यह 2005 की बात है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को सत्ता में आए बमुश्किल साल भर से कुछ ज्यादा हुआ था। पत्रिका के एक अंक में अचानक कवरस्टोरी का टोटा पड़ गया। पूरी संपादकीय टीम चिंतित।
संपादक और गुरु आलोक तोमर ने मुझसे कहा- ”पंडीजी, कुछ खोजो, मनमोहन सिंह मज़ा नहीं दे रहा है।” दिमाग भिड़ाया गया। सामूहिक खुराफ़ात सूझी। कांग्रेस के सांसदों को एक-एक कर फैक्स भेजा गया। कई सवाल पूछे गए थे, लेकिन जो असल सवाल पूछा गया वो ये था- क्या आप सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं? कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि इसका जवाब क्या आया होगा। जितना मुझे याद पड़ता है, आगामी कवरस्टोरी का कवरलाइन था: ”सोनिया बनें प्रधानमंत्री”। पूरी कहानी किए गए सर्वे पर आधारित थी। तकनीकी रूप से कहीं कोई लोचा नहीं था।
इसी कवरस्टोरी के कुछ अंक बाद ‘सीनियर इंडिया’ पत्रिका के दफ्तर पर छापा पड़ा था और आलोकजी जेल गए थे। वह मामला हालांकि अलहदा था जिसका इस लेख से कोई मतलब नहीं है। इस प्रसंग को सुनाने का आशय यह है कि कांग्रेस जो कल थी, वही आज है। वहां बुनियादी रूप से कुछ भी नहीं बदला है। 2004 में सत्ता में लौटने में उसका कोई हाथ नहीं था। इसी तरह 2014 में सत्ता गंवाने में भी उसका कोई हाथ नहीं था। आज से पंद्रह साल पहले भी सोनिया गांधी ही पार्टी में सर्वोपरि थीं। आज भी हैं। कारण?
केवल एक! सोनिया गांधी अकेली हैं जिन पर किसी किस्म का कोई भी दाग कभी नहीं लगा है। वे नैतिक मामले में सब पर भारी पड़ती हैं- न केवल कांग्रेसियों पर बल्कि दूसरी पार्टियों के नेतृत्व पर भी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र-निर्माण की विरासत के अलावा आधुनिक दौर में यही कांग्रेस की कुल जमा पूंजी है। यही कांग्रेस की अंतिम हद भी है। सोनिया जहां खड़ी होती हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है और वहीं पर खत्म।
इस बीच राहुल गांधी का इमेज मेकओवर करने की बहुत कोशिश की गई। काफी हद तक इसमें कामयाबी भी मिली। इसमें नरेंद्र मोदी की तरह ब्रांडिंग कंपनी और लोकतांत्रिक संस्थाओं का वैसा योगदान नहीं रहा। राहुल ने खुद अपने सामर्थ्य के हिसाब से मेहनत की और पार्टी को यथासंभव जोड़े रखा। जाहिर है, पिछले चुनावों के आलोक में देखें तो कह सकते हैं कि उन्हें चुनावी स्तर पर बहुत कामयाबी नहीं मिली। इसके अलहदा कारण गिनाए जा सकते हैं।
भारतीय क्रिकेट का वह दौर याद करें जब एकदिवसीय टीम की कप्तानी का जिम्मा स्टार बल्लेबाज़ सचिन तेंदुलकर को दिया गया था। याद करिए उस वक्त उनका फॉर्म कितना खराब रहने लगा था। आम तौर से लोग कहा करते थे कि कप्तानी की अतिरिक्त जिम्मेदारी का भार सचिन नहीं उठा पा रहे। बाद में उन्हें जब कप्तानी से मुक्त कर दिया गया, तो शायद उसके पीछे की वजहों में एक वजह यह भी रही थी। सौरव गांगुली से लेकर महेंद्र सिंह धोनी के नेतृत्व में आखिरी वक्त तक वे जमकर और खुलकर खेले। कांग्रेस में राहुल गांधी को भी ऐसे ही देखा जाना चाहिए।
इतिहास गवाह है कि अध्यक्ष का पद कांग्रेस में ऑर्नामेन्टल (सजावटी) होता है। उससे बहुत ज्यादा नहीं। बहुत कम भी नहीं। एक समय में सीताराम केसरी तक अध्यक्ष बन गए थे, जिनकी गाव तकिया लगाए कांग्रेस कार्यसमिति में ऊंघती तस्वीरों के अलावा स्मृति में और कुछ भी नहीं शेष है। वे तो परिवार के बाहर से थे। क्या हो गया उससे?
मोतीलाल नेहरू के पहले कांग्रेस के 46 अध्यक्ष नेहरू परिवार के बाहर से थे। उनके बाद पार्टी के 19 अध्यक्ष परिवार से बाहर के रहे हैं। नेहरू और इंदिरा के अध्यक्ष काल के बीच पांच साल यूएन ढेबर पार्टी के अध्यक्ष रहे। पार्टी अध्यक्ष के बतौर इंदिरा के दूसरे कार्यकाल के पहले नीलम संजीव रेड्डी, कामराज, निजलिंगप्पा, जगजीवन राम, शंकर दयाल शर्मा, देवकांत बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। ये सभी परिवार से बाहर के थे। राजीव गांधी और सोनिया की अध्यक्षी के बीच नरसिंहराव और केसरी पार्टी के अध्यक्ष रहे। दोनों परिवार से बाहर के थे।
इसके बरअक्स और दलों को देखिए। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी तीन बार अध्यक्ष रहे- पहली बार 1986 में बने और 2005 में मुक्त हुए यानी 19 साल में कुल 11 साल। राजनाथ सिंह दो बार अध्यक्ष रहे, बीच में एक राउंड गडकरी आए। सपा-बसपा या कम्युनिस्ट पार्टियों को तो गिनने का भी मतलब नहीं। वहां इतना भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। बहरहाल, भाजपा में एक अध्यक्ष क्या ऐसा गिनाया जा सकता है जो परिवार से बाहर का रहा हो? परिवार यानी संघ परिवार। भाजपा में अमित शाह का कार्यकाल बतौर अध्यक्ष तेरहवां है हालांकि कायदे से वे दसवें अध्यक्ष हैं क्योंकि दो बार राजनाथ और तीन बार आडवाणी अध्यक्ष रह चुके हैं। सवाल उठता है कि अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर अमित शाह तक दस चेहरों में एक भी ऐसा क्यों नहीं हुआ जो आरएसएस का सदस्य न रहा हो यानी परिवार से बाहर का हो?
परिवार का सवाल केवल कांग्रेस के लिए ही क्यों उठाया जाए? भाजपा के लिए क्यों नहीं? गोकि दोनों राष्ट्रीय दल एक ही पद्धति पर काम करते हैं- पार्टी अलग और परिवार अलग। भाजपा की स्थापना के चार दशकों में देखें तो भाजपा का कोई भी अध्यक्ष संघ परिवार से बाहर का नहीं रहा, लेकिन कांग्रेस में 1980 से 2019 के बीच कम से कम दो चेहरे- नरसिंह राव और सीताराम केसरी- परिवार से बाहर के रहे जिन्होंने कुल सात साल पार्टी की बागडोर संभाली। राजीव गांधी की हत्या के बाद यह नेहरू परिवार का सबसे गाढ़ा और त्रासद दौर था। वह दौर अब गुज़र चुका। भाजपा के सबसे कमज़ोर वक्त में भी अध्यक्ष बाहर से नहीं आया, संघ परिवार का ही रहा।
कहने का मतलब ये है कि परिवारवाद को लेकर कांग्रेस पर जैसे आरोप लगाए जाते रहे हैं वे तथ्यात्मक रूप से गलत हैं क्योंकि ऐसा कहते वक्त संघ परिवार और भाजपा के रिश्तों को नजरंदाज कर दिया जाता है। परिवार कांग्रेस को भी चलाता है और परिवार भाजपा को भी। दोनों अलहदा परिवार हैं। फ़र्क बस इतना है कि भाजपा को चलाने वाले परिवार में कांग्रेसी परिवार जितना भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। दूसरे, कांग्रेस को चलाने वाला परिवार संख्याबल में छोटा होने के कारण निशाने पर रहता है जबकि संघ परिवार विशाल है, इतना विशाल कि उसके सदस्यों की पहचान तक स्पष्ट नहीं है क्योंकि वहां परची नहीं कटती। ऐसे कई मौके आए हैं जब संघ ने कुकृत्यों में अपने सदस्यों के पकड़े जाने पर उनसे पल्ला झाड़ लिया है। कांग्रेस को चलाने वाला नेहरू परिवार पल्ला नहीं झाड़ सकता। संघ परिवार पल्ला झाड़ सकता है। यह फर्क बहुत बड़ा है। इसीलिए कांग्रेस आज लेटी हुई है और संघ आज खड़ा है।
सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष चुने जाने की बात ज्यादातर लोगों को इसलिए भी नहीं पच पा रही है क्योंकि सोनिया के राजनीतिक जीवन का अंत लोगों ने मान लिया था। राहुल गांधी को जब उन्होंने पार्टी की कमान सौंपी, तब से जाने कितनी बार सोनिया की सेहत को लेकर अफ़वाह फैली और किसी रहस्यमय बीमारी का मीडिया में दुष्प्रचार किया गया। इन सब के चलते लोगों ने सोनिया गांधी को ‘राइट ऑफ’ कर दिया था। तकरीबन वैसे ही जैसे 2005 में जिन्ना की कब्र पर जाकर लालकृष्ण आडवाणी ने ऐतिहासिक ग़लती की और आरएसएस ने उन्हें ऐसा ‘राइट ऑफ’ किया कि वे हमेशा के लिए ‘पीएम इन वेटिंग’ बन कर रह गए। फ़र्क बस यह है कि सोनिया ने स्वेच्छा से खुद को अध्यक्ष पद से दूर किया जबकि आडवाणी को अपने जिन्ना-प्रेम के चलते कुर्सी गंवानी पड़ी।
जाहिर है, आडवाणी के पास 2005 के बाद अध्यक्षी पर दावेदारी की कोई वैचारिक वजह नहीं बची थी। वे संघ का विश्वास खो चुके थे। संघ की नैतिकता के पैमाने पर उनका पतन हो चुका था। इसलिए उनकी वापसी कभी नहीं हुई। इसके ठीक उलट सोनिया के पास ऐसी कोई वजह नहीं है कि वे फिर से पार्टी की कमान न संभाल सकें। दूसरी हकीकत यह भी है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर ऐसा कोई नेता नहीं है जो पूरे नैतिक बल और गरिमा के साथ अध्यक्ष पद को सुशोभित कर सके। कांग्रेस में अध्यक्ष पद का भले बहुत खास कार्यकारी मतलब न होता हो लेकिन आप ध्यान दें तो पाएंगे कि अधिकतर अध्यक्ष ऐसे ही रहे हैं जिनके व्यक्तित्व की अखंडता पर कभी सवाल नहीं उठ सका।
अध्यक्ष पद की गरिमा बनाए रखने के लिए अखंड व्यक्तित्व और नैतिक आग्रह कांग्रेस के संदर्भ में बुनियादी है। यह बात कहा जाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि कल सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने के बाद से चौतरफा इस आशय के विश्लेषण आ रहे हैं कि कांग्रेस अब भी परंपरागत ढांचे को तोड़ नहीं पा रही है। परंपरागत ढांचे को तोड़ना अगर अपने वैचारिक खूंटे से अलग होकर स्वच्छंद और अराजक हो जाना होता है, तो बेशक भाजपा इस मामले में एक उदाहरण है जिसने अपने वैचारिक मातृ संगठन आरएसएस को बहुत पीछे छोड़ दिया है। कांग्रेस ऐसा न करे, इसी में उसकी भलाई है।
एक वक्त था जब भाजपा को ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की पार्टी कहा जाता था। यह तीन ‘च’ संघ के वैचारिक और व्यावहारिक आदर्शों की देन था। भाजपा में अब वह दौर खत्म हो चुका। वहां एक सिंडिकेट काम कर रहा है। ठीक वैसे ही, जैसा सिंडिकेट इंदिरा के राज में के. कामराज चलाया करते थे। भाजपा इस मामले में चार कदम आगे ही है। वहां अध्यक्ष बनने के लिए परिवार से केवल ”होना” बुनियादी शर्त रह गया है, परिवार के आदर्शों और विचार को कायम रखना कोई शर्त नहीं है। इसीलिए रह-रह कर संघ में सुरसुरी दौड़ जाती है कि लगातार भीमकाय और केंद्रीकृत होती जा रही भाजपा किसी दिन संघ को ही निगल न ले। कांग्रेस में ऐसा संकट नहीं है। यहां परिवार अगर पार्टी को नियंत्रित करता है तो यह केवल परिवार से ”होने” भर का मसला नहीं है, परिवार के मूल्यों और विरासत को कायम रखने की भी बात है। और आज के संकटग्रस्त वक्त में तो यह अनिवार्य हो चला है कि कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन से उपजे मूल्यों व विरासत को दोबारा जगाए, न कि पार्टी की कमान किसी ऐसे के हाथ में पकड़ा दे जिसका उन मूल्यों से कोई वास्ता नहीं।
जाहिर है, ऐसी अपरिहार्यता में कोई एक ऐसा चेहरा खोजना कांग्रेस के लिए संभव नहीं था जो उसकी प्रादेशिक महत्वाकांक्षाओं, खासकर यूपी के संदर्भ में संगठन निर्माण को प्रोत्साहित कर सके। प्रियंका गांधी पर जोखिम नहीं लेना है, यह कांग्रेस में पहले से तय था। मुकुल वासनिक, मल्लिकार्जुन खड़गे और मीरा कुमार का नाम शनिवार देर शाम तक पत्रकारों के बीच चल रहा था लेकिन वासनिक और खड़गे कांग्रेस के लिए पूर्वी पट्टी में काम नहीं आते। रही मीरा कुमार की बात, तो बिहार के एक नेता बताते हैं कि कुछ साल पहले किसी नेता ने सोनिया गांधी से पूछा था कि वे बिहार पर ध्यान क्यों नहीं दे रही हैं जबकि वहां संभावनाएं काफी हैं। इस संदर्भ में उन्होंने मीरा कुमार का नाम लेते हुए कहा था कि वे तो लोगों के बीच जाने को तैयार ही नहीं हैं। उधर सदानंद सिंह जैसे नेता पुराने पड़ चुके हैं। यानी बिहार में कांग्रेस के पास कोई चेहरा नहीं है। कल भी नहीं था। जब कुछ साल पहले पार्टी के आलाकमान की मीरा कुमार के बारे में यह राय थी तो जाहिर है कि इस बार उनका नंबर वैसे भी नहीं आना था। उधर संजय सिंह का भाजपा में जाना और अभिषेक सिंघवी आदि नेताओं का कश्मीर पर भाजपा के कदम को समर्थन देना अपने आप बाकी को अविश्वसनीय व अयोग्य बना रहा था। राहुल ने हटने का मन बना ही लिया था। सोनिया के अलावा और कौन आता फिर? पार्टी के पास इसके अलावा और चारा ही क्या था?
इस फैसले को सही या गलत कहने से पहले इसे तौलने की एक कसौटी हमारे पास होना ज़रूरी है। कांग्रेस का अध्यक्ष होने की कसौटी क्या होनी चाहिए थी जिस पर सोनिया के चुने जाने को हम गलत ठहरा रहे हैं? सबके लिए ये कसौटियां बेशक अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन अपनी-अपनी कसौटी को कांग्रेस की राजनीतिक ज़रूरतों के साथ हम मिलाकर देखें तो पाएंगे कि अध्यक्ष पद के लिए परिवार से बाहर का एक नाम नहीं मिलेगा। इसे आप कांग्रेस की मजबूरी कहें, कमी कहें या सबसे पुरानी पार्टी होने का अभिशाप, सब बात एक ही है।
मूल बात इतनी सी है कि कांग्रेस की स्थिति फिलहाल समुद्र के बीच जहाज पर बैठे पक्षी की है। खुले समुद्र में निकलना उसके लिए जानलेवा हो सकता है। दूसरी ओर, जहाज के भीतर कौन कहां छुरा लिए छुपा बैठा है यह पता नहीं। अनिश्चय दुतरफा है। ऐसे अनिश्चय में यथास्थिति ही प्रगतिशील कदम कहलाती है। जब तक ऐसा अनिश्चय कायम है, तब तक एक सर्वस्वीकार्य नाम की ज़रूरत थी जिस पर कोई सवाल नहीं उठा पाता। इसीलिए सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया है। कुछ लोग इस निर्णय का उपहास करते हुए इसे धार्मिक फैसला बता रहे हैं।
सोनिया गांधी की सक्रिय राजनीति में वापसी दरअसल कांग्रेस का धर्म नहीं, आपद्धर्म है। धर्म-पारायणता जब संकट का बायस बन जाए, तो चौतरफा संकटों के बीच आपद्धर्म ही निभाना पड़ता है। यह वही आपद्धर्म है जिसे संघ ‘हिंदू राष्ट्र’ कहता है, कम्युनिस्ट ‘सर्वहारा की तानाशाही’ कहते हैं और बौद्ध ‘बोधिसत्व’ कहते हैं। आपद्धर्म मने बॉटम लाइन। वह अनिवार्य बुराई, जो किसी विचार को पावन बनाती है। सोनिया गांधी का अध्यक्ष चुना जाना कांग्रेसी विचार की बॉटम लाइन है।