बॉलीवुड के संदर्भ में लिखी गई इरा भास्कर और रिचर्ड एलन की किताब, ‘इस्लामिकेट कलचर्स ऑफ़ बॉम्बे सिनेमा’ (तूलिका प्रकाशन, 2009) पढ़िए। आप देखेंगे कि किस तरह मुस्लिम समाज के सामाजिक, राजनीतिक संदर्भ पर पचास, साठ के दशक में बनी फ़िल्में जैसे मुग़ल-ए-आज़म, रज़िया सुल्तान, पाकीज़ा, चौदहवीं का चाँद, शतरंज के खिलाड़ी, मेरे महबूब आदि न सिर्फ़ उस वक़्त की अहम फ़िल्में रहीं, बल्कि हिन्दी सिनेमा के इतिहास में, स्टोरी, स्क्रिप्ट, नरेशन, ऐक्टिंग और संगीत के लिहाज़ से माइलस्टोन मूवीज़ भी हैं।
इन सभी फ़िल्मों को बनाने वाले, इनमें काम करने वाले, इन्हें देखने, सराहने वाले हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। मगर इसके बाद धीरे-धीरे, देश के बदलते सियासी माहौल और मुसलमानों के राजनीतिक हाशियाकरण के चलते बॉलीवुड में भी मुसलमान निर्माता, निर्देशक, लेखक आदि अपनी भूमिकाओं से हटकर महज़ अदाकारी, गायकी और ‘टेक्निकल जॉब्स’ में सिमट कर रह गए। नतीजतन, न इनके मुद्दे बॉलीवुड की थीम्स के लिए अहम रह गए, न इनके किरदार। मुख्यधारा की बॉलीवुड फ़िल्मों में मुस्लिम पात्र या तो साइड रोल में सिमट कर रह गए या नेगेटिव किरदारों में।
बीच-बीच में मुस्लिम गैंग्सटर्स, क्राइम और अंडरवर्ल्ड पर बन रही फ़िल्में जैसे अनवर, मक़बूल, हैदर, ब्लैक फ्राइडे, वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, रईस आदि भी आती रहीं जिनमें कुछ अहम समाजिक, राजनीतिक सवाल भी उठाए गए मगर कुल मिलाकर इनकी संख्या बहुत कम रही और बाक़ी फ़िल्मों से बेहतर होकर भी ये नेगेटिव मुस्लिम किरदारों पर ही आधारित रहीं। डोर, इक़बाल और वेल डन अब्बा जैसी तर्कसंगत और संतुलित फ़िल्में इस लिहाज़ से एक्सेपशन्स या अपवाद ही रहीं, नॉर्म नहीं।
भारत में 1970-80 के दशकों के बाद रजनी, शांति, उड़ान, मिट्टी के रंग और हम लोग जैसे धारावाहिक ख़त्म होने के बाद जिस तरह के जाहिलाना, ग़ैर-मयारी, फूहड़ भाषा और भद्दे मज़ाक़ से लैस धारावाहिकों की बहार आ गई, मत पूछिए! इन सभी टेलीसीरीज़ ने न सिर्फ़ दलितों, मुसलमानों, औरतों के मुद्दों से किनारा कर लिया, इनमें औरतों को तो बेहद खुलकर महज़ घर पर रहने वाली, सिंदूर, साड़ी, मंगलसूत्र और निकाह और तलाक़ के घरेलू दायरे में सिमटी वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। कहानी घर घर की, क्यूंकि सास भी कभी बहू थी, कहीं किसी रोज़, हिना और शाहीन जैसे धारावाहिकों की फ़ेहरिस्त कभी न ख़त्म होने वाली है! पिछले पांच साल में ऐतिहासिक और धार्मिक पात्रों पर बने ‘सिया के राम’, ‘पृथ्वी वल्लभ’ आदि धारावाहिक तो इस लिहाज़ से और भी वाहियात हैं। इनमें इतिहास को जिस तरह हर लहजा तोड़-मरोड़ कर मुसलमानों, दलितों और महिलाओं की गत लगाई गई है, क्या कहिए!
इसके बरख़िलाफ़ ईरान, इराक़, तुर्की और पाकिस्तान आदि में बनाए जा रहे सिनेमा और टेलीविज़न को देखिए! माजिद मजीदी, अब्बास कायरस्तोमी, मोहसिन और समीरा मख़मलबाफ़, शीरीन निशात, सदफ़ फ़रोग़ी, ज़फ़र पनाही जैसे विश्व प्रख्यात डायरेक्टर्स की एकेडमी अवार्ड विनिंग फ़िल्मों से ले कर ‘ज़िन्दगी गुलज़ार है’ और ‘आज रंग है’ जैसे साधारण, घरेलू पाकिस्तानी धारावाहिकों तक, सब भारत में बन रहे दोयम दर्जे के भोंडे, रिग्रेसिव, स्त्री-विरोधी धारावाहिकों और मुस्लिम बैशिंग, इस्लामोफ़ोबिक सिनेमा से कहीं बेहतर हैं! इसके सिवा ख़ुद हॉलीवुड के कुछ सबसे बेहतरीन, विश्वविख्यात और क्रिटिकली अकलेम्ड कहानीकार, निर्देशक और एक्टर जैसे मुस्तफ़ा अक़्क़ाद, शरमीन ओबैद, शाज़िया सिकन्दर, महरशाला अली आदि मुस्लिम हैं/रहे हैं।
इन तथ्यों की रौशनी में बॉलीवुड अभिनेत्री ज़ायरा वसीम के हाल ही में किए गए ट्वीट पर उठ रहे सवालों के जवाब में यह तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता कि मुस्लिम होना आपको किसी भी तरह अच्छा सिनेमा बनाने से रोकता है। अलबत्ता यह सवाल ज़रूर किया जाना चाहिए कि हमारे जैसे बेहद ‘लिबरल’, ‘प्रोग्रेसिव’ दर्शकों वाले देश में अब मुस्लिम समाज के सामाजिक व राजनीतिक सवालों पर संजीदा सोशल ड्रामा क्यों नहीं बनाया जा रहा।
ज़ायरा वसीम के हाल ही में किए गए पोस्ट पर जो विवाद हुआ उसके तमाम पहलुओं पर भी सवाल किया जाना ज़रूरी है। अठारह साल की वह बच्ची जब यह कहती है कि बॉलीवुड में काम करना उसके ईमान पर भारी पड़ रहा है तो हमारे बीच छुपे संघी ज़हनियत वाले फ़र्ज़ी नारीवादी और सूडो-लिबरल्स (जिन्हे न मुस्लिम औरतों की शिक्षा और रोज़गार के सवालों में कोई दिलचस्पी है न ही अख़लाक, पहलू ख़ान और तबरेज़ की विधवाओं में) फ़ौरन इस निष्कर्ष पर कूद पड़ते हैं कि वह यक़ीनन परदे की बात कर रही है और वाबैला उठा देते हैं कि ‘देखिए! इस्लाम कितना नारी-विरोधी है!’
इस्लामी उसूलों के अनुसार ईमान एक बेहद ‘ब्रॉड कॉन्सेप्ट’ है, जिसमें झूठ न बोलना, हक़ और इन्साफ़ के लिए संघर्ष करना, ग़लत ज़राय से रोज़ी न कमाना, किसी का हक़ तल्फ़ न करना आदि जैसी सैकड़ों बातें शामिल हैं। बॉलीवुड के काम देने/मिलने के तरीक़ों में आम ग़लाज़त और बेईमानी को देखते हुए आपको यह नहीं लगा कि यह लड़की जब ईमान की बात कर रही है तो इस बेईमानी और ग़लाज़त की बात कर रही हो सकती है! आप बस कूद पड़े, कि क्यूंकि वह एक मुस्लिम लड़की है, ‘वह निश्चय ही परदे की बात कर रही है, जो कि बहुत बुरी बात है’।
यह इस्लामोफ़ोबिया नहीं तो क्या है? परदे के सवाल पर भी (जिसके निर्धारक हमेशा राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक होते हैं) यह कहना कि क्यूंकि हम परदा नहीं करते, कोई भी न करे, कि हम जैसा करते हैं वह ही मॉडर्न और लिबरल होने का सही पैमाना है, यह अपने आप में एक बेहद अप्रजातांत्रिक, ‘होमोजेनाइज़िग़’ और विविधता-विरोधी विचार है।
इन्ही दिनों ज़ायरा का ट्विटर अकाउंट हैक होने की भी बात कही गई, मगर बाद में वह बयान ख़ारिज कर दिया गया। हुआ हो या न, कुछ वक़्त बाद ज़ायरा ने क्या कहा इस पर तो बहस बहरहाल बंद हो ही जाएगी मगर उसके जवाब में लिबरल तबक़ों में छिपे फ़ासीवादियों ने क्या क्या मौक़े और मुद्दे लपक लेने चाहे, इस पर बहस ज़रूर जारी रहनी चाहिए।
प्रगतिवादी, उदार और धर्मनिरपेक्ष होने के नाते जिन लोगों को मुसलमानों की ग़रीबी, बेरोज़गारी और राजनीतिक हाशियाकरण पर भी बात करनी थी उनसे क्या यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए कि जितनी दिलचस्पी उन्हे ज़ायरा के बयान में है उतनी तबरेज़ की 19 वर्षीय विधवा शाइस्ता परवीन की हालत में क्यों नहीं है?
झारखंड के धतकीडीह में 18 जून को भीड़ द्वारा चोरी के कथित इल्ज़ाम में पीट-पीट कर क़त्ल कर दिया गया तबरेज़ अंसारी हो या हाल ही में बरेली स्टेशन पर मुस्लिम बच्चों को जबरन ट्रेन से उतारकर उनसे पूछताछ किये जाने की घटना, ज़ायरा के बयान को ‘परदे’ और इस्लाम के ‘नारी-विरोधी’ होने से जोड़ देने वाले, इन घटनाओं पर या ख़ामोश रहे या सहानुभूति और आक्रोश के चार शब्द बोल कर किनारा कर गए। शायद महज़ इसलिए कि ये नौजवान मुस्लमान था और ये बच्चे मदरसा के छात्र। शलवार-कुर्ते पहने, टोपी लगाए ये बच्चे, जो इस जमात को भी ‘ग़ैर’ और ‘ख़तरनाक’ ही लगे।
अभी कल ही पश्चिम बंगाल के मालदा में 20 साल के एक मुस्लिम युवक को मोटरसाइकिल चोरी के इल्ज़ाम में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला। भाजपा महिला मोर्चा की नेता सुनीता सिंह गौर ने हाल ही में कहा कि हिन्दू गौरव की रक्षा हेतु अनिवार्य हो गया है कि मुस्लिम महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया जाए। इस बयान के लिए पार्टी ने इन्हें निष्कासित भी कर दिया मगर लिबरल जमात का एक हिस्सा इस वाक़ये पर भी ख़ामोशी बनाये रहा।
भक्तगणों का इस्लामोफ़ोबिया तो दूर होने से रहा मगर समाज के उदार व प्रगतिवादी लोगों से यह सवाल ज़रूर किया जाना चाहिए कि वह क्या है जिसके चलते मुस्लिम महिलाओं से उनकी हमदर्दी महज़ तीन तलाक़, हलाला और परदे के सवालों तक ही सिमट कर रह जाती है! सोशल मीडिया पर ज़ायरा वसीम और मुस्लिम महिलाओं के विषय में होने वाली तमाम बहसों के संदर्भ में जिस दिन इस सवाल का जवाब दे दिया जाएगा, समाज के बज़ाहिर उदार और प्रगतिशील होने के दावे की क़लई मिनटों में खुल जाएगी।
सीमीं अख़्तर ज़ाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली में अर्थशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं