काश ‘आज तक’ अपने पत्रकार की मौत पर भी इतना संजीदा हो पाता!
विनीत कुमार
हल्दी पीली साड़ी में, नाक पर से दकदक लाल सिंदूर लगाए श्वेता सिंह की फुटेज से जब मैं गुजर रहा था तो अंधा युग (धर्मवीर भारती) की ये पंक्ति बार-बार याद आ जा रही थी-
आस्था लेते हो तुम तो
अनास्था लेगा कौन ?
श्वेता सिंह के बिहारी होने, छठ पूजा में आस्था रखते हुए, उनकी आस्था की मार्केटिंग करते हुए (जाहिर है ये सब उनकी इच्छा से हो रहा होगा और कल को वो आजतक से छिटककर बिहार आजतक पर शिफ्ट कर दी जाएं) देखा तो मुझे एक बार फिर सौम्या विश्वनाथन का चेहरा याद आ गया. उसकी मौत के घंटों बाद चैनल की चुप्पी याद आ गयी.
इन दिनों मैं कारोबारी मीडिया की वेबसाइट पर देखता हूं कि ऑफिस के भीतर की तस्वीरें मीडियाकर्मी अपनी पर्सनल टाइमलाइन पर साझा करते हैं. उनकी ऑफिस में दीवाली कैसे मनायी गयी ? न्यूजरूम में कैसे मीडियाकर्मियों ने आपस में डांडिया खेला. इन तस्वीरों को देखकर लगता है कि मीडिया की दुनिया कितनी सुंदर है, सबकुछ कितना चटख है और इन मीडियाकर्मियों को इस बात की कितनी आजादी है कि वो जो चाहें साझा कर सकते हैं? लेकिन इसी न्यूजरूम में क्षेत्र विशेष के साथ, जाति विशेष के साथ, संप्रदाय विशेष के साथ जो भेदभाव होते हैं, उसकी कोई तस्वीर आप तक आ पाती है? डेस्क पर सिर टिकाकर रोती हुई एंकर की कोई तस्वीर इनकी टाइमलाइन पर दिखती है? असाइनमेंट डेस्क के कोने में सुबक रहे किसी मीडियाकर्मी की तस्वीर किसी ने अपडेट की है?
मुझे इस बात से कोई दिक्कत नहीं है कि मीडियाकर्मी खुद अपनी इच्छा से अपनी निजी तस्वीरें, मान्यताएं और धार्मिक आस्था को अपनी नौकरी को गाढ़ा करने के लिए अपने संस्थान को अपने अनुसार इस्तेमाल करने की इजाजत दे रहे हैं. जब दोनों आपस में राजी हैं तो हम बीच में बोलनेवाले कौन होते हैं ? लेकिन एक दर्शक के तौर पर हमारे दिमाग में तो ये सवाल हर बार रहता ही है कि जिस एंकर को हमने अभी तक बिहारी, बंगाली, उड़िया के तौर पर नहीं देखा, उसे एक ट्रांसनेशनल चैनल की एंकर के तौर पर देखा, जिस मीडियाकर्मी से हमने भेदभाव के कई किस्से सुने, उन्हें आप अचानक एक खास पहचान के साथ पेश करके चाहोगे कि हम भी उन्हें उसी रूप में देखने लग जाएं तो फिर चैनल में तो हम कश्मीरी चेहरे भी खोजेंगे. हम चाहेंगे कि ईद में कोई मुस्लिम एंकर जाली टोपी और चेकवाले गमछे के साथ भी नजर आए. तब हम क्या-क्या सोचेंगे, उसकी कोई सीमा नहीं होगी और हमारा यह सोचना किस हद तक जाकर एक घिनौनी तस्वीर पेश करेगा, इसका आकलन एक दर्शक खुद भी नहीं कर सकता.
सालों से चैनल तीज-त्यौहारों, क्रिकेट, ओलंपिक के समय अपने एंकर को फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता के प्रतिभागी के तौर पर पेश करते रहे और उन्हें इस हालत में नमूना लगते रहने के बावजूद हम पचाते रहे. इससे प्रोफेशनलिज्म की ऐसी-तैसी होती रही, हम सहते रहे. लेकिन ये जो ट्रेंड शुरू हुआ है, वो बेहद खतरनाक और छिछला है. आप बिहार आजतक शुरू कर रहे हो, बिहारी एंकर उतार दो लेकिन कश्मीर आजतक नहीं उतारोगे तो कश्मीरी एंकर कभी स्क्रीन पर नहीं होगा. नार्थ-इस्ट के चेहरे कभी नहीं होंगे..तो फिर आपका राष्ट्रवाद? आप में इतना माद्दा है कि देश के सारे राज्यों के नाम से चैनल शुरू करो? नहीं न..तो सोचो कि आपके धंधे में भारत का नक्शा फिर कैसा दिखेगा?
कोई चैनल क्या खबर दिखाए और क्या नहीं, ये उसकी बैलेंस शीट और सत्ता की सुविधा तय करती है लेकिन जब आप मीडियाकर्मी की निजी जिंदगी को भुनाने मैंदान में उतरते हो तो फिर तो एक समय बाद इस निजी के रेशे बहुत दूर तक खींचेगे. हम कामना करते हैं कि इन महत्त्वाकांक्षी मीडियाकर्मियों को ऐसे वक्त भरपूर हिम्मत और साहस दे.
लेखक चर्चित मीडिया शिक्षक और विश्लेषक हैं।