टूटू रेजीमेंट: चीन से अनवरत युद्ध में जुटे प्राचीन लड़ाके!

लाखामंडल, लद्दाख और खाम

एक रोमांचप्रिय ड्राइवर के साथ हमने भागीरथी की कठिन चढ़ाई चढ़ी और गंगोत्री से वापस लौटते वक्त एक मोड़ काटकर यमुना घाटी की तरफ बढ़ गए। विचित्र रिवाजों और हजार कहानियों से सराबोर यमुना घाटी में हमारा दाखिला यमुनोत्री से कोई साठ किलोमीटर नीचे हो पाया। इस घाटी के अचरज खत्म ही नहीं होते। नदी पर तैरते कुहासे में अचानक बीच से उठता ग्रेनाइट का ऊंचा पहाड़ भला इस देश में आपको और कहां देखने को मिलेगा? एक अखबारी कहानी के सिलसिले में हमें लाखामंडल जाना था। रात बड़कोट में गुजारने के बाद सुबह दस बजे तक यहां के डेढ़ हजार साल पुराने शिव मंदिर के इर्द-गिर्द मौजूद लोगों से बातचीत करके हमने कहानी का कच्चा माल जुटाया, लेकिन वापसी से पहले वहीं ऊपर को जा रही एक सड़क पर ‘विदेशियों के लिए प्रतिबंधित’ का बोर्ड देखकर चौंक गए।

उत्तराखंड में तो विदेशियों को हर जगह जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, फिर यहां उन पर रोक क्यों? मुझे कहां पता था कि इस रोक में ही आजीवन चलने वाली मेरी एक उत्सुकता की डोर बंधी है। वहां के लोगों ने ‘आगे छावनी पड़ती है’ बोलकर छुट्टी पा ली लेकिन मुझे लगा, कैंटोनमेंट एरिया में जाने पर रोक तो देसी-विदेशी हर किसी के लिए होती है, यहां सिर्फ विदेशियों पर क्यों? देहरादून पहुंचकर मैंने अपने एक साथी से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उधर तिब्बतियों की टूटू रेजिमेंट रहती है, जिसे सरकार खुलकर अपनाना भी नहीं चाहती, इस पर दुनिया भर में चर्चा शुरू हो जाए, यह तो बिल्कुल ही नहीं चाहेगी।

यह कोई पंद्रह साल पुरानी बात है, जब तिब्बती आबादी को लेकर मेरी समझ दलाई लामा और कुछ कविता-कहानियों के अलावा दिल्ली में मजनूं का टीला वाली तिब्बती बस्ती तक ही पहुंच पाती थी। मुझे लगा, गप्प है। टूटू रेजिमेंट जैसा कुछ भारतीय सेना में होता तो इसका नाम कभी जरूर सुनने में आता और किसी बागी फौज का भारत में होना तो आज भी मेरी कल्पना से परे है। फिर धीरे-धीरे करके तिब्बत का दखल मेरे जीवन और सोच-विचार में होना शुरू हुआ। ल्हासा से न्यिंग्ची तक की यात्रा करके, 500 किमी की इस दूरी में पांच दिन बिताकर लगा नहीं कि वह कोई शोषित इलाका है। लेकिन भारत में रह रहे तिब्बतियों के पास अपनी मातृभूमि को लेकर कुछ अलग कहानियां हैं, जिनकी तह तक जाने के लिए चीजों को और गहराई में जाकर देखने का हुनर सीखना होगा।

बहरहाल, उसी टूटू रेजिमेंट को आज हम पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर उसके आधिकारिक नाम ‘स्पेशल फ्रंटियर रेजिमेंट’के साथ ब्लैक टॉप पर मोर्चा बांधे देख रहे हैं। भारत-चीन तनाव के इस वाले दौर की पहली शहादत भी उसी के हिस्से आई है। आश्चर्य की बात है कि इस रेजिमेंट की बुनियाद खंपा हैं। लद्दाख से हजार मील दूर तिब्बत के सुदूर पुरबिया इलाके खाम के मूल निवासी। एक प्राचीन लड़ाकू जाति के लोग, जिनके बाप-दादों ने 1950 में सिचुआन के रास्ते तिब्बत में प्रवेश कर रही चीनी लाल फौज से भीषण युद्ध लड़ा था, जिसे वे आज भी जारी रखे हुए हैं।



चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है। 



 

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