पहला पन्ना: ट्वीटर के बाद अब फेसबुक भी पहले पन्ने पर, मुद्दे सिरे से ग़ायब!

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अखबारों ने ट्वीटर के मामले को जरूरत से ज्यादा तूल दे रखा है। भीमा कोरेगांव मामले में मालवेयर के जरिए सबूत प्लांट कर गिरफ्तार करने जैसी कार्रवाई और योजना की ख़बर ग़ायब है। मीडिया विजिल पर कल इस विषय में चर्चा हुई। यह विषय मीडिया से लगभग गायब है जबकि यह सरकारी (या नौकरशाही) की मनमानी और अपराध का बड़ा व गंभीर मामला हो सकता है।

आज के अखबारों में ट्वीटर के साथ अब फेसबुक भी छाया हुआ है। आज द टेलीग्राफ को छोड़कर बाकी चारो अखबारों में ट्वीटर और फेसबुक की खबरें पहले पन्ने पर ऐसे हैं जैसे क्रिकेट मैच की तरह रोज का आंखों देखा हाल सुनाया जा रहा हो। यह दिलचस्प है कि अखबारों का हाल तो फेसबुक ट्वीटर पर मिल जाता है लेकिन वो अपना हाल खुद नहीं बताते जबकि अखबार उन्हें पहले पन्ने पर ही रखते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अखबारों ने ट्वीटर के मामले को जरूरत से ज्यादा तूल दे रखा है। यह ट्वीटर (या सोशल मीडिया) के खिलाफ हो सकने वाली भारत सरकार की कार्रवाई को उचित या मजबूरी साबित करने के लिए किया जा रहा लगता है। निजी तौर पर मेरा मानना है कि जो कानून बनाए गए हैं वो ठीक नहीं हैं, सरकार रद्द किए जा चुके पुराने कानून के तहत कार्रवाई कर रही है। ऐसे में भीमा कोरेगांव मामले में मालवेयर के जरिए सबूत प्लांट कर गिरफ्तार करने जैसी कार्रवाई और योजना की जब तक ठीक से जांच नहीं हो और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो जाए तब तक यह मानने का कोई आधार नहीं है कि नए कानून जनहित में हैं। या यह सरकार पुरानी सरकारों से  अलग है। 

मीडिया विजिल पर कल इस विषय में चर्चा हुई। यह विषय मीडिया से लगभग गायब है जबकि यह सरकारी (या नौकरशाही) की मनमानी और अपराध का बड़ा व गंभीर मामला हो सकता है। इस मामले की जांच होगी तो पता चलेगा कि आरोप सही हैं या नहीं और फिर सबूत प्लांट करने वाले सही व्यक्ति को पकड़ लिया गया तो उससे यह पता चलने से पहले कि यह सब कौन करवा रहा था उसकी मौत हो जाएगी। (यह कई मामलों में होता रहा है) इसलिए जांच की मांग करने का मतलब दो चार मौतें ही हैं, फिर भी मांग नहीं हो रही है और इसीलिए सरकार इसकी जांच करवाने की जरूरत नहीं समझ रही है। इस संबंध में मीडिया विजिल की कल की चर्चा देखने लायक है। (लिंक सबसे नीचे है, चर्चा देख सकते हैं) ठीक है कि फेसबुक के मामले में फैसला सुप्रीम कोर्ट का है लेकिन वह पूरे विस्तार से पहले पन्ने पर ही हो यह क्यों जरूरी है?  

सीएए का विरोध हो या दिल्ली दंगे का, कानून या बहुमत के दुरुपयोग से सरकार विरोधियों को कुचलने, परेशान करने के ढेरों मामले हैं। अगर यह मीडिया में नहीं आएगा तो लोगों को पता कैसे चलेगा? क्या आप जानते हैं कि, ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड के निजीकरण के खिलाफ करीब 80,000 कर्मचारियों को हड़ताल पर जाने से रोकने के लिए मोदी सरकार में एक नया क्रूर और दमनकारी कानून रातों-रात लागू कर दिया है? इसका नाम है “आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश 2021” मेहनतकश डॉट इन की एक खबर के अनुसार, दरअसल 23 जून को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को लिखे एक पत्र में ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड के अंतर्गत आने वाली 41 फैक्ट्रियों से सम्बंधित ट्रेड यूनियन फेडरेशन ने यह चेतावनी दी थी कि वे ओएफबी को भंग करने के सरकार के फैसले के विरोध में 26 जुलाई से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाएंगे। 8 जुलाई को हड़ताल का नोटिस भी दिया जाने वाला था। इसलिए आनन-फानन में आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश 2021 पारित किया गया। इसमें कानून के प्रावधान औपनिवेशिक कानूनों की तरह है जो गुलामी की नियम शर्तें निर्धारित करते हैं। यह दमनकारी कानून एस्मा 1968 के तर्ज़ पर लाया गया है। ऐसे में आज द हिन्दू में एक खबर छपी है, नियमों के खिलाफ यूपी जेल में बंद 13 लोगों को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी। यह खबर किसी और अखबार में दिखी? वैसे भी, जमानत मिलने के बाद खबर का महत्व नहीं है, खबर छपने से जमानत मिली होती तो बड़ी बात होती।   

मध्य प्रदेश में सरकार गिराने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्र में मंत्री पद दिया गया और राजस्थान में सरकार गिराने की कोशिश करने वाले के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। विधायक खरीद कर या लालच देकर दलबदल है तो भ्रष्टाचार ही। मध्य प्रदेश में कोशिश सफल रही पर राजस्थान में नहीं हुई। आपको याद होगा राजस्थान में शुरुआत  भ्रष्टाचार के मामले की एफआईआर से हुई थी। आगे क्या हुआ? ट्वीटर को तो कानून मानना होगा पर बाकी मामलों की चिन्ता कौन करेगा। आज द हिन्दू में प्रकाशित जयपुर की एक खबर के अनुसार मजिस्ट्रेट की अदालत ने निर्देश दिए हैं कि केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत और कथित दलाल संजय जैन की आवाज के नमूने लिए जाएं। यह गए साल लीक हुए ऑडियो टेप की जांच के सिलसिले में है जिसमें विधायकों की खरीद के जरिए राजस्थान सरकार गिराने की बातचीत थी। यह मामला भाजपा के खिलाफ है। तो लटका हुआ है दूसरे और खासकर ट्वीटर के मामले में जल्दबाजी देखिए। या सरकारी कार्रवाई के मामले में रफ्तार देखिए। मेरा मानना है कि सरकार के खिलाफ शिकायतें अदालत में ही सुनी जा सकती है पर अदालतों का रवैया वैसा नहीं है जैसा इस सरकार के लिहाज से होना चाहिए।

 

केंद्रीय मंत्रिमंडल में बदलाव के बाद कल जब सभी अखबारों में लीड एक ही थी और दिलीप कुमार के निधन की खबर पहले पन्ने पर थी ही तो मुझे लगा कि हेडलाइन मैनेजमेंट की एक कोशिश, दिलीप कुमार और उनके प्रशंसकों का नुकसान कर गई। और कल लिखने लायक कुछ नहीं है। पर पांच में से चार अखबारों का शीर्षक प्रचारात्मक ही है। यह विस्तार या परिवर्तन बूस्टर शॉट तो बिल्कुल नहीं है। क्योंकि यह प्रतिभाओं की दूसरी खेप है। निश्चित रूप से पहले खेप की प्रतिभाएं बेहतर होती हैं, रही होंगी या लग भी रहा है।  

 

1.टाइम्स ऑफ इंडिया 

प्रधानमंत्री ने कैबिनेट में बड़ा बदलाव कर नई शुरुआत की 

2.हिन्दुस्तान टाइम्स 

मोदी 2.0 के लिए बूस्टर शॉट 

3.इंडियन एक्सप्रेस

प्रधानमंत्री ने डिलीट और फिर रीसेट दबाया 

4.द हिन्दू 

मंत्रिमंडल सुधार के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कई बड़ों को दरवाजा दिखाया  

5.द टेलीग्राफ 

स्नोव्हाइट एंड 12 ड्वार्फ्स 

 

शुरू में मुझे लगा कि यह बर्फ सी सफेद दाढ़ी में तिनके जैसा कुछ मामला है। और यह दाढ़ी की फोटो से हुआ। बाद में पता चला कि यह शीर्षक, स्नोव्हाइट एंड सेवन ड्वार्फ (1937) की फिल्म पर आधारित है। यह एक अमेरिकी एनिमेटेड, संगीतमय फंतासी फिल्म थी जो इसी नाम की कहानी पर है। इसमें स्नोव्हाइटएक राजकुमारी होती है जिसे उसकी सौतेली मां मार देना चाहती है और निकाल बाहर करती है। वह जंगल पहुंच जाती है जहां सात बौने उससे दोस्ती करते हैं और उसे बचा लेते हैं। शीर्षक में सात की जगह 12 बौनों को इस भूमिका में भी देखिए तो टिप्पणी या कटाक्ष बहुत गंभीर है जो किसी और शीर्षक में नहीं है। 

कहने की जरूरत नहीं है कि मंत्रिमंडल विस्तार बहुतों को समझ में नहीं आया है। कुछ लोग इसे असफलता सुधारने की कोशिश में असफलता स्वीकारना भी मान रहे हैं पर जिन लोगों को तरक्की दी गई है उससे लगता है कि जिन्हें हटाया गया (और राज्यपाल बनाने जैसा इनाम नहीं मिला) उसका कारण यह भी हो सकता है कि वे इन तीन नए तरक्की पाए लोगों से कमजोर हैं। तरक्की पाने वाले तीन लोगों को देखिए तो समझ में आता है कि आदर्शों की बात करना अलग है असल में आप वही करते हैं जो पसंद करते हैं। एक भाई साब ने पूर्व नौकरशाहों को पढ़े लिखे मूर्ख कहा था। एक भाई साब गोली मारों सालों को – कहने के लिए मशहूर हैं। और तीसरे, बंगाल में केंद्र शासित प्रदेश बनवाने का आईडिया दे चुके हैं। मुझे लगता है कि विस्तार को आप जिस नजरिए से देखिए मूल लक्ष्य (या रणनीति) वही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

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