अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ‘खबर’ और मीडिया का प्रचार!

 

चार एक के अनुपात से यह आरोप सही हो या गलत देश समाज मीडया को क्या फर्क पड़ेगा

 

नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आपकी राय चाहे जो हो उसे अभिव्यक्ति नहीं मिल सकती है। आप लिखेंगे तो अवमानना कानून का डर है और अखबारों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर लोगों की राय छापने का रिवाज नहीं है। लेकिन छवि तो सुप्रीम कोर्ट की भी है और अवमानना कानूनन के बावजूद उसकी छवि बनी रहे यह जरूरी है और उसके फैसलों का सम्मान हो इसके लिए अवमानना कानून भी जरूरी है। अवमानना कानून के दुरुपयोग पर पत्रकार विनीत नारायण की एक किताब तो है ही, उनके निजी अनुभव भी हैं। 

अभी वह सब मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि नोटबंदी से संबंधित फैसला बहुमत से हुआ है और उसका विरोध या उससे असहमति सार्वजनिक है। यह व्यवस्था है जो 70 साल में कुछ नहीं हुआ के बावजूद है। प्रधानमंत्री (या सरकार) के किए पर फैसला ऐसा ही होना था। वरना इमरजेंसी को कौन नहीं जानता है। हालांकि अभी मुद्दा वह भी नहीं है। मेरा मुद्दा सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं, उसकी रिपोर्टिंग या उसकी प्रस्तुति है। 

अंग्रेजी के मेरे पांच अखबारों में यह पहले पन्ने पर है, ज्यादातर में लीड। उसकी चर्चा से पहले खबर बताने के लिए नवोदय टाइम्स का शीर्षक बता दूं, “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट”। इसके साथ बॉक्स में एक खबर है, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने जताई असहमति और इसके साथ हाइलाइट किया गया है – कहा, नफरती भाषण मूलभूत मूल्यों पर प्रहार। मैं नहीं जानता मामला क्या था पर इस खबर से साफ है कि मामला नफरती भाषण का भी होना चाहिए था जिसपर शायद गौर नहीं किया गया, मुद्दा ही नहीं था उसके बावजूद बहुमत से यह फैसला आया है। 

मैं यह कहना चाह रहा हूं कि होता तो वही है जो सरकार चाहती है। जब सरकार के किये को गलत ठहराया ही नहीं जा सकता है या पुलिस सरकार समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई ही न करे, सरकार के खिलाफ शिकायत करने वालों पर ही कार्रवाई हो जाए, अपराध का सबूत होने के बावजूद कार्रवाई वीडियो बनाने वाले के खिलाफ हो कि उसने फिरौती वसूलने के लिए वीडियो बनाया था तो मामला कानून की व्याख्या का भी है और वह चार एक के अनुपात में बंटा दिख रहा है। 

अगर यह फैसला (मंत्रियों और सरकार समर्थकों) के नफरती भाषण पर नहीं है तो इतना बड़ा मामला नहीं है। कायदे से आज उन मामलों की सूची छपनी चाहिए थी जिनपर कार्रवाई नहीं हुई है। तब मीडिया की स्वतंत्रता नजर आती जो अभी की स्थिति में मुद्दा ही नहीं है। हालांकि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में यह फैसला भी चार एक की सहमति या बहुमत का है। तो क्या पूरा समाज या देश चार एक में बंट गया है? संयोग से, या दुर्भाग्य से देश में बाकी आबादी के मुकाबले मुसलमानों की आबादी का अनुपात भी यही है। और इसलिए यह अनुपात बहुत महत्वपूर्ण है। देश के भविष्य के लिए भी।  

देश में पिछले आठ-नौ वर्षों में जो हुआ है और उसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले शामिल हैं उससे लगता है विभाजन बहुत तेजी से हुआ है और नोटबंदी पर फैसले के तुरंत बाद यह फैसला और इसका प्रचार बता रहा है कि मीडिया में अभिव्यक्ति का आजादी के उपयोग का अनुपात भी वही है। हो सकता है समग्र तौर पर ज्यादा या कम हो लेकिन मीडिया अगर सुप्रीम कोर्ट की छवि बनाने (संभालने) में लगा है तो वह किसी कारण से दूसरी खबरों को वह प्रमुखता नहीं दे रहा है जो सरकार के खिलाफ है या सरकार को पसंद नहीं हो सकती है। 

इसलिए स्थिति पर गौर करने की जरूरत है, सुप्रीम कोर्ट को भी। संक्षेप में मैं बता दूं कि मुझे नहीं लगता है कि आज यह खबर लीड होने के लायक है इसे लीड बनाने का मकसद है, बहुमत से है। कारण बताना विषयांतर होना होगा इसलिए मैं आज के अखबारों की कुछ खबरों की चर्चा कर रहा हूं जो लीड हो सकती थीं। और ज्यादा प्रमुखता से छपनी चाहए थी। ये खबरें पहले पन्नों पर हैं लेकिन उन्हें वो महत्व नहीं दिया गया है जो दिया जाना चाहिए या दिया जा सकता था। 

क्रम अलग हो सकता है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि जनहित और अभिव्यक्ति की आजादी के लिहाज से इन खबरों को ज्यादा महत्व मिलना चाहिए था। चार एक के अनुपात में जो अभी एक चार या उससे भी कम है। सबसे पहले तो इंडियन एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव खबर है – अमेरिका के मिलवाउकी में रहने वाले अनिवासी भारतीय दर्शन सिंह धालीवाल को प्रवासी पुस्कार से सम्मानित किया गया है। इंडियन एक्सप्रेस में इस खबर के शीर्षक में ही जोड़ दिया गया है, धालीवाल ने कहा : हवाई अड्डे से वापस भेज दिए जाने से परेशान नहीं हैं। 

कहने की जरूरत नहीं है कि शीर्षक में यह बात नहीं होती तो इस खबर का कोई महत्व नहीं था या इस तथ्य पर ध्यान ही नहीं जाता। धालीवाल ने सम्मान स्वीकार किया और अब कह रहे हैं कि परेशान नहीं हैं तो उसे प्रमुखता देने की बजाय खबर यह भी हो सकती थी कि सरकार ने उस अनिवासी भारतीय को प्रवासी पुरस्कार से सम्मानित किया है जिसे हवाई अड्डे से वापस कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने किसान आंदोलन के समय किसानों के लिए लंगर की व्यवस्था की थी। खबर में लिखा है कि यह सरकार की कोशिशों का नतीजा है। प्रवासी सम्मान के लिए चुनने वालों में उपराष्ट्रपति और विदेश मंत्री हैं। 

जाहिर है, एक व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता के उपयोग के लिए नाराज और परेशान करने के बाद उसे वापस सरकार या भाजपा के खेमे में लिया गया है और इसके लिए प्रवासी पुरस्कार का उपयोग किया गया है। अगर इंडियन एक्सप्रेस ने अपने तेवर के प्रतिकूल इस खबर की धार कम कर दी है तो उसका कारण विज्ञापन या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होना भी हो सकता है। इसे कौन देखेगा, कैसे तय होगा या चार एक के बहुमत से खारिज कर दिया जाना पर्याप्त होगा? दूसरे अखबारों ने इस खबर को महत्व नहीं दिया वह भी संपादकीय स्वतंत्रता का मामला है लेकिन मेरे जैसे पाठकों की बात करें तो शायद अनुपात चार एक का ही होगा। 

यह याद किया जाना जरूरी है कि नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सत्ता में आए हैं और अब उसे पूरी तरह भूल चुके हैं। कई उदाहरण और सबूत हैं। विदेश में ‘रखा’ काला धन सबसे गंभीर मामला है। दूसरी ओर, जब भ्रष्टाचार था तो नेताओं का मुकदमा लड़ने वाले वकीलों को राज्य सभा की सदस्यता दी जाती थी अब जब ईमानदारी का राज स्थापित होने का दावा और ढोंग किया जा रहा है तो बहुत ही साधारण पुरस्कार का उपयोग जनसपंर्क के लिए किया जा रहा है। विरोधियों को परेशान करना तो अपनी जगह है ही। ऐसी स्थिति में चुनाव निष्पक्ष कैसे होंगे? लेवल प्लेइंग फील्ड का क्या होगा? 

हिन्दुस्तान टाइम्स में एक तस्वीर का शीर्षक है, नागरिकों के अंतिम संस्कार के मौके पर तनाव। इस फोटो का कैप्शन है, राजौरी में आतंकी हमलों में मारे गए छह नागरिकों के अंतिम संस्कार के वक्त मंगलवार को मौजूद लोग। मूल खबर का एक शीर्षक यह भी था, ताबड़तोड़ हिंदुओं की हत्या से फिर दहला कश्मीर, 4 को मारने के महज 14 घंटे के अंदर 2 और बच्चों का मर्डर, 6 गंभीर। लेकिन यह खबर उतनी प्रमुखता से नहीं दिखी जितनी महत्वूर्ण है। कहने की जरूरत नहीं है कि कश्मीर इस सरकार की प्रयोगशाला है। पुलवामा हमले से चुनाव की पूरी हवा बदल गई थी लेकिन कश्मीर की इस या पहले की खबरों को अखबारों में कितनी प्रमुखता मिलती है?  

टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर दो कॉलम में एक खबर है, गलत ढंग से जेल में रखने के लिए आदिवासी ने मध्य प्रदेश सरकार के खिलाफ 10 हजार करोड़ का मुकदमा किया है। याचिकाकर्ता 35 साल का कांतिलाल भील है उसने अन्य क्षतिपूर्ति के अलावा 10,000 करोड़ रुपए की मांग मनुष्यों को ईश्वर के उपहार, यौन सुख या आनंद से वंचित रखने के लिए की है। आज के समय में जब तमाम लोगों को बिना कारण और कंप्यूटर में फर्जी सबूत प्लांट करके लोगों को फंसाने के आरोप हैं तो इस मामले की गंभीरता बढ़ जाती है। यौन सुख से वंचित रखने के लिए हर्जाने की मांग भी शायद पहली हो। इस लिहाज से यह खबर पहले पन्ने पर प्रमुखता से हो सकती थी लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया के अलावा दूसरे अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं दिखी। प्रमुखता से तो छोड़िये। 

द हिन्दू में एक खबर हरियाणा के खेल मंत्री पर लगे आरोपों से संबंधित है। इस कारण संदीप सिंह इस्तीफा दे चुके हैं और इस लिहाज से यह खबर महत्वपूर्ण है क्योंकि, भाजपा में इस्तीफे नहीं होते। लेकिन इस खबर को कई अखबारों में पहले तो प्रमुखता नहीं ही मिली अब मुख्यमंत्री आरोपों को बेतुका बता रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इस तरह वे अधिकारियों को संकेत दे रहे हैं, अपनी इच्छा बता रहे हैं जबकि अभी मामले की जांच होनी है। अव्वल तो भाजपा में मंत्रियों के इस्तीफे होते नहीं हैं और अगर हो चुका है तो कार्रवाई सामान्य ढंग से होना चाहिए। लेकिन मुख्यमंत्री अपनी राय बताकर मंत्री का बचाव ही नहीं कर रहे हैं जांच करने वालों पर परोक्ष रूप से दबाव भी बना रहे हैं। मुझे लगता है कि इस लिहाज से भी इस खबर को महत्व मिलना चाहिए जो नहीं मिला है। दूसरी ओर, अदालत के एक ऐसे फैसले को प्रचारित किया गया है जो सर्वविदित है और पक्षपातपूर्ण ढंग से ही सही, लागू है।

इसके अलावा भी कुछ खबरें हैं जो सभी अखबारों में समान प्रमुखता से होनी चाहिए थी। इन खबरों में एक द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर दो कॉलम में है। शीर्षक भी उतना ही दिलचस्प है। भाजपा ने सीवेज की जगह चुनावी गटर चर्चा को दी। इस खबर के अनुसार कर्नाटक भाजपा के अध्यक्ष नलिन कुमार कातिल ने कार्यकर्ताओं से कहा है कि वे नागरिक सुविधाओं जैसे छोटे मामले की जगह लव जिहाद पर फोकस करें।

दूसरी महत्वपूर्ण खबर यह भी है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उत्तर प्रदेश पहुंच गई है और इस मौके पर राम जन्म भूमि मंदिर के मुख्य पुजारी अचार्य सत्यन्द्र दास ने राहुल गांधी को चिट्ठी लिखी है। कहा है कि यह भारत की बेहतरी के लिए है। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार विश्व हिन्दू परिषद ने इस पत्र पर अफसोस जताया है और कहा है कि यह उनकी निजी सोच है।

टाइम्स ऑफ इंडिया में छोटी सी खबर है, पारसनाथ को पर्यटन स्थल घोषित करने के झारखंड सरकार के फैसले के खिलाफ उपवास कर रहे 72 साल के जैन मुनि की मौत हो गई। वे 25 दिसंबर से आमरण अनशन पर थे। खबर है कि सम्मेद शिखर जी को पर्यटक स्थल बनाए जाने का पिछले दिनों जयपुर में खूब विरोध हुआ है। यहां उसके खिलाफ कई शांतिपूर्ण आंदोलन भी भी चुके हैं। इसलिए यह एक धर्म से संबंधित मामला तो है राजनीति से भी जुड़ा हुआ है।

 वैसे भी, आमरण अनशन पर मौत, वह भी जैन मुनि की महत्वपूर्ण मामला है लेकिन अखबारों में इसे भी वो महत्व नहीं मिला है जो मिलना चाहिए था।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।   

 

 

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