कभी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की वीआइपी सीट रहे लखनऊ में कल मतदान है। तितरफा मुकाबला निवर्तमान सांसद राजनाथ सिंह, पूनम सिन्हा और प्रमोद कृष्णम् के बीच है। पिछले आम चुनाव में यहां की आबादी करीब 25 लाख थी जिसमें कुल साढ़े दस लाख के आसपास वोट पड़े थे। पिछली जनगणना के बाद से बीते आठ साल में यहां की आबादी 10 लाख बढ़ चुकी है और वोटरों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। इसके बावजूद फरवरी में जारी वोटर लिस्ट पर नजर दौड़ाएं तो पता लगता है कि कल होने वाले मतदान में करीब दस लाख लोग हिस्सा नहीं ले पाएंगे। मतदाता सूची में नाम डलवाने के लिए सवा लाख लोगों ने आवेदन किया था, लेकिन इनमें करीब 45000 के आवेदन खारिज कर दिए गए।
आबादी का बढ़ना एक सामान्य स्थिति हो सकती है लेकिन लगातार बढ़ती चौहद्दी वाले लखनऊ के लिए यह एक विशिष्ट स्थिति है क्योंकि इस शहर की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 2.53 फीसदी है जो उत्तर प्रदेश की 1.84 फीसदी दर से काफी ज्यादा है। भौगोलिक रूप से राज्य के केंद्र में होने के चलते लखनऊ की स्थिति विशिष्ट हो जाती है क्योंकि इसकी तीन दिशाओं में विपन्नता और कुदरती संकटों के ऐसे टापू हैं जो लगातार खाली हो रहे हैं। एक तरफ हमेशा से पिछड़ा रहा पूर्वांचल है जिसने दिल्ली की सियासत को हमेशा संचालित किया लेकिन दो-तीन बड़े शहरों को छोड़ कर विकास के मामले में फिसड्डी रहा। दूसरी तरफ तराई का क्षेत्र है जो अकसर बाढ़ के संकट से जूझता रहता है। तीसरी ओर बुंदेलखंड है जहां सूखा और गरीबी ने सबसे बड़ी मात्रा में पलायन को पैदा किया है।
रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से होने वाले पलायन ने शहर की फिज़ा को काफी बदल दिया है। लखनऊ की शहरी आबादी उत्तर प्रदेश की औसत शहरी आबादी के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश की शहरी आबादी सिर्फ 22.3% है जबकि लखनऊ की शहरी आबादी 66.2% है। इसी प्रकार यूपी की शहरी आबादी के घनत्व के मुकाबले लखनऊ की आबादी का घनत्व दोगुने से ज्यादा है। यूपी की शहरी आबादी का औसत घनत्व जहां 829 वर्ग किमी है वहीं लखनऊ शहर में एक किलोमीटर के दायरे में 1816 लोग रहते हैं।
तीन तरफ से लखनऊ में रोजगार और स्थायित्व खोजने आ रहे लोगों के चलते जनसंख्या वृद्धि से शहर के सीमित संसाधनों पर लगातार भार बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया अस्सी के दशक के अंत में सरकारी बाबुओं से शुरू हुई जो आज सामान्य है। अर्बन इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक रोज़ाना औसतन 25-30 व्यक्ति आंतरिक पलायन कर रहे हैं। इसके चलते ट्रैफिक जाम, पेयजल एवं सफाई जैसे मुद्दे शहर की बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। दिक्कत यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से लखनऊ को भी वही रोग लग गया है जो समूचे उत्तर प्रदेश को बरसों से है- गर्व की बीमारी। चूंकि यह राज्य प्रधानमंत्री पैदा करता है और देश की सियासत को चलाता है, तो यह गौरव ही बाकी अन्य जरूरतों पर भारी पड़ जाता है।
तितरफा पलायन
लखनऊ शहर में परिवार नियोजन के सफल कार्यक्रमों के चलते प्रजनन दर में काफी हद तक कमी आई है, इसके बावजूद सवा लाख की सालाना दर से आबादी बढ़ रही है जिसका सीधा कारण पलायन है। यहां यूपीएससी की तैयारी कर रहे छात्र दिलीप वर्मा बताते हैं कि पांच साल से वे इस शहर में हैं। इस दौरान उनके कई साथी निजी नौकरी करके यहां के स्थायी बाशिंदे बन गए हैं। इसी प्रकार से तमाम छात्र अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए यहां छोटी-मोटी नौकरी करके जिंदगी गुजारने लगे हैं। इनमें से अधिकतर लोग शुरू में किराये पर कमरा लेकर रहते हैं, लेकिन जैसे ही कुछ पूंजी बना पाते हैं तो तुरन्त जमीन लेकर यहीं बस जाते हैं। अधिकतर लोगों को इन शहरों की चकाचौंध भा भाती है। उनके लिए अपने गांव वापस लौट पाना मुश्किल हो जाता है।
लखनऊ की एक और खासियत है जिसके चलते लोग यहां आकर यहीं के होकर रह जाते हैं। दिल्ली से सटे नोएडा और गाजियाबाद की तरह मुकाबले लखनऊ में अब भी शुष्क महानगरीय संस्कृति प्रवेश नहीं कर पायी है, लेकिन बाज़ार के मामले में वह इनके मुकाबिल है। इसलिए यहां आने वाले लोगों का अपने छोटे शहरों-कस्बों से जुड़ाव भी बचा रहता है और दिल्ली जैसे महानगरों का भौतिक सुख भी मिलता है। दिल्ली से लेकर पूर्वांचल, बुंदेलखंड और तराई तक सबकी दूरी यहां से न्यूनतम चार से अधिकतम छह घंटे की है। सत्ता और प्रशासनिक कार्यालयों का केंद्र होने के नाते लखनऊ में रहना कई मामलों में सहूलियत का बायस भी है।
जो नई आबादी बीते दिनों में लखनऊ आकर टिकी है उनमें ज्यादातर कृषि संकट से हलकान किसान हैं जो निरंतर फैलते हुए इस शहर में मजदूरी कर के जीवनयापन कर रहे हैं। यहां पत्रकारपुरम गोमतीनगर, आलमबाग नहरिया और इंजीनियरिंग कॉलेज के लेबर अड्डे सबसे बड़े माने जाते हैं। यहां पर आसपास के ग्रामीण इलाकों के साथ ही पड़ोसी जिलों के मजदूर भी काम की तलाश में आते हैं। लखनऊ के करीबी जिलों से सुबह के समय आने वाली अधिकतर ट्रेनों में यही मजदूर पाए जाते हैं। इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहे पर लगने वाले लेबर अड्डे पर काम की तलाश में खड़े सोहन ने बताया कि वे हर रोज सुबह मजदूरी करने लखनऊ आते हैं। ट्रेन का सफर सस्ता होता है इसीलिए उन्होंने एमएसटी (मासिक यात्रा पास) बनवा रखा है। वे कहते हैं कि कभी-कभी काम न मिलने पर उनको खाली हाथ भी घर लौटना पड़ता है।
पैर में हवाई चप्पल और फटी शर्ट पहने दुबली-पतली काया वाले नेकराम सीतापुर-बहराइच सीमा पर बसे एक गांव में रहते हैं। नेकराम बताते हैं कि उनके इलाके में बाढ़ एक बड़ी समस्या है। बरसात का मौसम शुरू होते ही हर साल बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ता है। हर बार क्षेत्रीय सांसद-विधायक चुनाव के समय वोट मांगते वक्त बाढ़ से निजात दिलाने का वादा करते हैं। चुनाव बीत जाने पर इलाके के लोग पांच साल बाद ही उनका चेहरा देख पाते हैं।
छत्तीसगढ़ के मजदूरों की भारी मांग क्यों?
लखनऊ से करीब 700 किलोमीटर दूर स्थित छत्तीसगढ़ से आए मजदूरों की मांग यहां सबसे ज्यादा है। बताते हैं कि इसकी वजह इन मजदूरों का लगातार काम करने के लिए उपलब्ध रहना है। अपने परिवार सहित मजदूरी करने आए ये लोग अपने गांव का हाल बताते हुए काफी दुखी दिखते हैं। छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार के किरवई गांव से आए रोहित साहू से जब पूंछा कि इतनी दूर काम करने क्यों आना पड़ा, तो उन्होंने बताया कि उनके यहां मजदूरी सिर्फ 200 रुपये मिलती है। ऐसे में उस पैसे से परिवार का खर्च चला पाना मुश्किल है। लखनऊ में उनको करीब 700 रुपये दैनिक मजदूरी मिल जाती है। झुग्गी-झोपड़ी डालकर जिंदगी गुजारने वाले इन मजदूरों का कोई एक ठिकाना नहीं होता। रोहित को इस शहर में मजदूरी करते 25 बरस हो रहा है और उन्होंने न जाने कितनों के आशियाने बनाए, लेकिन आज भी आम तौर से निर्माण की साइट पर ही सो जाते हैं तो कभी खाली पड़े प्लॉट या फुटपाथ पर रात गुजारते हैं। जाड़ा हो, गर्मी हो या बरसात, हर मौसम में इसी तरह जीना इन लोगों ने सीख लिया है और लखनऊ ने भी इनको बिना कुछ पूछे अपना लिया है।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के बाबा भटोली गांव के रहने वाले कोमल साहू बताते हैं कि लखनऊ अच्छा शहर है पर कभी-कभार उनकी मजदूरी को रोक लिया जाता है। वे जोर देकर कहते हैं कि ऐसा करने वाले अधिकतर अधिकारी व पुलिस के लोग होते हैं। इस लोकसभा चुनाव में वोट देने के सवाल पर कोमल कहते हैं कि अगर वे वोट देने अपने गांव जाएं तो उससे उनका ही नुकसान होगा। ‘’मजदूरी का नुकसान तो होगा ही, साथ ही आने-जाने का खर्च अलग से, और फिर हमें सरकार देती भी क्या है”? उनका मानना है कि सरकार किसी की भी बने, उनकी हालत बदलने वाली नहीं है।
संसाधनों पर दबाव
आबादी बढ़ने के बाद यहां वाहनों की संख्या भी बढ़ी है। इन्हीं बेशुमार वाहनों ने इस शहर को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाई है। शहर में आने वाले को चारबाग से हजरतगंज जाने में ही ट्रैफिक का हाल समझ में आ जाता है। यहां स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल भी बहुत खराब है। किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज, बलरामपुर हॉस्पिटल, लोहिया हॉस्पिटल जैसे सरकारी अस्पतालों में एक डॉक्टर के जिम्मे हजारों मरीज रहते हैं। इन पर आसपास के जिलों के मरीजों का भी बोझ रहता है। हर रोज मेडिकल कॉलेज के ट्रॉमा सेंटर के बाहर गम्भीर मरीज भी जमीन पर लेटे दिखाई देते हैं।
जहां तक बात शिक्षा की है तो यहां पर अमीर और गरीब के बीच की खाईं साफ दिखाई देती है। अमीर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की महंगी फीस के बावजूद पढा रहे हैं लेकिन मजदूरी करने वाले गरीबों के नौनिहालों का भविष्य अंधकारमय है। इनके अलावा आवास, पेयजल, स्वच्छता, खाद्य सामग्री आदि समस्याएं प्रमुख हैं जिन पर बढ़ती आबादी का बोझ पड़ा है।
वीरान होते गांव
लखनऊ से अगर हम उन गांवों की ओर चलें जहां से रोज़ाना बसों में भरकर लोग यहां काम के लिए आते हैं, तो हम पाएंगे कि यूपी के गांव के गांव वीरान होते जा रहे हैं। गांवों से शहर की ओर लोगों के पलायन की वजह सिर्फ शहरीकरण ही नहीं बल्कि गांवों के बदतर होते हालात और कृषि संकट भी है। वरिष्ठ पत्रकार ज्ञान प्रकाश सिंह ‘प्रतीक’ बताते हैं, ‘’ एक समय था जब गांव के लोग कुटीर उद्योग के द्वारा ही रोजी-रोटी का इंतजाम कर लेते थे। समय बदलने के साथ आज कुटीर उद्योग से होने वाले काम जैसे रस्सी बनाना, हंसिया बनाना, रजाई भरने जैसे अधिकतर काम मशीनों से होने लगे। मशीनों से बनने वाली वस्तुओं में समय भी कम लगता है, काम में सफाई होती है और उत्पादन भी अधिक रहता है। ये उत्पादन जब बहुत कम लोगों के द्वारा ही कर लिया जाता है तो ऐसे में बाकी लोगों को रोजगार के लिए पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है।‘’ मशीनों के बढ़ते प्रयोग ने इस कदर असंतुलन पैदा कर दिया है कि जो किसान खेतों की जुताई के लिए बैलों को पालते थे वो अब ट्रैक्टर आने के बाद बैलों से दूरी बना रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि छुट्टा जानवर खेतों में जाकर किसानों की फसलों को बर्बाद कर रहे हैं।
हरदोई की रहने वाली किरन बताती हैं कि उन्होंने अपने खेतों में बाड़बंदी कर दी है। खेत बंटाई पर है और परिवार मजदूरी करने के लिए शहर में। वे घरों में बरतन मांजती हैं और उनके पति रिक्शा चलाते हैं। नौवीं फेल बड़ा बेटा इलेक्ट्रॉनिक की दुकान में काम करता है। छोटे बेटे को वे किसी तरह पढ़ा पा रही हैं। खेत को देखने वाले बंटाईदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए इस बार अपने छोटे से खेत में बाड़ लगवा दी है। उनके मुताबिक आज की तारीख में गांव में छुट्टा पशुओं का खतरा सबसे ज्यादा है। अभी हाल में शहर की मजदूरी से कमाए पैसे से उन्होंने पांच बीघा ज़मीन खरीदी है। शहर में रहते हुए भी कैसे ग्रामीण मूल्य नहीं बदले हैं, किरन उसका प्रतीक उदाहरण हैं।
लखनवी तहज़ीब की तलाश
जनसंख्या वृद्धि ने लखनऊ शहर को सांस्कृतिक स्तर पर भी प्रभावित किया है। लखनऊ को अपनी तहजीब के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। आंतरिक पलायन के चलते हालांकि इस तहजीब में थोड़ा मिलावट आई है। यहां रोजी-रोटी के चक्कर में आने वाले लोग अपने साथ अपनी स्थानीय संस्कृति भी लेकर आते हैं। उनके लिए लखनवी तहजीब का कोई मतलब नहीं। इसे लेकर यहां के बाशिंदों में देर से सही, अब चिंताएं उभरने लगी हैं। पुराने लखनऊ के वजीरबाग में रहने वाले मोहम्मद सुहैल कहते हैं, ‘’लखनऊ की ज़बान उर्दू है। पुराने लखनऊ में रहने वाले हिन्दू हों या मुस्लिम, सभी की ज़बान में उर्दू की मिठास सुनने को मिलती है लेकिन जब से बाहर के लोग यहां आकर बसे हैं तब से लखनऊ की इस तहजीब को काफी धक्का लगा है।‘’
मुस्कुराना मना है
कहने का मतलब कि संकट चौतरफा है। एक ओर खाली होते गांव हैं, दूसरी ओर गांव से काम की खोज में शहर आए मरते-खपते लोग हैं और अंत में लखनऊ के शहरी लोग हैं जो बुनियादी सेवाओं व सुविधाओं पर बढ़े ह़ए इस बोझ का नतीजा तो झेल ही रहे हैं, साथ में भाषा-संस्कृति के लंपटीकरण को लेकर भी अब चिंतित नज़र आते हैं। कुल मिलाकर गांव से लेकर शहर तक जीने के हालात नाकाफी हैं। विडंबना ये है कि यह समस्या जनप्रतिनिधियों की चिंता का विषय नहीं बन पा रही।
समूचे प्रचार अवधि में तीनों प्रत्याशियों का ज़ोर शहर की मुस्लिम आबादी को अपनी ओर करने पर रहा। किसी ने उन दस लाख अनाथ लोगों की सुध नहीं ली जिन्हें यह शहर रोज़ी मुहैया करा रहा है। किसी ने इस शहर के तहज़ीब पर बात नहीं की। किसी ने ट्रैफिक पर बात नहीं की। कोई भी उम्मीदवार सड़कों पर लगे रेले को लेकर परेशान नहीं दिखा। प्रदूषण की बात तो खैर इस देश के नेता करते ही नहीं।
तर्ज ये कि लोग न लखनऊ में चैन से जी पा रहे हैं, न अपने घर-गांव वोट देने ही जा पाते हैं। ये अपनी समस्या किससे कहें, यह एक बड़ा सवाल है। यहां अमीरी और गरीबी, बाहरी और स्थानीय के बीच बढ़ती खाई को पाटने वाला समाजवादी दृश्य तभी उपस्थित होता है जब मौसम बदलता है। सरकारी अस्पतालों में स्ट्रेचर पर लेटे और ज़मीन पर लोटे स्थानीय व बाहरी का भेद मिट जाता है। हालत एक अनार सौ बीमार वाली हो जाती है। शहर के देश दीपक सिंह कहते हैं, ‘’राजनेताओं को इन समस्याओं से क्या मतलब? उन्हें तो इलाज कराने के लिए सरकारी खर्च पर विदेश जाने की छूट है। बीमार पड़ने पर वे अमेरिका से यहां डॉक्टर भी बुला सकते हैं।‘’
इस गंभीर समस्या को सुलझाने का सारा नुस्खा गांवों से पलायन को रोकने में निहित है, जिससे शहर और गांव के बीच पहले जैसा संतुलन स्थापित किया जा सके। पलायन तभी रुकेगा जब गांव के आसपास में ही रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं मिल सकेंगी और बाढ़ व सूखे जैसी मौसमी समस्याओं से निजात मिल सकेगी। इस लिहाज से देखें तो जो बीमारी आज ऊपर से लखनऊ जैसे महानगर को घेरे दिखती है, वह वास्तव में केवल लक्षण है। असल मर्ज़ तो उन गांवों में है जहां से बीमारी पैदा हुई है। यूपी के गांवों को जब तक दुरुस्त नहीं किया जाएगा, तब तक यह कहना बेमानी होगा कि ‘’मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं।‘’