सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी.लोकुर ने यूपी में कथित लव जिहाद को रोकने के लिए लाये गये अध्यादेश और तमाम राज्यों में बनाये जा रहे इस तरह के क़ानूनों को असंवैधानिक बताया है। उन्होंने कहा कि ऐसे क़ानूनों को ज़रिये ‘सुप्रीम कोर्ट की ओर से बहुत ही सावधानी से निर्मित गरिमा के न्यायशास्त्र का हाथरस जैसा अंतिम संस्कार किया जा रहा है।’
29 नवंबर को 29 नवंबर को न्यायपालिका और सामाजिक न्याय, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता– मानव अधिकार और भय “ विषय पर आयोजित सातवें सुनील मेमोरियाल भाषण को संबोधित करते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा कि यूपी में लव जिहाद को लेकर पारित अध्यादेश दुर्भाग्यपूर्ण है और यह चुनने की आज़ादी, गरिमा और मानवाधिकारों की अनदेखी करता है। दो धर्म के लोगों की शादी के लिए अलग से क़ानूनी प्रावधान बनाने और अड़चनें खड़ी करने वाला ये क़ानून व्यक्तिगत आज़ादी और गरिमा के ख़िलाफ़ है।
जस्टिस लोकुर ने कहा, “हालांकि ‘लव जिहाद‘ की कोई परिभाषा नहीं है। एक मुख्यमंत्री ने परिभाषित किया था कि जिहादी असली नाम और पहचान छिपाकर हमारी बहनों और बेटियों के सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ खेल रहे हैं। एक अन्य मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा था कि अगर ये जिहादी अपने रास्ते नहीं बदलते हैं, तो यह उनकी कब्र की यात्रा की शुरुआत होगी। क्या इस संभवित मौत की सजा को पहले से ही संविधान या कानून के तहत मंजूर मिल चुकी है? यह मॉब लिंचिंग की प्रवृत्ति का पुनरुत्थान प्रतीत होता है? … पसंद की आजदी के बारे में क्या? .. बाल विवाह के खिलाफ जंग की घोषणा क्यों नहीं की, जोकि परिभाषा अनुसार भी जबरिया विवाह है?”
जस्टिस लोकुर ने 2018 में सामने आये चर्चित हादिया मामले का ज़िक्र भी किया। उन्होंने कहा कि उस फ़ैसले में साफ़ कहा गया था कि एक महिला अपनी मर्ज़ी से धर्म परिवर्तन कर सकती है और अपने पसंद के व्यक्ति से शादी कर सकती है। लव जिहाद का़नून सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी करता है।
ग़ौरतलब है कि यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने हाल ही में उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश-2020 पास किया है जिसे राज्यपाल आनंदी पटेल ने भी मंज़ूरी दे दी है। इसके तहत शादी के लिए धर्म परिवर्तन पर सज़ा का प्रावधान है। धर्म परिवर्तन के लिए दो महीने पहले जिलाधिकारे के पास आवेदन देना पड़ेगा और मंज़ूरी मिलने पर ही शादी हो सकेगी। आरोप लगने पर निर्दोष साबित करने का दायित्व उसका होगा जिस पर आरोप लगा है।
जस्टिस लोकुर ने कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मसले पर भारत का सुप्रीम कोर्ट एक लंबी यात्रा कर चुका है लेकिन अब अदालतें इसे उलटी दिशा में ले जा रही हैं। जस्टिस लोकुर ने पत्रकार सिद्धिक कप्पन के मामले का उदाहरण दिया जिन्हें तब गिरफ्तार किया गया, जब वह हथरस के दलित लड़की के बलात्कार और हत्या के मामले को कवर करने जा रहे थे। उन्हें सीआरपीसी की धारा 107 और 151 के तहत, शांति भंग करने की आशंका, सार्वजनिक शांति भंग करने और संज्ञेय अपराध करने के आरोप में हिरासत में लिया गया था। जस्टिस लोकुर ने कहा “आदर्श रूप से उसे तुरंत अच्छे व्यवहार का एक व्यक्तिगत बांड भरने के बाद रिहा किया जाना चाहिए था। लेकिन सीआरपीसी की धारा 111 और 115 के सुरक्षा उपायों का पालन नहीं किया गया … उसे एक वकील से सलाह लेने का समय नहीं दिया गया, और फिर उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।”
जस्टिस लोकुर ने पत्रकार को अपने वकील से मिलने की अनुमति न देने के सीजेएम के आदेश और जेल अधिकारियों द्वारा व्यक्त की गई असहायता को बुनियादी मानवाधिकारों और कानून के शासन का उल्लंघन बताया। उन्होंने कहा, ‘सीजेएम ने एक गुप्त आदेश पारित किया जिसमें कहा गया कि ऐसा कोई आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित नहीं किया गया है और आवेदन के साथ संलग्न वकील के पास कोई शक्ति नहीं है और इसलिए, आवेदन खारिज किया जाता है। देखिए, मजिस्ट्रेट ने असंभव स्थिति बनाई और जेल के अधिकारियों की तुलना में न्याय तक पहुंच से इनकार करने में और आगे बढ़े गए।”
उन्होंने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका और भारत ने सामाजिक न्याय, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए बहुत योगदान दिया है, लेकिन कुछ विचारों को अब पीछे छोड़ा जा रहा है और अब समय है कि इन पहलुओं पर फिर से ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जाए।