जब रोम जल रहा था…नीरो, ‘विधायक तोड़ने’ में लगा था!

नीतीश कुमार और सुशील मोदी, शोर मचा कर काम नहीं करते…

मोदी जी के नेतृत्व में देश का दुनिया में नाम हुआ है…

कोरोना के समय में, लोगों ने मोदी जी का साथ देकर बताया कि वो उनके साथ हैं…

ये कोई चुनावी रैली नहीं है…

दो तिहाई बहुमत के साथ, नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में एनडीए की सरकार बनेगी…

लेकिन दोस्तों, ये राजनीति करने का समय नहीं है…

7 जून को, जब देश, कोरोना मामलों की संख्या में दुनिया में पांचवें स्थान पर जा पहुंचा था – देश के गृहमंत्री अमित शाह एक अराजनैतिक और ग़ैर चुनावी वर्चुअल रैली में ये कह रहे थे…

बिहार की वर्चु्अल रैली में अमित शाह

6 जून 2020, देश में एक दिन में कोरोना के मामले 10,000 का आंकड़ा पार कर रहे थे, नागरिक ख़ौफ़ के साए में जी रहे हैं कि कब किसको संक्रमण हो जाएगा – अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी नहीं, बल्कि पटरी से ओझल हो गई है। हमारी सरहद पर भी एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है। लेकिन देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा, मिशन राज्य सभा में लगी है। कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह ने भाजपा पर विधायकों की ख़रीद फ़रोख़्त और पैसों से राजनीति करने का आरोप लगाया है। लेकिन बिहार चुनावों के लिए वर्चुअल रैली में व्यस्त ‘चाणक्य नीति’ इन सब आरोपों की परवाह कहां करती है? 

महाराष्ट्र में महा-राजनीति

महाराष्ट्र के गवर्नर से मिलते नारायण राणे

5 जून 2020, बृहन्मुंबई महानगरपालिका में मेयर इक़बाल चहल के दफ़्तर के बाहर भाजपा के सदस्यों ने धरना दिया। उनका कहना था कि, मुंबई के अस्पतालों में वेंटिलेटर और बेड की कमी है। 22 मई से लगातार महाराष्ट्र सरकार और प्रशासन के ख़िलाफ़, भाजपा धरना प्रदर्शन कर रही है । 25 मई, 2020 को भाजपा से राज्य सभा के सदस्य नारायण राणे, महाराष्ट्र के राज्यपाल बी.एस कोशियारी से मिलें। इस मुलाक़ात के दौरान उन्होंने महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टियाँ, महामारी के दौरान वहाँ की प्रशासनिक स्थिति सम्भालने में नाकाम रही हैं। राणे के अलावा भी इससे पहले, कई और भाजपा नेता राज्यपाल से मिल चुके हैं ऐसी ही कुछ माँगों के साथ। इन सबके तुरंत बाद, महाविकास अघाडी खेमे में थोड़ा हड़बड़ी का माहौल बन गया। शिव सेना-NCP-कांग्रेस गठबंधन के कई प्रमुख नेता जैसे शरद पवार और संजय राउत भी आनन-पानन में राज्यपाल से मिल आए। भाजपा के तमाम नेता मांग करते रहे कि महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए। कोई भी साधारण समझ रखने वाला ये समझता होगा कि राष्ट्रपति शासन में किसका शासन होगा। 

एक बच्चा, जिसे परिवार की भुखमरी से अधिक खेल की चिंता है!

ऐसे महामारी के माहौल में जब देश में 20 मई से लगातार हर दिन, कोरोना के 5000 से अधिक नए मामले सामने आ रहे हैं- क्या भाजपा को इस तरह से सत्ता के जोड़ तोड़ की निरंतर कोशिश करनी चाहिए? क्या केंद्र की सबसे पार्टी को इस तरह चुनावों के परिणामों और जुगाड़ में समय बिता देना चाहिए? कोरोना संक्रमण के सबसे भयावह हालात वाले राज्यों में एक गुजरात भी है। लेकिन गुजरात में सत्ताधारी पार्टी का सारा फोकस, राज्यसभा चुनावों पर है। गुजरात में कांग्रेस के 8 विधायक, पार्टी छोड़ कर – भाजपा के पाले में जा चुके हैं। अपने विधायकों को कांग्रेस ने राजस्थान भेज दिया है कि उनको भाजपा न तोड़ ले। लेकिन सवाल ये है कि गुजरात में कोरोना के जो हाल हैं, उसमें सत्ताधारी पार्टी आखिर इस खेल में शामिल कैसे हो सकती है? वो भी तब, गुजरात की कोरोना मृत्यु दर बाकी देश से अधिक है। 

गुजरात कांग्रेस के विधायक, राजस्थान भेजे गए

भाजपा नेताओं का कहना था कि  क्योंकि महाराष्ट्र सरकार महामारी संभालने में विफल हो रही है, इसलिए ये आवश्यक है। वैसे भाजपा शासित राज्य गुजरात में मृत्यु दर ना केवल महाराष्ट्र की दुगुनी है वहाँ महाराष्ट्र की तुलना में सिर्फ़ आधे टेस्ट्स हो रहे हैं। गुजरात उच्च न्यायलय ने क़रीब 11 ऐसे फ़ैसले सुनाए हैं, जहाँ अस्पताल सुविधाओं से लेकर कोरोना के इलाज की महँगी फ़ीस की मुश्किलों पर सरकार को सख़्त निर्देश दिए गए हैं। तो उस हिसाब से गुजरात में भी भाजपा को राष्ट्रपति शासन के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देना चाहिए। हालांकि सच ये है कि गुजरात में राष्ट्रपति शासन लग भी गया तो…

“देश रहे बदहाल, सत्ता चाहिए हर हाल”

भाजपा ने वैसे पिछले 6 सालों में सरकार चलाने से ज़्यादा सरकार बनाने में महारथ हासिल की है। हाल ही की बात ले लेते हैं, 11 मार्च को WHO ने कोरोना को एक महामारी घोषित कर दिया था। लेकिन 12 मार्च से लेकर 20 मार्च तक मध्य प्रदेश में सत्ता के गलियारों में अलग ही परिस्थितियाँ देखने को मिल रही थी। स्वास्थ्य विभाग के एक उच्च अफ़सर ने कहा था, “केंद्र लगातार सरकार पर कोरोना से जूझने का दबाव बना रही थी, लेकिन पूर्व मुख्य मंत्री कमलनाथ का सारा ध्यान सरकार बचाने की कोशिशों में लगा था।” अब केंद्र में जो भाजपा सरकार है क्या वो उस भाजपा से अलग है जो लगतार मध्य प्रदेश की सरकार गिराने की पुरज़ोर कोशिश कर रही थी? दूसरी बात, जब कांग्रेस से सिंधिया ने इस्तीफ़ा देकर भाजपा से जुड़ने का निर्णय लिया तब राज्य के स्वास्थ्य मंत्री भी उन 22 विधायकों में से थे जो कांग्रेस से अलग हुए। इसलिए ना केवल 2-23 मार्च की राजनैतिक अनिश्चितता के दौरान राज्य में स्वास्थ्य मंत्री नहीं थे, बल्कि शिवराज सिंह के शपथ लेने के बाद भी 22 अप्रैल तक राज्य में स्वास्थ्य मंत्री की नियुक्ति नहीं हुई थी। कोरोना की महामारी से जूझने के लिए जब लॉक्डाउन और कर्फ़्यू जैसे कड़े क़दम उठाए जा रहे थे, तब मध्यप्रदेश के पास अपना स्वास्थ्य मंत्री भी नहीं था।ये बात भूलनी बहुत मुश्किल होगी और होनी भी चाहिए, कि जब देश एक ख़तरनाक महामारी से जूझ रहा था तब देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी सरकार गिराने की कोशिशों में मशगूल थी। सिर्फ इतना ही नहीं, तमाम दिशानिर्देशों के बावजूद न केवल विधानसभा का सत्र हुआ, क्योंकि सरकार गिराई जानी थी। बल्कि सत्ता परिवर्तन के बाद, बिना किसी सोशल या फिज़िकल डिस्टेंसिंग के सरकार बनने का जश्न भी दिखाई दिया। शायद जनता से नोटबंदी की तरह देश के लिए बलिदान माँगने का सिलसिला जारी है। वैसे देश और सरकार पर्यायवाची हैं, ये हमें साल 2014 के बाद ही पता चला है।

मध्य प्रदेश में फ्लोर टेस्ट जीतने के बाद भाजपा विधायक

“काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत, इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में”

अदम गोंडवी की उपरोक्त पंक्तियाँ देश के नेताओं पर सटीक बैठती हैं। चाहे विधायकों की ख़रीदफ़रोख़्त हो या राष्ट्रपति शासन से, चाहें महीनों तक विधायक, अपने काम की जगह किसी रिसॉर्ट में आराम करते रहें। देशभक्त पार्टी पर सवाल उठाने पर, उलटा आपको ही चोर बोल दिया जाएगा।

शौक़ बड़ी चीज़ है..

अब अगर नोटबंदी का ज़िक्र हो ही चुका है तो उस दौर की भी थोड़ी बात कर लेते हैं। साल 2016 नवंबर में सरकार ने 500 और 1000 के नोटों पर पाबंदी लगायी थी ये कहते हुए कि ये काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक है, इससे ग़ैर क़ानूनी ताक़तों की फ़ंडिंग बंद हो जाएगी और कश्मीर में आतंकवाद कम हो जाएगा। परंतु जहाँ 99% पैसा वापिस RBI तक पहुँच गया वहीं 100 से ज़्यादा लोग नोटबंदी और उसके प्रभाव के कारण ज़िंदगी गंवा बैठे। लेकिन एक और ग़ौर करने की बात है कि  जब देश में आम आदमी नोटबंदी से जूझ रहा था, ATM की क़तारों में लगा हुआ था, बेरोज़गारी की मार झेल रहा था तब भाजपा अरुणाचल प्रदेश में सरकार बनाने के कर्मठ प्रयास कर रही थी।

अरुणाचल प्रदेश में जब पीपीए के विधायक भाजपा में शामिल हो गए

दिसम्बर 2016, नोटबंदी के एक महीने बाद ही PPA के 33 विधायकों ने भाजपा से जुड़ने का निर्णय लिया। और तब प्रदेश में मुख्य मंत्री पेमा खांडू के नेतृत्व में PPA की सरकार थी। पेमा खांडु और उनके डेप्युटी चोवना मेन को पार्टी विरूद्ध गतिविधियों के लिए बर्खास्त किया गया था, और इसी के बाद पेमा खांडु, 33 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए। पर दिसंबर 2015 से ही अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था। जनवरी 2015 में, कांग्रेस के बाग़ी नेता कलिखो पुल ने भाजपा के विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनायी थी, जिसके ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में मुक़द्दमा भी हुआ था और उस सरकार की वैधता को रद्द कर दिया गया था। उसी साल अरुणाचल के अलावा उत्तराखंड में भी भाजपा के राष्ट्रपति शासन के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय लिया गया था।

अरुणाचल के इस राजनीतिक समन्वय और जोड़ तोड़ को नोटबंदी की वजह से जो विकट आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ देश भर में व्यापी थी उसके परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। देश में कैसे भी हालात हो, भारतीय जनता पार्टी को हमने पिछले कुछ सालों में, सत्ता के जोड़तोड़ में ही लगे देखा है। हाँ, दूसरी पार्टियों की विफलताएँ भी इसमें शामिल हैं किंतु नोटबंदी से उपजे हालात में भी केंद्र की सबसे बड़ी पार्टी का सारा ध्यान सरकार गिराने और बनाने में लगा हुआ था। तो फिर क्या भाजपा से देश सम्भालने की अपेक्षा करना उचित होगा? क्योंकि नोटबंदी और कोरोना का दौर उनकी बाक़ी शासन कुशलताओं पर तो बड़े सवाल तो उठाता ही है। 

देश की अखंडता में, जनता शामिल नहीं?

साल 2019 अगस्त की शुरुआत में कश्मीर में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया था और इसी के तुरंत बाद राज्य में इंटेरेंट की सुविधाओं पर रोक लगा दी थी और घाटी में जगह जगह कर्फ़्यू जारी किया गया था। इसी दौरान केंद्र की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा देश के सबसे पूर्वी इलाक़े में विधायकों की अदला बदली में लगी हुई थी। इस दौरान SDF के 10 विधायक भाजपा में शामिल हुए।

भाजपा में शामिल होते, SDF के विधायक

एक बात ध्यान देनी होगी की देश के पूर्वी राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का बोल बाला रहा है। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों के विधायकों को तोड़कर केंद्र की बड़ी पार्टी में शामिल करना क्या जनता के मत के ख़िलाफ़ नहीं है? पहले कश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया फिर इस तरह क्षेत्रीय विधायकों को अपने में शामिल करने के प्रयास करना- कहीं ना कहीं देश को केंद्रीकरण या सिंगल पार्टी रूल की तरफ़ ले जाने के प्रयास लगते हैं। इन सारे मामलों में एक और बात पर ध्यान दीजिए – ना ही केवल भाजपा का सारा ध्यान सरकार बनाने के गणित पर होता है, चाहे देश में कोई भी और मुसीबत आए – पर इन सब से ये भी समझ में आता है कि  कैसे बड़ी ख़बरों की आड़ में भाजपा शायद अपने इस तरह के जोड़ तोड़ के खेल को  छुपा लेती है। मेन्स्ट्रीम मीडिया इन ख़बरों का उतना प्रसारण नहीं करता जितना करना चाहिए।क्या अरुणाचल की ख़बर पर उतना ध्यान दिया गया जितना देना चाहिए था?

ना केवल अरुणाचल की ख़बर पर उतना ध्यान दिया गया, पर कश्मीर के निर्णय से तुरंत पहले कर्नाटक में भी भाजपा ने कांग्रेस-जनता दल(सेक्युलर) की सरकार को गिराया था। 

14 महीने में 7 बार सरकार गिराने के प्रयास के बाद भाजपा अंततः 23 जुलाई 2019, को अपने सरकार गिराने के प्रयास में सफल रही। गठबंधन के 15 सासदों को मुंबई के एक होटल में रुकाया गया था। उस राजनीतिक धारावाहिक को तो शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने नहीं देखा होगा। उन दिनो कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनकर लगतार हमें परोसा गया था। क्या कर्नाटक में जो हुआ उसके लिए किसी ने भाजपा से जवाबदेही माँगी?

कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार पलटने में लगे येदियुरप्पा (2019)

जो पार्टी केंद्र में राष्ट्रवाद पर अपना मालिकाना हक़ समझकर हर मुद्दे पर देशभक्ति की बात लाती है, क्या ऐसे देश की जनता की चुनी हुई सरकारों को गिरना भी देशभक्ति है? या उन राज्यों के मतदातों के मौलिक अधिकार के साथ देशद्रोह?

कांग्रेस के दौर में भी बहुत बार सरकारें गिरायी गयी थी, पर फिर एक ऐसी पार्टी जो कांग्रेस मुक्त भारत का दावा देकर सरकार में आयी थी-क्या इस तरह कांग्रेस की ही नीतियों को अपना कर भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत बना रही है? महामारी, नोटबंदी, सरहद पर तनाव कैसा भी माहौल हो भाजपा सरकार बनाने-बिगाड़ने के प्रयासों में तत्पर है। और ऐसी कैसी आत्मनिर्भरता है ये कि पैसे, जुगाड़, राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल कर सरकार बनानी पड़े।

कोरोना काल भी भाजपा के राजनैतिक संकल्प को तोड़ नहीं सका

पहले डोनाल्ड ट्रंप की दिल्ली में जारी दंगों और कोरोना के ख़तरे के बीच भव्य स्वागत और रैली। उसके बाद कोरोना संकट के दौरान ही मध्य प्रदेश में सत्ता के जोड़तोड़ का पूरा खेल, फिर महाराष्ट्र में भारी संकट के बीच सरकार गिराने की कोशिश और अब बिहार के अराजनैतिक चुनावों में, बिना राजनीति किए, एक ग़ैर चुनावी रैली कर के – ये बताना कि एनडीए दो-तिहाई बहुमत से सरकार बनाएगा और इसके साथ-साथ गुजरात में राज्यसभा सीटों पर क़ब्ज़ा करने के लिए दूसरी पार्टी के विधायकों को तोड़ना। इन सब में अगर पीछे के 5 सालों के सत्ता के हर सट्टे को जोड़ दें – तो एक बात तय है कि भाजपा के तमाम नेताओं की एक बात सच है कि भारतीय जनता पार्टी का संकल्प अटूट है। बस ये संकल्प, किसी भी हाल-किसी भी मौके में सत्ता हासिल करने का है – वो भी साम-दाम-दंड-भेद और जनता किस हाल में है, इसकी परवाह किए बिना।

जनता का क्या?

कोरोना काल के दौरान, हमने भूख से मरते लोग देखे, हमने देखा कि कैसे लाखों गरीब श्रमिक – हज़ारों किलोमीटर अपने घर जाने के लिए पैदल निकल पड़े, लेकिन 1 महीने तक सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया। हमने देखा कि कैसे बेरोज़गारी और गरीबी के साथ, लॉकडाउन के बाद लोग आत्महत्या तक करने लगे, लेकिन सरकार…??? श्रमिकों के लिए रेल चली, तो उनको 30-40 घंटे खाना नहीं मिला…उनसे किराया वसूला गया..वे लापरवाही से मारे गए और तो और रेलें, गोरखपुर की जगह राउरकेला पहुंचा दी गई। अब अस्पतालों की कहानी हमारे सामने है..नकली वेंटिलेटर से, टेस्टिंग न होने और अस्पताल में मरीज़ भर्ती न करने तक, क्या है जो हमने नहीं देखा। आर्थिक संकट की दुहाई दी जा रही है…लेकिन सत्ता के जोड़-तोड़ में न तो कमी है और न ही किसी वर्चुअल रैली में लोगों को शहर-शहर में स्क्रीन लगाकर बिठाने के लिए किसी फंड की कमी पड़ती है। जनता का क्या?…उससे कहा जाएगा कि उसे संकट में देश और सरकार का साथ देना है…कैसा साथ? और जनता का साथ कौन देगा??

संसदीय लोकतंत्र में भी नीरो वही कर रहे हैं…

देश के गृहमंत्री, कोरोना के शुरुआती दौर में ही जिस तरह सार्वजनिक नज़र से अचानक से ओझल हो गए – उसने कई सारे सवाल खड़े कर दिए। सवाल, धीरे-धीरे अफ़वाहों में बदलने लगे, क्योंकि लगातार सक्रिय गृहमंत्री लोगों को नज़र नहीं आ रहे थे। उनका ट्विटर अकाउंट भी पहले की तरह सक्रिय नहीं था। अंततः गृह मंत्री अमित शाह को ट्वीट कर के, बताना पड़ा कि वे स्वस्थ हैं और सक्रिय हैं। लेकिन तीन महीने के लगभग – बेहद कम नज़र आने वाले गृहमंत्री, बिहार के लिए अपनी तथाकथित ग़ैर राजनैतिक और ग़ैर चुनावी रैली करने के लिए दिखाई देते हैं। इसको क्या कहा जाना है, ये हम नहीं बताने वाले – लेकिन एक ही सांस में बिहार में दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाने का दावा करते हुए, दूसरी सांस में राजनीति न करने के समय में चुनावी अभियान को खारिज करते हुए – गुजरात में कोरोना के भयावह हालात में, कांग्रेस के विधायक तोड़ते समय…गृह मंत्री हमको ये बताते हैं कि उनके लिए और उनकी पार्टी के लिए क्या ज़रूरी है। हिंदी कवि गोरख पांडे की कविता, कुर्सीनामा में कुछ पंक्तियां हैं – वो कह रही हैं, जो हम और गृहमंत्री, दोनों ही नहीं कहना चाहते शायद…

फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है

कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया

 

लेखिका सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।

 


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