आज़मगढ़ में पहली बार जारी किया गया सामाजिक न्‍याय घोषणापत्र

आजमगढ़ 29 अप्रैल 2019। सामाजिक न्याय की संविधान में मौजूद अवधारणा को क्षतिग्रस्त करते हुए संविधान संशोधन के ज़रिये सवर्ण आरक्षण, 13 प्वाइंट रोस्टर जैसे प्रमुख मुद्दों को लेकर सामाजिक न्याय घोषणापत्र जारी किया गया।

लोकतंत्र की बुनियाद सामाजिक न्याय और आर्थिक बराबरी होती है। लेकिन इस दौर में आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी चरम पर पहुंच गई है। बाबा साहेब ने कहा था कि स्वतंत्रता वहीं होती हैं जहां किसी तरह का शोषण न हो। जहां एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अत्याचार न करता हो। सामाजिक न्याय, सम्मान, गरीबी का मामला हो बेरोजगारी का मामला हो उसमें हालत बद से बदतर होते गए हैं। इसने देश को लगातार कमजोर करने का काम किया है। आरएसएस का एजेण्डा देश में मनुसंहिता लागू करवाना है इसलिए वह संविधान और डाक्टर अंबेडकर विरोधी है। पाखंड, झूठ, लूट, फूट उसकी बुनियाद में है। डॉ अंबेडकर का स्मारक बनाता है, दलितों को अपना बताता है और रोज एक रोहित वेमुला की जान लेता है।

योगी सरकार में इस कुतर्क से कि दरोगा के 3307 पदों के लिए महज 2486 लोग ही काबिल मिले, वंचित समाज के प्रतिनिधित्व को रोका गया। योग्य अभ्यर्थी न मिलने के बहाने से जो 822 पद खाली रखे गए, वे सभी आरक्षण कोटे के हैं। नागरिक पुलिस (पुरुष) के 2400 पदों में एससी के लिए आरक्षित 504 पदों में सिर्फ 94 और एसटी के लिए आरक्षित 48 पद के लिए सिर्फ एक व्यक्ति की ही नियुक्ति की गई। नागरिक पुलिस (महिला) के 600 पदों में एससी के 126 और एसटी के 12 पदों के लिए किसी की नियुक्ति ही नहीं की गई। प्लाटून कमांडर के 210 पदों में एसटी और एससी के एक भी अभ्यर्थी की नियुक्ति नहीं की गई। अग्निशमन द्वितीय अधिकारी के 97 पदों में एससी के लिए आरक्षित 20 पदों के लिए सिर्फ एक अभ्यर्थी की नियुक्ति की तो एसटी के 2 पदों के लिए किसी की नियुक्ति ही नहीं की गई। ठीक इसी तरह 2014 में प्रदेश में कुल दरोगाओं की संख्या 10197 थी जिसमें मुसलमानों की कुल संख्या 236 यानि 2.31 प्रतिशत थी है। कुल 8224 हेड कांस्टेबल में सिर्फ 269 मुसलमान तथा 124245 सिपाहियों में सिर्फ 4430 यानि 4.37 प्रतिशत मुसलमान थे। वंचित समाज की सुरक्षा और कानून तक उनकी पहुंच के लिए यह बहस लगातार रही है कि उनका उचित प्रतिनिधित्व न होने के चलते वो थाने जाने तक से डरता है। यहां प्रतिनिधित्व को रोकने के लिए काबिलियत का जो फार्मूला बताया जा रहा है, उसे सवर्ण समाज के अभ्यर्थियों पर क्यों नहीं लागू किया जाता। काबिलियत के नाम पर मनुवादी एजेण्डे के तहत पुलिस में वंचित समाज को जाने से रोककर उनके उत्पीड़न को राज्य सुनियोजित तरीके से सुनिश्चित कर रहा है।

दलित और पिछड़ों के खिलाफ सरकार ने संविधान पर लगातार हमले किये। पहले एससीएसटी एक्ट को कमजोर करने की कोशिश हुई। जनता के तीखे विरोध और भारत बंद के बाद सरकार ने पीछे हटते हुए एससीएसटी एक्ट को पुनर्बहाल किया गया। संविधान की 9 वीं सूची में शामिल करने का सवाल बना हुआ है। सरकार ने नए सिरे से संविधान के साथ छेड़छाड़ करते हुए सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण बिल लोकसभा में फ़टाफ़ट पारित करा लिया और फिर राज्य सभा में भी। मौजूदा सरकार ने विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर संविधान की मूल संरचना को क्षतिग्रस्त किया।

उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापकों की भर्ती में लागू 200 प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे की कमजोर पैरवी से 13 प्वाइंट रोस्टर उच्च न्यायालय में पास हो गया। इसके तुरंत बाद अटल बिहारी बाजपाई हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल ने नया 13 प्वाइंट रोस्टर आधारित विज्ञापन निकाला जिसमें सभी 18 पद सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित कर दिए। हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी ने भी सभी 80 के 80 पद सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित कर दिए। उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ ने फरवरी महीने में 58 पदों के लिए विज्ञापन निकाले थे। इसमें प्रोफेसर के सभी 15 पद, एसोसिएट प्रोफेसर के सभी 10 पद, असिस्टेंट प्रोफेसर के 38 में 33 पद सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित थे। मात्र 4 पद ओबीसी और एक पद पर एससी के लिए था। आरटीआई से प्राप्त सूचना के अनुसार आईआईएम, लखनऊ में शिक्षकों के 83 में 80 पदों पर सामान्य श्रेणी के तो ओबीसी के 2 और एससी का 1 अध्यापक है।

आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण संविधान, सामाजिक न्याय व बहुजनों पर बड़ा हमला है। सवर्ण आरक्षण और संविधान संशोधन दरअसल, संविधान की मूल संरचना और वैचारिकी पर हमला है। यह दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को मिले आरक्षण के खात्मे का रास्ता खोलता है। मतलब कि सामाजिक न्याय और आरक्षण की अवधारणा सीधे निशाने पर है। यह खतरनाक है।

आंकड़े बताते हैं कि आबादी के अनुपात में सत्ता-शासन की संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में दलितों-आदिवासियों व पिछड़ों का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है। यूजीसी नेट जैसी परीक्षाओं में आरक्षण बहुत मुश्किल से 2010 में लागू हो पाया। आज भी केंद्र सरकार की ग्रुप ए की नौकरियों में सवर्ण 68, ओबीसी 13, एससी 13, एसटी 6 प्रतिशत हैं। देश के 496 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों में 448 सवर्ण हैं। 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत प्रोफेसर, 92.9 प्रतिशत एसोसिएट प्रोफेसर, 66.27 प्रतिशत एसिसटेंट प्रोफेसर सवर्ण हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक भी प्रोफेसर ओबीसी तबके से नहीं है।

आरक्षण प्रतिनिधित्व का मसला है और यह प्रतिनिधित्व उसी रुप में और उन्हीं लोगों के लिए है जिसका संविधान में स्पष्ट उल्लेख किया गया है यानि सामाजिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़े हुए लोग। आज जिस रुप में संवैधानिक आरक्षण है, अब उसे बचाए रखने का खतरा हमारे सर पर मंडरा रहा है। देश के संवैधानिक और नीति नियामक संस्थाओं में आजादी के इतने सालों बाद भी दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। इसका परिणाम आरक्षण लागू करने से लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों के निर्णयों में साफ देखा जा सकता है। इसीलिए आरक्षण प्रतिनिधित्व का मसला है न कि कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम। देश में ओबीसी की आबादी 62 प्रतिशत से ज्यादा है। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक को मिलकर तीन चौथाई से भी अधिक हो जाती है। मीडिया में भी इनका प्रतिनिधित्व ना के बराबर है। इसलिए भी वंचित समाज के मुद्दे अमूमन गायब रहते हैं और अगर होते भी हैं तो झूठ और भटकाव के साथ।

13 प्वाइंट रोस्टर और सवर्ण आरक्षण लोकतांत्रिक व्यवस्था और राष्ट्र निर्माण के लिए घातक है। आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का समाधान आरक्षण नहीं है। आरक्षण आर्थिक विषमता मिटाने का एजेण्डा नहीं है। इस मसले पर सत्ता और विपक्ष की दूरी जैसे गायब दिखी। इस चुनाव में वंचित समाज मांग करता है कि-

आइए सामाजिक न्याय के मुद्दों पर बहुजनों की एकजुटता बुलंद करें।



द्वारा: मसिहुद्दीन संजरीविनोद यादवतारिक शफीकबाकेलाल यादवशाह आलम शेरवानीअवधेश यादवअनीता यादवजयंती राजभरडाक्टर अंजुमराजनारायण यादवश्रवणरौशन रावउमेश कुमाररुपेश पासवानविशाल भारतीहीरालाल यादवमोहम्मद अकरममुन्ना यादवसुजीत यादवहाफिज जमालुद्दीनअब्दुल्लाह एडवोकेटगुलाम अम्बियासलीम दाउदीकामिल हसनराजेश यादवविशाल सिंहराजीव यादव.

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