मशहूर फ़िल्मकार और अभिनेता कमल हासन ने प्रधानमंत्री मोदी को एक खुला पत्र जारी किया है। इसमें उन्होंने लॉकडाउन से पैदा हुई परेशानियों के लिए सीधे सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है। उन्होंने कहा है कि यह नोटबंदी जैसा बिना सोचे-समझे किया गया फ़ैसला है जो ग़रीबों को तबाह कर देगा। कमल हासन ने कहा है कि मोदी जी पर उन्होने भरोसा किया था लेकिन वक्त ने उन्हें ग़लत साबित किया है। यह पत्र अंग्रेज़ी में आप यहाँ पढ़ सकते हैं जबकि मीडिया विजिल के पाठकों के लिए हिंदी में इसका अविकल अनुवाद नीचे पेश किया जा रहा है।
सेवा में,
माननीय प्रधानमंत्री जी,
भारतीय गणराज्य
महोदय,
मैं यह चिट्ठी देश के एक ज़िम्मेदार, लेकिन हताश नागरिक के तौर पर लिख रहा हूं. 23 मार्च के दिन आपको लिखी अपनी पहली चिट्ठी में मैंने सरकार से यह अपील की थी कि वह हमारे समाज के भुला दिये गये नायकों, दलितों, गरीबों और आश्रितों की दुर्दशा को नज़रंदाज़ न करे. ठीक अगले ही दिन देश में लगभग नोटबंदी की तर्ज़ पर ही सख्त लॉकडाउन की घोषणा हुई. इस फैसले से मैं चकित हुआ, पर मैंने आप पर, मेरे चुने हुए नेता पर विश्वास किया, जिसके बारे में हम मानते हैं कि वह सर्वाधिक जानकार है. मैंने आप पर नोटबंदी के समय भी भरोसा जताया था, लेकिन वक़्त ने मुझे गलत साबित किया. वक़्त ने बताया था कि आप भी गलत थे सर.
सबसे पहले मैं आपको बता देना चाहता हूं कि आप अब भी देश के द्वारा चुने गये नेता हैं और मुझ सहित देश की 140 करोड़ आबादी इस संकट के समय में आपके दिये हर दिशा-निर्देश का पालन करेगी. वर्तमान में, शायद पूरी दुनिया में आपके जितनी लोकप्रियता किसी अन्य लीडर की नहीं है. आप बोलते हैं और लोग अनुसरण करते हैं. आज संकट के मौके पर सारा देश एकजुट होकर खड़ा है और आप पर सबने अपना विश्वास टिकाया है. आपने गौर किया होगा कि जब आपने देश के लिए बिना थके व निःस्वार्थ भाव से कम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए तालियां बजाने की अपील की थी, तब आपके विरोधियों ने भी तालियां बजायी थीं. हम आपकी इच्छाओं और आदेशों का पालन करेंगे, लेकिन हमारे अनुपालन को हमारी पराजय न समझा जाये. अपने लोगों का प्रतिनिधि होने के नाते मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं आपके सामने अपनी बात और अपने सवाल रखूं. अगर आपको मेरे शिष्टाचार में कोई कमी नज़र आये तो मुझे माफ़ करियेगा.
मेरा सबसे बड़ा डर है कि नोटबंदी वाली गलती एक बार फिर दोहराई जा रही है, वह भी और बड़े पैमाने पर. नोटबंदी ने गरीब की बची-खुची कमाई और उसका रोज़गार छीन लिया था, और अब बिना तैयारी के किया गया यह लॉकडाउन जीवन और रोज़गार दोनों को छीन लेगा. गरीबों का आपके सिवा कोई और नहीं है सर. एक तरफ़ आप विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को रौशनी का तमाशा करने को कह रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ गरीब आदमी की दशा खुद में ही एक तमाशा बन रही है. जब आपकी दुनिया दियों में तेल डालकर अपनी बालकनी में रौशनी करती है, उसी वक़्त कोई गरीब खाना बनाने के लिए पर्याप्त तेल जुटाने के संघर्ष में लगा होता है. आपके आख़िरी दोनों राष्ट्र के नाम संदेशों में आप लोगों को निश्चिंत करना चाहते थे, जो इस वक़्त करना ज़रूरी भी है; लेकिन एक इससे भी अधिक आवश्यक और इतना ही ज़रूरी काम रह जाता है. यह मनोचिकित्सकीय तकनीकें अमीर देशों के लोगों की चिंताओं को दूर कर सकती हैं, जिनके पास जयकारा लगाने के लिए अपनी बालकनी है. लेकिन उनका क्या जिनके पास अपनी छत तक नहीं है? मुझे विश्वास है कि आप हमारे समाज के सबसे बड़े हिस्से, जो हमारी व्यवस्था के असली सहारा हैं और वह नींव हैं जिस पर समूचा मिडिलक्लास, खुशहाल और अमीर अपनी ज़िंदगी खड़ी करते हैं, यानी गरीबों को नज़रअंदाज़ करके एक ‘बालकनी वाली सरकार’ नहीं बनना चाहेंगे जो सिर्फ़ ‘बालकनी वाले लोगों’ के लिए होगी. गरीब कभी अख़बार के पहले पन्ने की ख़बरों में जगह नहीं बनाता, लेकिन देश-निर्माण की उसकी भावना और जीडीपी में उसके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती है. वह इस देश का बहुसंख्यक है. इतिहास इस बात की गवाही देता है कि नींव को ध्वस्त करने की कोशिशें ऊपरी माले को भी ढहा देती हैं. विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है!
यह ऐसा पहला संकट, पहली महामारी है जिसे समाज के उच्च वर्ग ने गरीबों पर थोपा है. लेकिन, दुखद बात यह है कि आपका ध्यान गरीबों को ही छोड़कर सबको बचाने में लगा हुआ है. लाखों दिहाड़ी मज़दूर, घर के सहायक, स्ट्रीट-वेंडर, ऑटो-रिक्शा चलाने वाले, टैक्सी ड्राइवर और असहाय प्रवासी मज़दूर अंधी गुफ़ा में ढकेल दिये गये हैं, और हम पहले से ही बेहतर स्थिति में खड़े मिडिलक्लास के किले बचा रहे हैं. मुझे गलत मत समझियेगा सर, मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कह रहा कि हम मिडिलक्लास या किसी अन्य वर्ग को उपेक्षित करें. बल्कि, मैं इससे ठीक उल्टी बात सुझा रहा हूं. मैं आपको सभी की सुरक्षा के लिए प्रयासरत देखना चाहता हूं और चाहता हूं कि आप सुनिश्चित करें कि देश में कोई भी भूखे पेट न सोये. कोविड-19 के मरीज़ तो सामने आते रहेंगे, पर हम गरीब को भूख, थकावट और अभाव के मुंह में झोंक रहे हैं. अर्थव्यवस्था के सामने अलग चुनौतियां (एचईडी) खड़ी हैं अभी, जो फिलहाल कोविड-19 की तुलना में कम घातक नज़र आ रही हैं. लेकिन इनका असर कोविड-19 के ख़त्म हो जाने के बहुत बाद तक भी महसूस किया जायेगा.
हर बार जब भी ऐसा लगता है कि हम गिरावट को रोक सकते हैं, आप अपनी सुविधा-क्षेत्र के भीतर का चिरपरिचित चुनावी कैंपेन के अंदाज़ का कोई विचार लाते हैं. ऐसा लगता है कि आप व्यवहारिकता की सारी ज़िम्मेदारी आम लोगों के ऊपर और पारदर्शिता का ठेका राज्य सरकारों पर छोड़कर खुश हो जाते हैं. भारत के वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने में लगे बौद्धिकों के बीच आपको लेकर कुछ ऐसा ही ग्रहणबोध तैयार हुआ है. बौद्धिक शब्द का इस्तेमाल करके अगर मैंने आपको ठेस पहुंचाई हो तो मुझे माफ़ कीजियेगा, मुझे मालूम है कि आपको और आपकी सरकार को यह शब्द पसंद नहीं है. लेकिन मैं पेरियार और गांधी का अनुयायी हूं और ये दोनों भी पहले एक बौद्धिक ही थे. हमारी बुद्धि ही हमें सच्चाई के रास्ते पर चलना सिखाती है, सभी की समृद्धि और समानता की चाह पैदा करती है.
लोगों में उत्साह भरने में व्यस्त होने की वजह से आपकी सरकार शायद ऐसे कदम नहीं उठा पा रही जिससे वाकई किसी की जान बच सके. महामारी के बीच जब पूरे देश की कानून व्यवस्था दुरुस्त चल रही थी, आपकी व्यवस्था देश के अलग-अलग इलाकों में कुछ मूर्ख लोगों की सभाओं को नहीं रोक सकी. इन्हीं सारी जगहों का अब भारत में महामारी फैलाने में सबसे बड़ा हाथ है. इस लापरवाही की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
चीन सरकार द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को सौंपे गये आधिकारिक बयान के अनुसार पहला कोरोना संक्रमण का मामला 8 दिसंबर को सामने आया था. अगर यह तथ्य भी मान लें कि मामले की गंभीरता समझने में बहुत देर हुई, लेकिन फरवरी के शुरुआती समय तक पूरे विश्व को यह मालूम चल चुका था कि कोरोना का कहर दुनिया पर टूटने वाला है. भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को सामने आया था. हमने इटली का हाल देख लिया था. फिर भी हमने कोई सबक नहीं लिया. जब हम अचानक नींद से जागे, तो आपने 4 घंटे के भीतर 140 करोड़ लोगों के देश को लॉकडाउन करने का आदेश दे दिया. आपके पास 4 महीने पहले से इस महामारी की जानकारी थी, पर आपने लोगों को महज़ 4 घंटे का वक़्त दिया. बड़े लीडर वो होते हैं जो संकट के पास फटकने से पहले ही, उसका निवारण ढूंढ़ने में लग जाते हैं.
ऐसा कहने के लिए मुझे माफ़ कीजियेगा सर, लेकिन इस बार आपसे चूक हो गयी. आपकी सरकार और उसके प्रतिनिधि तो अपनी सारी ऊर्जा आलोचनाओं का मुंहतोड़ जवाब देने में लगाते दिखते हैं. देशहित का भला चाहने वाली विचारशील आवाज़ों पर आपकी ट्रोल आर्मी संगठित होकर योजनाबद्ध तरीके से हमले करती है और उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है.
मैं चुनौती देता हूं कि इस बार कोई मुझे देशद्रोही कहकर दिखाये. इतने बड़े संकट को लेकर निहायत ही ख़राब तैयारी के लिए आम जनता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन आपको इसका ज़िम्मेदार कहा जा सकता है और कहा ही जायेगा. जनता अपना जीवन सामान्य और सुरक्षित बनाये रखने के लिए ही सरकार चुनती है और उसे टैक्स देती है.
इस तरह का संकट इतिहास में दो कारणों से दर्ज़ किया जाता है. पहला कारण है उस संकट की वजह से मची तबाही. दूसरा कारण यह है कि संकट के दीर्घकालिक असर के बाद मनुष्य कौन-सी प्राथमिकताएं नये सिरे से सीखते हैं और इसके बाद वो कौन सा सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना तैयार करते हैं. मैं बहुत दुखी हूं यह देखकर कि हमारा समाज ऐसे प्रकोप का सामना कर रहा है, जो किसी भी अन्य वायरस से कहीं ज़्यादा खतरनाक है और लंबे वक़्त तक हमारे बीच बने रहने वाला है.
सर, यह समय उन आवाज़ों को कान देने का है जो सचमुच देश की चिंता करते हैं. मैं चिंतित हूं. यह वक़्त दीवारों को गिराने का है. आप सबसे अपने साथ खड़ा होने और सहायता करने की अपील कीजिये. भारत की सबसे बड़ी ताक़त हमारी मनुष्यता है और अतीत में हमने इससे भी बड़े संकटों पर विजय पायी है. हम इस संकट को भी धूल चटा देंगे, मगर यह कुछ ऐसे होना चाहिए जो सबको जोड़ने का काम करे और पक्ष चुनने की एक और वजह न बन जाये.
हम नाराज़ हैं, लेकिन अभी-भी आपके साथ खड़े हैं.
जय हिंद!
कमल हासन
अनुवाद- देवेश