ग़ाज़ीपुर: कोरोना संदिग्ध से अपराधियों जैसा सलूक, डॉक्टर से ज़्यादा पुलिस सक्रिय

क़ाज़ी फ़रीद आलम यानी सोनी भाई। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर शहर में स्कूल चलाते हैं और भू-जल संरक्षण को लेकर ख़ासे सक्रिय हैं। क़रीब एक दशक से ज़िले की एक सूखती जा रही नदी के पुनरुद्धार में जुटे हैं। ज़ाहिर है, सामाजिक कार्यकर्ता की पहचान है जो पिछले दिनों एनआरसी को लेकर चले देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के साथ गाज़ीपुर का सुर जोड़ने पर और पुख़्ता हुई। लेकिन प्रशासन की आँख में खटक गये। नतीजा ये है कि हाल ही में उन्हें कोरोना संदिग्ध बताकर प्रशासन ने हिसाब चुकता करने की कोशिश की।

क़ाज़ी फ़रीद आलम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं। वहाँ मुस्लिम बोर्डिंग हाउस में रहते थे। यह छात्रावास उसी अल्फ्रेड पार्क के करीब है जहाँ चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए थे। आज़ाद की तरह मूँछे ऐंठते हुए उनकी प्रतिमा के साथ सोनी भाई की तस्वीर उनके फ़ेसबुक पेज की मुख्य तस्वीर है। ज़ाहिर है, अंदर से इरादा फ़ौलाद है, लेकिन हालात को देखकर ख़ासे दुखी हो जाते हैं। ख़ासतौर पर छोटे शहरों और और क़स्बों में कोरोना को लेकर जिस तरह से संदिग्धों के प्रति प्रशासन का असंवेदनशील रवैया है, वह उन्हें बहुत सालता है। वह ख़ुद इसके शिकार हुए हैं। उनकी आपबीती यूपी की योगी सरकार के रवैये पर तमाम सवाल खड़ा करती है। ख़ासतौर पर यह कि क्या पुलिस के डंडे से कोरोना का मुक़ाबला होगा?..और डॉाक्टर या मेडिकल कोशिशों से ज़्यादा कोरोना को रोकने में पुलिस क्यों सक्रिय नज़र आ रही है? क्या कोरोना संदिग्ध होना अपराध है? नीचे क़ाज़ी फ़रीद आलम का क़लम बोल रहा है, पढ़िये—

मैं आप बीती सुनाता हूं ।

दो अप्रैल की रात लगभग नौ बजे हलक़े के दारोग़ा मय दो हमराही सिपाहियों के मेरे घर के सामने आ धमके। अचानक गेट पर जोर जोर से चिल्लाने और डण्डे पीटने से मै और मेरा छोटा बेटा घर का दरवाजा खोल गेट की तरफ लपके तो गेट बुरी तरह झिझोड़ा जाना बन्द हुआ।

मै घर से निकलकर गेट के पास सोशल डिस्टैंसिंग की सामान्य ऐडवायज़री फ़ालो करते हुए उनके सामने गेट के इस तरफ़ खड़े होकर उनके आने की वजह दरयाफ़्त की । जवाब में उन्होंने बेबुनियाद आरोपों  की झड़ी लगा दी । मसलन् आप 12 मार्च को मरकज़ निजामुद्दीन के इज्तमे में शामिल होने दिल्ली गये थे और वहाँ से 22 मार्च को वापस आए लेकिन आपने अपनी कोरोना जाँच नहीं करायी। इज्तमे में आपके भाई पाकिस्तान से आए थे उनसे आप वहां मिले, वगैरह वगैरह ।

मैंने बड़े सब्र से सब सुना फिर एक एक कर मय सुबूत उनके इल्ज़ामात का काट पेश किया तब कुछ वो ढीले पड़े। मेरा तर्क था कि जब मैं अट्ठारह की शाम ग़ाज़ीपुर पहुंच चुका था और तब से आजतक चौदह दिन हो चुके और अबतक किसी किस्म का कोई लक्षण प्रकट नही है, तो अब जांच कराने का क्या औचित्य? दूसरे ये कि क्या यहां कोरोना की जांच की समुचित व्यवस्था भी है?

दारोग़ा जी का जवाब था कि जिला चिकित्सालय में बहुत अच्छी व्यवस्था है, सुबह जाकर जांच करा आइये वरना आपके खिलाफ महामारी ऐक्ट के तहत कार्रवाई होगी। इस बीच सड़क की दोहरी पट्टी चबूतरे पर तमाशबीनों का ख़ासा मजमा लग रहा। दरोगा जी के सामने ही कन्धे मे कन्धा धंसाए तमाशबीन सोशल डिस्टैंसिंग की बख़िया उधेड़ रहे थे। बहस मुबाहसे का ख़ात्मा कोरोना जांच कराके स्वयं और परिवार को सुरक्षित करा लेने की बात पर हुआ।

अब सुबह मै सदर अस्पताल गाजीपुर पहुंचा। ए-4 साइज के जगह जगह चस्पा कोरोना वार्ड पढ़ते हुए और फर्श पर कोरोना मरीजों के लिये खींचे गये तीर के निशान का पीछा करते पहली मंज़िल पर बनाए गए कोरोना वार्ड पहुंचा। जांच अमले के तौर पर सिवाय दो के तीसरा नहीं था। वार्ड के बाहरी दरवाजे तक ही मरीज की रसाई थी। दरवाज़े का शीशा निकाल दिया गया था और बाद एक आठ फुट चौड़ी गैलरी के एक कमरा था जिसमें दो नफ़री जांच अमला सिकुड़ा सिमटा यूँ बैठा था जैसे बाज़ से भयभीत कबूतर।

उन्होंने  कमरे के भीतर ही से चिल्ला कर मेरा नाम, वल्दियत, उम्र और पता नोट किया और आने की वजह भी। फिर दो मे से एक, दूसरे के ठुनकियाने से उठा और दो फीट दूर से थर्मल स्क्रीनिंग कर चिल्ला कर मेरा तापमान 95 बताया। अंदर बैठी महिला ने एक पर्ची पर कलम घिस कर पहले वाले आदमी के ज़रिये बाहर भिजवाया जिसे उस कर्मचारी ने अछूत सा बर्ताव करते हुए दरवाजे के टूटे कांच वाले दिल्हे पर रख दिया। मैने खामोशी से रूक्का उठाया और जांच सुविधा पर अफसोस के आँसू टपकाता घर लौट आया, इस विश्वास के साथ कि कोरोना के खिलाफ जंग पुलिस व मीडिया हमें ज़रूर जिता देंगे।

शाम को दरोगा जी फिर हाजिर। टेस्ट के मुताल्लिक़ कड़क सवाल?  जवाब में अस्पताल वाली मुहर लगी जांच रिपोर्ट के नाम पर चिन्दी पकड़ा दी। दरोगा जी ने फिर ताज्जुब से पूछा कि उस पर क्वारंटीन के लिए नही लिखा। मै खामोश खड़ा रहा और वे मेडिकल ऑफिसर की शान में मुंह मे कुछ बड़बड़ाते चले गये ।

दूसरी बानगी:

लॉकडाउन का पालन करते हुए मैं मॉर्निंग वॉक छत पर ही कर लेता हूं। सीएए, एनआरसी पर सरकार की खिलाफवर्जी के कारण हलक़े के दरोगा जी की निगाह भी मुझपर टेढ़ी है। अनेक बार वो मेरे साथ ऐसे ही बदतमीजी से पेश आ चुके हैं, ख़ैर अब तो उनके हाथ क्वारंटीन की आड़ में किसी अज्ञात स्थान पर मुझे हब्स कर देने का अधिकार भी है ।

सुबह सुबह सड़क पर किसी महिला के विलाप ने सन्नाटा तोड़ा। मैं उत्सुकतावश सड़क की ओर इस आशा में ताकने लगा कि कोई दिखे तो माजरा जानूं। एक महिला बदहवासी मे साड़ी-पल्लू से बेखबर, छोटा सा मोबाइल मुट्ठी मे जकड़े, रोते धोते पश्चिम की ओर बकटुट भागी जा रही थी।

अरे! ये तो प्रह्लाद पासवान की पतोहू है! मैं पहचान गया। वह मेरे पड़ोस की ही महिला थी। उसे आवाज भी दिया लेकिन बदहवासी उसे सुनने दे तब न !

दिल तरह तरह की आशंकाओं से घिर गया। मन की छटपटाहट बढ़ गयी कि किस से पूछूँ कि माजरा क्या  है! तभी श्मशान घाट पर शवों की फोटो खींचने वाले एक परिचित का गुज़र हुआ। मैने उसी से पूछ लिया। उसने मन पर बढ़ रहे बोझ की गिरह ढीली की , बताया कि उस महिला का पति भी उसी का हमपेशा है और यह कि उसके पति को सूखी खांसी आ रही है और खांसते-खांसते हल्का खून भी। महिला ने हॉस्पिटल इमर्जेंसी में कोरोना के शक में फोन मिलाया था, लेकिन ऐम्बुलैंस के बजाए पुलिस की गाड़ी उसके पति को उठा ले गयी। उसे समझ नही आ रहा था कि पुलिस क्यों आयी! पति की अचानक गिरफ्तारी उसे पागल कर रही थी।

आखिर एक रोग से निपटने मे पुलिस को इस कदर क्यों सक्रिय किया गया है?  इसका जवाब बेहद आसान है। पुलिस इस समय मल्टी टास्किंग संगठन की भूमिका में है। कर्फ्यू का पालन कराने और मीडिया व सरकार के गठजोड़ से कोरोना संक्रमित तबलीग़ी जमात के नाम पर  क्वारंटीन कराने के आड़ में गिरफ्तारी, जिससे विरोध के स्वर को गले में घोटने के साथ स्वयं मरीजो को इतना दहशत में लाया जा सके कि अपराध-बोध से वे अपने पर उजागर हुए रोग के लक्षणों को भी किसी से साझा करने से डरें।सामाजिक अपमान के भय से चाहे घुट घुट के मर जाएं लेकिन रोग को छिपाएं। ऐसा पुलिसिया उत्पीड़न का माहौल बनाया गया है जैसे कोई सरकारी फरमान हो कि वे स्वेच्छा से कसीर (अधिक) तादाद मे चिकित्सीय सुविधा को ढूंढते न निकल पड़ें और चिकित्सा से जुड़ी सुविधाओं की दरिद्रता का भांडा फूटे। रही सही कसर देश के अल्पसंख्यक समुदाय पर  इल्जाम -तराशी कर इस पूरे अपराधिक-कृत्य में सरकार के साथ बराबर की शरीक चारण मीडिया कर ही रही  है  ।

कोरोना संक्रमण एक रोग है या अपराध? यदि यह रोग है तो स्वास्थ्य विभाग के चिकित्साकर्मियों के बजाए पुलिस की अति-सक्रियता मन में कुछ शंकालु प्रश्न पनपाते हैं। क्या पुलिस संक्रमित व्यक्ति को मरीज़ वाली सहानुभूति दे पाने के लिए प्रशिक्षित है? क्या कहीं किसी अनजाने स्रोत से कोरोना संक्रमित हो जाना मरीज़ द्वारा अंजाम दिया गया अपराध है?  कमज़ कम पुलिस प्रशासन की अतिसक्रियता तो यही बोध कराती है। क्या मरीज़ के लिये जरूरी सहानुभूति और तीमारदारी की उम्मीद अपनी बत्तमीजियों और ज़ुल्मो-जब्र के लिये बदनाम पुलिस से की जा सकती है? क्या पुलिस को बीमारों के नर्सिंग का हुनर व सलीके का भी प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे वह महामारी की आपातकालीन स्थिति में स्वास्थ्य कर्मियों की जगह ले सकें?

नि:संदेह नहीं। तो फिर इस महामारी के हंगामे में जिसकी सक्रियता की सबसे ज़्यादा जरूरत है वह स्वास्थ्य विभाग कहां है? वह क्यूं सिमटा-सिकुड़ा जिला अस्पताल की बोसीदा दीवारों में खुद को क्वारंटीन कर लेने का स्वांग रचकर ऊकड़ू बैठकर औंघ रहा है? अचानक लॉक डाउन से बदहाल लोगों को पुलिसिया ख़बरपुर्सी के हवाले कर देना क्या स्वास्थ्य समस्या को अपराध का रंग नहीं दे रहा है?  ऐसे में यदि किसी मे कोई लक्षण दिखाई भी दे तो पुलिस द्वारा बदसुलूकी के डर से वह जाहिर लक्षणों को तबतक छिपा सकता है जब तक उसके वश मे हो।

 


क़ाज़ी फ़रीद आलम

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