आज के ही दिन 1831 में दलित लड़कियों के शिक्षा जगत को एक नई राह देने वाली सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले का जन्म हुआ था। आज भारत की इस पहली महिला अध्यापिका और समाज सुधारिका की 190वीं जयंती है। इस मौके पर इनके जीवन और जीवन के संघर्षों की कुछ बातों पर गौर करेंगे। हम चाहते है कि सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले के संघर्षों से सीख लेकर आप सभी दलितों के प्रति अपनी सोच को बदलने का प्रयास भी करिए।
महज़ 10 वर्ष में हुआ था सावित्रीबाई का विवाह..
सावित्रीबाई का जीवन आसान नहीं था आज के समय में भी जब दलितों के साथ अन्न्याय होते हैं। तो, आज़ादी से पहले का हाल क्या होगा आप सोच सकते है। उस समय समाज में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवाओं पर अत्याचार जैसी कुरीतियां आम थीं। सावित्रीबाई फुले महाराष्ट्र में सतारा के एक दलित परिवार में पैदा हुई थीं। मात्र 10 साल की उम्र में उनका बाल विवाह 13 साल के महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ कर दिया गया था। जब उनकी शादी हुई तो उनके पति तीसरी कक्षा में थे। शादी के बाद ही उनके जीवन ने ऐसा मोड़ लिया, जिससे वह आज पहली महिला अध्यापिका के रूप में जानी जाती हैं। उनके पति एक दलित चिंतक और समाज सुधारक थे और उन्हीं की मदद से सावित्रीबाईह ने शिक्षा हासिल की थी। सावित्रीबाई के पति ही उनके संरक्षक, गुरु और मार्गदर्शक थे।
महात्मा ज्योतिबा फुले को महाराष्ट्र और भारत में समाज सुधार आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण अगुआकार के रूप में जाना जाता है। ज्योतिबा ने पूरा जीवन महिलाओं और पिछड़ी जातियों को शिक्षित करने और उन्हें आगे बढ़ाने में बिताया। सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। आपको बता दें कि सावित्रीबाई को आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है।
महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने पर कीचड़, गोबर, पत्थर तक सहा..
सावित्रीबाई ने 17 साल की छोटी उम्र में लड़कियों को शिक्षित करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया। हर जाति जिसे समाज शिक्षा के योग्य नहीं मानता था। उन्होंने उन सभी वर्गों की लड़कियों को शिक्षित किया। महिला सशक्तिकरण के लिए काम करते हुए सावित्रीबाई को कठिन संघर्षों का सामना करना पड़ा। महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हुए उन पर कीचड़, गोबर, पत्थर तक फेंका गया। दरअसल, दलित महिलाओं की पढ़ाई, उनके उत्थान के लिए काम करने, छुआ -छूत के खिलाफ आवााज़ उठाने के लिए उन्हें एक बड़े वर्ग के विरोध का सामना करना पड़ा था। क्योंकि, उनका मानना था कि एक महिला वो भी दलित को पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। सावित्रीबाई जब बच्चियों को पढ़ने स्कूल जाती थी तब वह अपने साथ एक थैला लेकर चलती थीं, जिसमे एक साड़ी हुआ करती थी। क्योंकि रास्ते में उसके विरोधी उन्हें पत्थर मारते थे। पत्थर के साथ ही ऊपर गोबर फेंके जाते थे। जिससे उनकी साड़ी गंदी हो जाती थी, और वह स्कूल जा कर सड़ी बदलकर बच्चियों को पढ़ाती थी। इतने अत्याचारों के बाद भी वह दलित और कमज़ोर लड़कियों को शिक्षित करने के लिए दृढ़ता के साथ समाज से लड़ती रही।
लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोलकर देश में एक नई पहल की शुरुआत की..
सावित्रीबाई ने 1848 में महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल भी खोला। 1852 में उन्होंने दलित लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की। सिर्फ एक- दो नहीं उन्होंने लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोलकर पूरे देश में एक नई पहल की शुरुआत की। उन्होंने देश के पहले किसान स्कूल की भी स्थापना की थी। केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नही सावित्रीबाई ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी। उन्होंने कन्या शिशु हत्या को रोकने के लिए भी काम किया। अभियान चलाए और नवजात कन्या शिशु के लिए आश्रम तक खोला, जिससे उन्हें बचाया जा सके। उन्होंने एक विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया था। जिसमें महिलाओं सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया जाता था। 1853 में सावित्रीबाई ने गर्भवती, बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की भी स्थापना की।
सावित्रीबाई फुले अपने जीवन के उद्देश्य के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करती रहीं..
आपको बता दें कि सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जा रही एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलिवरी करवा कर उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर सावित्रीबाई ने डॉक्टर बनाया। 1890 में महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का प्रयास किया, जिसके बाद 1897 में प्लेग महामारी की चपेट आने से सावित्रीबाई की मृत्यु हो गई। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी समाज की सेवा करना नही छोड़ा।
क्या सावित्रीबाई जैसी महिलाओंं के संघर्ष और बलिदान को भूल गए लोग?
दरअसल, 1897 में भारत के कई हिस्से प्लेग महामारी की चपेट में थे। पीड़ितों की मदद के लिए सावित्रीबाई फुले प्रभावित जगहों पर जाती थीं। पीड़ित बच्चों की देखभाल करते हुए ही सावित्रीबाई भी प्लेग से संक्रमित हो गईं थी। सावित्रीबाई फुले अपने जीवन के उद्देश्य के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष कर रही थीं। सावित्रीबाई का पूरा जीवन समाज के वंचित वर्गों, विशेषकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता। लेकिन, आज 21वीं सदी के इस समय में भी दलितों और दलित लड़कियों के साथ अत्याचार, छुआ-छूट, महिलाओं बच्चियों से रेप जैसी घटनाएं आए दिन सामने आती हैं। पर अपसोस इस बात का है कि इन्हें रोकने के लिए सरकार भी कोई खास कदम नहीं उठाती। ” ऐसे में मैं यह सोचने पर मजबूर हूं कि क्या सावित्रीबाई जैसी महिलाओंं के संघर्ष और बलिदान को भूल कर आज की सरकारें और हम सभी आगे बढ़ रहे हैंं? क्योंकि दलितों और महिलाओं की स्थिति में आजादी के बाद से अब तक बहुत ज्यादा सुधार नहीं आया है।”