उत्तर प्रदेश में भीड़ की हिंसा की बढ़ती घटनाओ को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिलकुल भी चितित नहीं है। उन्होंने बुलंदशहर में भीड़ की हिंसा के शिकार हुए शहीद इंस्पेक्टर सुबोध सिंह के परिजनों से भी अब तक मुलाकात करना ज़रूरी नहीं समझा और न ही इस विषय पर कोई बयान ही दिया। हद तो ये है कि 4 दिसंबर को कानून व्यवस्था की समीक्षा के लिए बुलाई गई बैठक में सारा जोर सिर्फ गोकशी रोकने पर ही रहा।
एक पुलिस इंस्पेक्टर की सरेआम हत्या कोई सामान्य बात नहीं है। इससे सरकार के इकबाल का पता चलता है। लेकिन न तो योगी आदित्यनाथ ने शहीद इंस्पेक्टर के परिजनों से बात की और न श्रद्धांजलि देने पहुँचे जबकि इस बीच उन्होंने चुनावी भाषण भी दिया और लाइट एंड साउंड प्रोग्राम देखने का वक्त भी निकाल लिया। हद तो यह कि 4 दिसंबर को पत्र सूचना कार्यालय द्वारा भेजी गई विज्ञप्ति में जिस बैठक का हवाला दिया गया है, उसमें शहीद इंस्पेक्टर के मारे जाने का कोई जिक्र ही नहीं है। हाँँ, इसी घटना में मारे गए सुमित नाम के नौजवान के परिजनों को दस लाख रुपये मुख्यमंत्री राहत कोष से देने का ऐलान जरूर किया गया है।
ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या भीड़ की हिंसा को योगी आदित्यनाथ कोई चुनौती नहीं मानते। क्या ये संयोग है कि इंस्पेक्टर की हत्या में नामजद लोग आरएसएस विचार परिवार के संगठनों के पदाधिकारी हैं? मुख्य आरोपी योगेश राज तो बजरंगदल का जिला संयोजक ही है। बाकी का रिश्ता भी बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद से है।
वैसे, इन लोगों की भाषा वैसी ही है जिसके लिए खुद योगी आदित्यनाथ जाने जाते रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कोई खास फर्क नहीं दिखता है। गोमांस को नरमांस से अधिक महत्व देने की यह राजनीति न सिर्फ यूपी पर, बल्कि पूरे देश पर भारी पड़ेगी।