूठा इतिहास पढ़ाया गया। इस युद्ध की व्याख्या करने की कोशिश नहीं की गई। 1757 में सिराजुदौला और क्लाइव के बीच हुए प्लासी युद्ध में कम्पनी की सेना के नेटिव सैनिक ज्यादातर दलित दुसाध जाति के थे। इन दुसाध बहुल नेटिव सैनिकों ने ही बहादुर कहे जाने वाले पठान-मुसलमान सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे। सिराजुदौल्ला की 60 हजार संख्या वाली फ़ौज कम्पनी की केवल तीन हजार संख्या वाली फौज़ से कुछ ही घंटों में हार गई थी। कम्पनी की तीन हजार वाली सेना में अंग्रेज मुश्किल से पांच सौ की संख्या में थे। अय्याशी, अहंकार और लोभ लालच में डूबी हुई तथाकथित हिंदुस्तानी नवाबी सेना को हारना ही था। हम तो इतिहास की व्याख्या के नाम पर केवल मीरजाफरों और जयचंदों की करतूतें तलाशते रहे।

विश्वविद्यालयों में आज भी भारतीय इतिहास को एकांगी नजरिये से पढ़ाया जा रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हमने इस के द्वारा अपनी एक संकीर्ण समझ विकसित की है। कोरेगांव की घटना को हम इसी कारण नहीं समझ पाते। इसी कारण हम फुले, आंबेडकर, पेरियार आदि को नहीं समझ पाते। मेहनतक़श सामाजिक समूहों के महत्व को नहीं समझ पाते। हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए।

 

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