इंदौर में कृषि संकट पर राज्यस्तरीय सम्मेलन
29 अगस्त 2018, इंदौर: देश में गहराते जा रहे कृषि संकट से सभी वाकिफ और चिंतित हैं। जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज, दिल्ली एवं नेशनल सेंटर फॉर एडवोकेसी स्टडीज़, पुणे के संयुक्त तत्वावधान में इस मुद्दे पर मध्य प्रदेश के संदर्भ में अपने अनुभवों को बाँटने और इस बारे में एक समझ कायम करने के लिए एक राज्य स्तरीय संगोष्ठी 29 अगस्त 2018 को कला वीथिका, प्रीतमलाल दुआ सभागृह, अहल्या लाइब्रेरी, रीगल चौराहा, इंदौर में आयोजित की गयी जिसमें प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग संगठनो से लोग शरीक हुए।
इस संगोष्ठी में खेती से जुड़े मुद्दों पर मध्य प्रदेश के संदर्भ में विभिन्न आयामों पर बातचीत की गयी जिसमें ज़मीनी क्षेत्र में काम करने वाले और शोध करने एवं वैचारिक समझ रखने वाले लोगों ने अपने अनुभव साझा किए। प्रदेश भर से इस संगोष्ठी में शरीक हुए लोगों ने खेती से जुड़े अनेक बिंदुओं पर अपने-अपने क्षेत्र में खेती में आदिवासी, दलित, छोटे एवं बड़े किसानों की स्थिति, खेती की विशिष्टताओं और समस्याओं पर चर्चा की।
इस संगोष्ठी में खेती के विषय के जानकार डॉ. जया मेहता (वरिष्ठ अर्थशास्त्री), श्री अमित नारकर (गोवा), श्री वी.एस. निर्मल (राष्ट्रीय सचिव, भारतीय खेत-मजदूर संगठन, दिल्ली), श्री जसविंदर सिंह (प्रदेश अध्यक्ष, अखिल भारतीय किसान सभा, भोपाल), श्री प्रहलाद बैरागी (प्रदेश महासचिव, अखिल भारतीय किसान सभा) एवं अन्य विशेषज्ञों और आंदोलनकारियों ने शिरकत की।
संगोष्ठी की पृष्ठभूमि देते हुए विनीत तिवारी ने अपने आरम्भिक वक्तव्य में बताया कि जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज पिछले क़रीब दस वर्षों से गरीब किसानों की खेती से जुडी समस्याओं का अध्ययन कर रहा है। सन 2010 से 2013 तक इंस्टिट्यूट की टीम ने आठ राज्यों में खेती और उससे जुड़े सवालों, ज़मीन और अन्य संसाधनों के वर्गीय और जातिवार विभाजन एवं अन्य समस्याओं का अध्ययन किया और पाया कि भौगोलिक दृष्टि से हर प्रान्त की स्थिति में विभिन्नता होने से पूरे देश की खेती की समस्या के लिए कोई एक ही समाधान काम नहीं कर सकता। हर प्रदेश की खेती और उस पर निर्भर लोगों के संघटन में फ़र्क है। इस अध्ययन में हमने पाया कि किसानों व खेतिहर मजदूरों, बड़े और छोटे किसानों की समस्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। सहकारी समितियाँ भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी हैं और उन पर सरकारी और गाँव के प्रभु वर्ग का ही कब्ज़ा ही चूका है। खेती के मशीनीकरण के कारण बेरोजगारी भी बढ़ी है और शहरों में में भी नए रोज़गार नहीं आ रहे हैं। ऐसे में ग़रीब किसानों और भूमिहीन खेत मज़दूरों के सहकार और साझा प्रयास से ही हल निकल सकता है। उन्होंने केरल और महाराष्ट्र में चल रहे ऐसे सहकारी प्रयासों की जानकारी भी साझा की। उन्होंने बताया कि उक्त अध्यययन पर आधारित निष्कर्षों की एक पुस्तिका भी निकली है जो अंग्रेजी में और अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुवाद भी हुई है।
अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष श्री जसविंदर सिंह ने खेती के मौजूदा संकट और मध्य प्रदेश की खेती के हालात पर बात रखते हुए हा कि सत्तासीन राजनेता किसानों की मुख्य समस्याओं पर बात करते ही नहीं है।
पहले हर आधा घण्टे में एक आत्महत्या होती थी अब हर पन्द्रह मिनिट में होने लगी है। जो विकास दर पहले 9% थी अब 24% बताई जा रही है लेकिन वहीँ विरोधाभासी आंकड़े भी दिए जा रहे हैं। सन 2006 से 2018 तक 4 लाख 50 हजार हेक्टेयर जोत की जमीन कम हुई है। सरकार आंकड़ों के घाल-मेल से जनता को उलझा कर गुमराह कर रही है। सिंचाई की उपयुक्त सुविधा है ही नहीं। उत्पादन कम हो रहा है और इधर सरकार के आदेश हैं कि उत्पादन बढ़ाकर बताए जाएँ। सूचना के अधिकार के तहत आर टी आई लगाने पर भी कोई जवाब नहीं मिलता। मध्य प्रदेश के अकेले होशंगाबाद में गेंहू की उत्पादकता पंजाब के बराबर है। मक्का का उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन किसान की स्थिति जस की तस है फायदा बिचौलिए और कम्पनियाँ कमा रही हैं। खेती की जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट हो चुका है कि किसान खेती छोड़ रहे हैं और खेतिहर मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है। जोत का रकबा कम होते जाना चिंता का विषय है। खेती में लागत खर्च में वृद्धि होने और सब्सिडी कम मिलने से किसानों की हालत दिनबदिन खराब होती जा रही है। और कैसी हास्यास्पद बात है कि इधर लगातार पाँच सालों से मध्य प्रदेश को कृषि कर्मण में प्रथम पुरस्कार मिल रहा है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथी रणदीप सिंह जो खुद किसान हैं अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि फसल खराब होने पर किसानों को दिए जाने वाला मुआवजा जरूरतमंद किसान तक पहुँच ही नहीं रहा या आधा-अधूरा ही पहुँच रहा है। ऑनलाइन और डिजिटल इंडिया के नाम पर अनपढ़ और भोले-भाले किसानों को ठगा जा रहा है। सारा मुनाफा व्यापारी, कम्पनी और बिचौलिए कमा रहे हैं।
आदिवासी महासभा के प्रदेश महासचिव सुखलाल गोरे जो स्वयं 7 बीघा जमीन की जोत करते हैं ने कहा कि सरकार द्वारा फसल बीमा के लिए कराए जाने वाले सर्वे की रिपोर्ट सर्वे होने के पहले ही तैयार हो जाती है। फसल खराब होने पर बीमा की राशि मिलती ही नहीं। उल्टे उसे पाने के लिए चक्कर लगाने में समय और पैसा दोनों बर्बाद होता है। प्रशासनिक कर्मचारी और नेताओं की आपसी साँठ-गाँठ के चलते किसानों के लिए बनने वाली योजनाओं का फायदा किसानों को मिल ही नहीं पाता। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के नाम पर किसानों की जानकारी के बगैर उनके खाते से पैसा काट लिया जाता है और जब फसल नुकसान की एवज में बीमा की राशि मांगने जाते हैं तो पूरे गांव को आधार माना जाता है। यदि पूरे गांव की फसल बर्बाद हुई है तभी किसान को बीमा राशि मिलेगी अन्यथा नहीं। जबकि ऐसा निश्चित नहीं होता कि सारे गांव की फसल एक साथ बर्बाद हो। कभी-कभी ओले गांव के एक हिस्से में पड़ते हैं और दूसरा हिस्सा सुरक्षित रहता है। ऐसा कई मामलों में होता है। साथ ही जिनको क्लेम मिलता भी है तो नाममात्र का जिससे फसल की लागत भी नहीं निकलती। यह योजना पूरी तरह से बीमा कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए बनाई गयी है।
दिल्ली से इस संगोष्ठी में शामिल हुए खेत-मजदूर संगठन के राष्ट्रीय सचिव वी एस निर्मल ने कहा कि किसान व खेतिहर मजदूरों का संकट नया नहीं है। आज़ादी के बाद कुमारप्पा समिति ने सपना तो यह दिखाया था कि कोई खेत मजदूर नहीं रहेगा। सबके पास अपनी जमीन होगी। लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं। सन 1945-57 के मध्य जमीन से भयंकर बेदखली हुई जिससे चौतरफा संकट आया। वर्तमान में 56% भूमिहीन परिवार हैं और 44% के पास आंशिक जमीन है।
वी एस निर्मल ने स्प्ष्ट ने कहा कि असली समस्या जमीन के गैर बराबर वितरण की है। देश के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाला हर तीसरा परिवार भूमिहीन है और उनकी तरफ से आज़ादी के बाद से अब तक राज करने वाली प्रत्येक सरकार मुँह फेरे हुए है। अब तो सारी जमीन सीधे-सीधे कॉरपोरेट की भेंट चढ़ाई जा रही है। किसान धीरे-धीरे खेत मजदूर बन रहे हैं और खेतिहर मजदूर गाँव से पलायन करने को मजबूर कर दिए गए हैं। खेती के क्षेत्र में बेरोजगारी बढ़ गई है। अधिकतर प्रदेशों में बटाईदारी के लिए कोई कानून नहीं है जिससे मौकापरस्त लोग फायदा उठा रहे हैं। सरकार द्वारा भूमि वितरण केवल कागजों पर हुआ है जमीनी तौर पर कोई सीमांकन न होने से जिन्हें जमीन मिलना चाहिए उनके हाथ में केवल कागज हैं। पूरे देश में जोत की जमीन पर दबंगों का कब्जा आम बात है। मध्यप्रदेश में ज्यादातर दलित-आदिवासी भूमिहीन हैं और जिनके पास जमीन है भी तो उनकी जमीनों को कहीं गांव के दबंग तो कहीं सरकार के नुमाइंदे हड़प रहे हैं।
लोगों के पास खुद के घर भी नहीं हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना ऊपर लटकी जलेबी की तरह है जिसकी चाशनी बून्द-बून्द टपक रही है और जलेबी तक पहुँचना पहुँच होने पर ही सम्भव है। आदिवासियों की आबादी 14 करोड़ से ऊपर है, लेकिन उन्हें काम मुहैया करवाने की बजाए नक्सल-माओवाद के नाम पर मारा-कुचला और दमन किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि गैर खेती असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों और खेतिहर मजदूरों की समस्याएँ तथा जरूरतें अलग-अलग हैं। इसलिए उनके लिए कानून भी अलग-अलग होना चाहिए जिसे ट्रेड यूनियन भी गम्भीरता से नहीं ले रही हैं। सरकार ने लीपा-पोती करते हुए एक ही कानून में दोनों को निपटा कर बला टाल दी है। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने दोनों के लिए अलग-अलग कानून बनाने की सिफारिश भी की थी जिस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। जबकि देश के विकास और जीडीपी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इन खेतिहर मजदूरों के लिए अलग कानून बनना चाहिए। उन्हें 55 वर्ष की आयु के बाद पेंशन और महिलाओं को मातृत्व लाभ मिलना चाहिए। लेकिन सरकार इसके उलट काम के हक़ के तहत बनी मनरेगा योजना भी बन्द करने की जुगाड़ में लगी है। पूरी की पूरी मनरेगा भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है। मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजना से ग्रामीण मजदूर लाभान्वित भी हुए थे, लेकिन आज सरकार की उदासीनता के चलते यह योजना भी मात्र योजना बनकर रह गयी है। सरकार द्वारा जो भी योजनाएं बनाई जा रहीं हैं उनसे किसान-मजदूरों का भला होना दूर बल्कि वह भ्रष्टाचार का जरिया बनकर रह जाती हैं।
सेज के नाम पर हथियाई गई खाली पड़ी जमीनों को वापस लेकर दलित एवं आदिवासी परिवारों को दी जानी चाहिए।
पुणे से इस संगोष्ठी में शामिल हुए चंदन के सवाल “असंगठित एवं खेतिहर मजदूरों को इस तरह अलग-अलग तराजू में न तौल कर उन्हें जोड़कर रखा जाना क्या व्यवहारिक दृष्टि से सही नहीं होगा” पर निर्मल जी ने कहा कि-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में किसानों के अलावा श्रम लगाने वाला प्रत्येक व्यक्ति खेत मजदूर कहलाता है। सरकार द्वारा बनाई जाने वाली योजनाएँ शहरी एवं शिक्षित वर्ग के लिए होती हैं जबकि ग्रामीण क्षेत्र में दस्तकार, बढ़ई, कुम्हार, लुहार इत्यादि बिना कोई प्रशिक्षण के काम करते हैं। जिनके लिए सरकार कोई योजनाएँ नहीं बनाती। सबको एक ही तराजू में नहीं तौल सकते। इसलिए अलग-अलग केंद्रीय कानून लगाना चाहिए। इसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जया मेहता ने कहा कि यह मानना उचित नहीं है कि असंगठित और खेतिहर मजदूर एक ही हैं। दोनों के काम की परिस्तिथियाँ, दशाएँ अलग-अलग हैं इसलिए उन्हें अलग वर्गीकृत करना ही उचित होगा। जिस क्षेत्र में 10 से अधिक लोग कार्यरत हैं वह संगठित और 10 से कम लोग कार्यरत हैं तो असंगठित क्षेत्र कहलाता है। असंगठित क्षेत्र व्यापक है। फैला हुआ है। खेती अपने आप में असंगठित कार्य है।
इस संगोष्टी के उद्देश्य को बताते हुए जया मेहता ने कहा कि आज हमारा मिलना सिर्फ एक बार की मीटिंग के लिए मिलना मात्र नहीं है हमारा उद्देश्य है कि यह एक अभियान बने। सन 1992 -1993 में खेती की 12.5 करोड़ हेक्रटेयर जोती जाने वाली जमीन में से अब केवल 9.4 करोड़ हेक्रटेयर जोत की जमीन ही बची है। तीन करोड़ हेक्रटेयर जोत की जमीन किसानी से दूर जा चुकी है। खेती करने वालों में से बड़ा तबका 0.5 हेक्टर से कम जमीन वालों का है। इतनी कम जमीन से वे खुद अपने लिए दो वक़्त की रोटी नहीं ले पा रहे। वे खेती से बाहर हो रहे हैं और पलायन कर रहे हैं। पूरी दुनिया में शोषित एवं मजदूर तबका रोजगार के लिए परेशान है। इससे पूरी अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया है। हमें सोचना होगा कि इन छोटी-छोटी जोतों से उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए, लागत कैसे कम की जाये ताकि जो खेती इनके लिए घाटे का सौदा भी साबित न हो। छोटी जोत के किसानों और उनकी जमीन को बचाने का एक ही उपाय नजर आता है वो है सामूहिक खेती। जमीन का सवाल जाति से जुड़ा है। सामूहिक खेती की पहल से इससे भी निजात मिल सकती है और इसके जरिए हम अपनी पूरी अर्थव्यवस्था को गति देने में दे सकते हैं। जैसे-जैसे देश में रियल एस्टेट और शहरों का विस्तार हो रहा है उसी के साथ कृषि की जमीन कम हो रही है। इसी के साथ खेती का संकट, छोटे और मझोले किसान, खेतिहर मजदूर सब बदहाली की तरफ बढ़ रहे हैं। सामूहिक खेती के माध्यम से इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि खेती के संकट का हल खेती के भीतर ही नहीं पाया जा सकता। खेती के संकट से निपटने के लिए पूरी अर्थव्यवस्था में अमूल चूल बदलाव की ज़रुरत होगी। इसमें महिलाओं की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। केरल में महिलाओं ने समूहों में जुड़कर बंजर पड़ी लाखों एकड़ ज़मीन को वापस खेती योग्य बनाया है। अगर गरीब किसान और गाँव वाले अपनी खेती को सामूहिक आधार पर करेंगे तो उनकी खेती की उपजाऊ ज़मीन कॉर्पोरेट घराने भी आसानी से नहीं छीन सकेंगे।
अमित नारकर ने महाराष्ट्र के किसानों की स्थिति तथा जून में किसानों द्वारा नाशिक से मुंबई तक किये गए पैदल मार्च पर प्रकाश डालते हुए कहा कि महाराष्ट्र में पंचायती राज का आधार सक्रिय और मजबूत है इसलिए यह आंदोलन पूरे महाराष्ट्र में फैला। इस पैदल विरोध रैली में किसानों और खेत मजदूर दोनों शामिल थे। रैली असफल न हो इसके लिए पहले से ही तैयारियाँ की गई थीं। संयुक्त संघर्ष में ऐसे मौके आते हैं जब असमंजस की स्थिति बनती है। ऐसे मौकों पर सही समझ के साथ निर्णय लेने होते हैं। हालाँकि सरकार इस आंदोलन की कमजोर कड़ियाँ तलाशती रही और कभी आंदोलनकारियों के खाने की व्यवस्था को लेकर तो कभी पैदल चलने पर बचकानी एवं घटिया बयानबाजी करती रही।
इस आंदोलन में समर्थन मूल्य की सही गणना, कर्ज माफी और अन्य माँगों के साथ-साथ स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की माँगें रखी गईं। दलित एवं आदिवासी समाज की माँगों को भी इसमें जोड़ा गया। वन अधिकार कानून को लेकर बड़ी तादाद में आदिवासियों को भी शामिल किया गया। रैली में शामिल होने वाले लोग अपनी रोटी-आटा-नमक साथ लेकर निकले लेकिन उन्हें मुंबई के मध्य वर्ग और मज़दूरों ने व्यापक प्यार और समर्थन दिया। बहुत से संगठनों ने नंगे पैर मुंबई पहुंचे किसानों, आदिवासियों को और हज़ारों जोड़ी चप्पलें भेंट कीं । महाराष्ट्र के इस आंदोलन की आग की गरमाहट दूसरे राज्यों तक भी पहुँची। मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और राजस्थान के भीतर भी किसान समुदाय का गुस्सा उभार पर आया। इस आन्दोलन में सोशल मीडिया और दुर्लभ हो चुके ईमानदार मीडिया चैनलों का भी महत्त्वपूर्ण और सार्थक इस्तेमाल किया गया। शुरू में तो मुख्यधारा के मीडिया ने किसानों के इस आंदोलन को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया लेकिन जब कुछ न्यूज़ चैनलों और न्यूज़ वेब साइट्स ने इस आंदोलन पर लगातार लिखना और दिखाना जारी रखा तो अन्य अख़बारों और गोदी मीडिया को भी न चाहते हुए भी आंदोलन की खबरें देनीं पड़ीं।
उन्होंने कहा कि जरूरी नहीं कि इस आंदोलन की जितनी माँगें स्वीकार कर ली गई हैं वे सभी पूरी होंगी ही। सरकार लोगों के भूलने का इंतज़ार भी करेगी इसलिए किसान आंदोलन को सतर्क रहने के साथ-साथ सरकार पर दबाव बनाकर भी रखना होगा। खेती के संकट से उबरना है तो खेती और उससे जुड़े लोगों का विकास करना होगा। नकदी फसलों के बजाय खाद्यान्न की फसलों को बढ़ावा देना होगा।
संगोष्ठी के दूसरे सत्र में खेती में दलितों की स्थिति विषय पर चर्चा हुई। भू अधिकार आंदोलन, जबलपुर से इस संगोष्ठी में शामिल हुए राहुल श्रीवास्तव जिन्होंने प्रदेश में दलितों को वितरित की गई जोत की जमीन के मुद्दे पर शोध किया है, ने बताया कि प्रदेश में ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं। विकास का हवाला देते हुए किसानों की जमीनें छीन ली गई हैं। ग्राम सभा की कार्यप्रणाली, उसके अधिकारों और निर्णयों का भी हनन हुआ है। ग्रामसभाएँ केवल नाम के लिए ही बची हैं। जब कोई अधिकार ग्राम सभा के पास नहीं हैं तो उसकी वैधानिकता का क्या मतलब? गाँवों के प्रशासन पर तथाकथित सवर्णों का कब्जा है। बिना उनकी अनुमति पत्ता भी नहीं हिल सकता। हाल में मध्य प्रदेश के सतना जिले में दलित को शमशान घाट में दाह संस्कार तक करने की अनुमति नहीं देने का मामला अखबारों में आया है लेकिन यही स्थिति लगभग पूरे मध्य प्रदेश में है। सारिका श्रीवास्तव ने भोपाल से करीब 70 किलोमीटर दूर परसोरिया तहसील के गाँव में 22 जून 2018 को दलित किसान पर पेट्रोल डालकर ज़िंदा जला डालने की घटना की जानकारी देते हुए बताया कि गांव के यादव समाज के दबंगों ने 60-65 साल के दलित किसान किशोरीलाल जाटव को खेती की जमीन के विवाद पर उसकी पत्नी के सामने ही पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया। घटना की सच्चाई का पता करने 30 जून 2018 को दिल्ली, इन्दौर एवं भोपाल से पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं किसान नेताओं की स्वतंत्र टीम पीड़ित परिवार की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने गई जिसमें विनीत तिवारी, अजय सहारे, प्रह्लाद बैरागी और अन्य चार लोगों के साथ सारिका श्रीवास्तव भी शामिल थीं।
जाँच में पता चला कि परिवार के मुखिया की मौत से पूरा परिवार अत्यंत दुख और भय की स्थिति में था। घर की महिलायें बार-बार यह बात दोहराती नज़र आईं कि जमीन की बात पर झगड़े पहले भी हुआ करते थे, जिसमें दबंगों द्वारा हम गरीबों को खेती करने से रोकना, डराना, धमकाया, जातिगत गालियां देकर प्रताड़ित करने की घटनाएं तो बहुत होती थीं, लेकिन हमें नही मालूम था कि लोग इतनी निर्दयता पर उतर आयेंगें और एक इंसान को इस तरह सरेआम जिंदा जलाकर मार डालेंगें। दरअसल सन 2000 में कांग्रेस की दिग्विजय सरकार द्वारा गाँव की चरनोई जमीन को 7% से 5% और सन 2002 में 5% से 2% कर दिया गया और इस तरह मुक्त हुई जमीन को दलित एजेण्डे के तहत ग्रामीण दलित परिवारों को वितरित किया गया। और सवर्णों-दबंगो एवं दलितों के मध्य विवाद यहीं से ही शुरू हुआ। क्योंकि गाँवों में इस चरनोई की सरकारी जमीन पर पहले से ही सवर्ण एवं दबंग कब्जा किये थे और जोत रहे थे। बैरसिया तहसील के दलित किसान किशोरी लाल और यादव के बीच भी यह विवाद सन 2002 में तब से ही चल रहा है जब यह साढ़े तीन एकड़ जमीन का टुकड़ा इस योजना के तहत किशोरीलाल को दे दिया गया। तब से ही यादव जिसकी जमीन किशोरीलाल की जमीन से बिल्कुल लगी हुई है हर फसल में इस दलित परिवार को प्रताड़ित किया करता था। करीब दो वर्ष पहले प्रधानमंत्री योजना के तहत इस जमीन से लगकर पक्की सड़क बन जाने से जमीन की कीमत बढ़ गई और इसके साथ ही यादव द्वारा किशोरीलाल को प्रताड़ित करने की प्रक्रिया कठोर होने के साथ-साथ बढ़ गईं। पिछले वर्ष किशोरीलाल द्वारा बैरसिया थाने और वहाँ सुनवाई न होने पर भोपाल के हरिजन थाने में भी रिपोर्ट दर्ज करवाई जिसकी कोई सुनवाई नहीं हुई और न ही कोई प्रक्रिया आगे बढ़ी। चूँकि आरोपी सत्तारूढ़ पार्टी के पिछडे वर्ग का सचिव है सो उस पूरे क्षेत्र में उसका दबदबा होना जाहिर है।
किसान सभा मध्य प्रदेश के प्रदेश महासचिव कॉमरेड प्रहलाद सिंह बैरागी ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस मुल्क में कितने ही अकाल पड़े, सूखा, अतिवृष्टि और मौसम के साथ-साथ शोषण की मार भी पड़ी लेकिन किसानों ने आत्महत्याएँ कभी नहीं कीं। वही अन्नदाता जो सबको अनाज देते हैं आज कर्ज के बोझ से दबे अपनी जीवनलीला खुद ही खत्म करने पर मजबूर हो गए हैं। भावन्तर योजना के नाम पर किसानों को लूटा जा रहा है। सरकार आयात दुगुनी कीमत पर लाता है लेकिन किसानों को उचित मूल्य नहीं दे रही। जितनी भी योजनाएँ बन रही हैं उनमें किसानों के हित को नजरअंदाज किया जा रहा है।
संगोष्ठी के तीसरे सत्र में खेती में आदिवासियों की स्थिति विषय पर परिचर्चा में नर्मदा बचाओ आंदोलन मुकेश भदौरिया ने कहा कि आदिवासियों को जमीन देने के बजाए उनसे जमीन छीनी जा रही है। यदि कभी-किसी आदिवासी को जमीन दी भी तो वो पथरीली, बंजर या विवादास्पद होती है। सरदार सरोवर बाँध में भयंकर भ्रष्टाचार हुआ। पुनर्वास एवं मुआवजे की लड़ाई आज तक जारी है। मंदसौर के हरनाम सिंह चंदवानी ने मदसौर में पिछले वर्ष फूटे किसान असंतोष का विवरण दिया और सरकार की खेती के बारे में दोषपूर्ण नीति को तथा अफ़ीम के डोडा चूरा के मूल्य निर्धारण न करने को ज़िम्मेदार ठहराया।
आदिवासी महासभा बड़वानी के प्रदेश महासचिव सुखलाल गोरे ने बताया कि आदिवासी महासभा के नेतृत्व में जमीन, खेती व उसमें आने वाली समस्याओं के सवाल पर आदिवासी लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारी बोली, भाषा, संस्कृति सब अलग है। जिसे खत्म करने की साजिश चल रही है। हमें हिन्दू बनाने का षड्यंत्र सफल नहीं होगा। जोत की जमीन पर हमारा नाम नहीं है। जंगल से वन कानून के नाम पर हमें बेदखल कर दिया गया है। रोजगार व जीविकोपार्जन हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है। खेती पर छाए संकट में हमें साथ मिलकर कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना होगा।
आदिवासी मुक्ति संगठन के सक्रिय एवं वरिष्ठ साथी गजानंद भाई ने बताया कि छल-कपट से हमारी जमीनें छीन लीं गईं। हमारे संगठन ने बहुत संघर्ष किया और बहुत मामलों में जमीनें वापस हासिल करने में कामयाब भी हुए। सन 2006 से लागू किए गए वन अधिकार कानून का पालन नहीं हो रहा। ग्राम सभा को हत्या व डकैती के अलावा सारे प्रकरणों में निर्णय के अधिकार प्राप्त हैं लेकिन केवल नाम के लिए। लोग खेती और गाँव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
हाल में जैविक खेती करना शुरू करने वाली सुभद्रा खापर्डे ने बताया कि हर तरह का खाया जाने वाला अनाज मुख्यतः घास की विभिन्न प्रजाति के बीज ही हैं जिन्हें उगाना, संग्रहण करना महिलाओं ने शुरू किया। और जब उससे आर्थिक लाभ मिलने लगा तो खेती महिलाओं के हक से दूर कर दी गई। आज भी बखरनी से लेकर कटाई तक का काम महिलाएँ ही करती हैं लेकिन बाजार ले जाकर बेचने और पैसे रखने का अधिकार पुरुषों के पास है। जहाँ मातृ प्रधान समाज है वहाँ भी निर्णय करने का अधिकार पुरुषों के पास ही हैं। सुभद्रा ने बताया कि अभी कुछ वर्ष पहले ही उन्होंने 3-4 बीघा खेत की जमीन खरीदी है। जिस पर छोटे अनाज जैसे कोदों, कुटकी, रागी इत्यादि उगाती हैं। देशी बीजों का संग्रहण भी कर रही हैं। सुभद्रा ने कहा कि रसायनिक खाद से फसल बिगड़ रही है, जमीन के पौष्टिक तत्व नष्ट हो रहे हैं, गुणवत्ता खत्म हो रही है। हमें वैकल्पिक खेती की ओर विचार करना चाहिए। सुभद्रा की ही तरह ही राजेंद्र सिंह जी भी खेती के विषय पर कार्यशाला की जानकारी प्राप्त करके इसमें शामिल हुए थे। उन्होंने अपनी बात रखते हुए बताया कि उन्होंने सरकारी नोकरी छोड़कर इंदौर के समीप जमीन खरीदकर परिवार सहित जैविक खेती करना शुरू किया है। उनका मानना है कि देशी खाद और देशी बीज का प्रयोग करके खेती को कम लागत और मुनाफे लायक बनाया जा सकता है।
जया मेहता ने संगोष्ठी में दिनभर खेती और उससे जुड़े संकट पर हुई चर्चाओं को समेटते हुए कहा कि खेती का संकट पूरी अर्थव्यवस्था को अपने दायरे में ले चुका है। हमारे देश में आबादी अधिक है और ज़मीन उस तुलना में काफी कम। उस पर भी ज़मीन हमारे देश में बहुत आसमान आधार पर बँटी हुई है। हमें जोत की खासकर छोटी जोत की जमीन को बचाने के लिए उन्हें संकट से उबारना होगा। और इस संकट से उबरने के लिए साझा खेती से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता। जिन आदिवासी और दलित बहुल गाँवों से लोग पलायन कर गए हैं हमें उन गाँवों को चिन्हित कर उनसे संपर्क करना चाहिए।
जया मेहता की बात को आगे बढ़ाते हुए विनीत तिवारी ने बताया कि महाराष्ट्र में कुछ जगहों पर अनार की खेती में इस तरह की साझा खेती के प्रयोग हमारी जानकारी में आये हैं। महाराष्ट्र में ही वन अधिकार क़ानून आने के बाद गढ़चिरौली में बाँस और अन्य लघु वनोपज पर आदिवासियों को हक़ मिल गया है। वहाँ भी लोग साझा खेती का प्रयोग करना चाहते हैं । इसके अलावा खेती से होने वाली आमदनी का खर्च किस प्रकार हो, इस पर भी की सामूहिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए। तमिलनाडु द्वारा केमिकल युक्त सब्जियों की आवक से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए केरल की राज्य सरकार द्वारा ऑर्गनिक खेती को बढ़ावा दिया गया। घर-घर में किचन गार्डन को बढ़ावा देने राज्य सरकार द्वारा मुफ्त में सब्जियों के पौधे घर-घर में वितरित किए गए। बिहार में बिलकुल निचले स्तर तक प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसाइटी (पैक्स) का जाल गाँव – गाँव तक फैला है लेकिन वो पूरी तरह सत्ता द्वारा काबिज किया जाकर भ्रष्ट किया जा चुका है। लोग इस भ्रष्टाचार से परेशान हैं और कृषि सहकारिता के क्षेत्र को भ्रष्टाचारमुक्त बनाना भी एक आंदोलन की ही एक ज़िम्मेदारी है। अशोकनगर से आये ग्रामीण पत्रकारिता करने के उत्सुक मृगेंद्र सिंह ने अचरज व्यक्त किया कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया या सरकारें देश के इन बहुसंख्यक लोगों की ज़िंदगी से जुड़े मुद्दों पर क्यों नहीं बात करते हैं, क्यों इनका हल नहीं निकालते। संगोष्ठी में कर्नाटक से आये किसान संकट के अध्येता लिंगू पाटिल, ग्राम सेवा समिति, निताया, होशंगाबाद से नरेन्द्र चौधरी, बड़वानी से महिला फेडरेशन की राज्य उपाध्यक्ष ज्योति गोरे, महिला फेडरेशन की इंदौर सचिव नेहा दुबे, एटक के रुद्रपाल यादव, भू अधिकार आंदोलन, भोपाल के अजय सहारे और सतना से सुरेंद्र दहिया आदि ने भी शिरकत की।
सभागृह में किसानों तथा विस्थापन के खिलाफ संघर्ष को बयां करतीं राजस्थान, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, दिल्ली और अन्य जगहों के करीब 70 पोस्टर प्रदर्शित किये गए । कार्यक्रम के संयोजक विनीत तिवारी ने बताया की ऐसे आपसी संवाद आगे भी जारी रखे जायेंगे। यह एक शुरुवात है कृषि और कृषि से जुड़े हर समुदाय की समस्याओं को जानने समझने और उनके हल की तरफ बढ़ने की। स्थानीय तौर पर कार्यक्रम का संयोजन सारिका श्रीवास्तव ने किया।