युवाओं का संघर्ष और नयी राजनैतिक संभावनाएं

देश में NRC, CAA और NPR के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष में छात्रों, युवाओं और महिलाओं की अग्रणी भूमिका को लेकर एक नयी आशा की किरण जगी है। ऐसे में ज़ाहिर है बार-बार सत्तर के दशक में चले छात्र आंदोलन का ज़िक्र होना। हाल के दिनों में हुई कई बैठकों में इसके ऊपर गहन चर्चा हुई है, इस ऊर्जा को सुनियोजित तरीक़े से चलाने के लिए एक गठित समिति हो, मेधा पाटकर,योगेन्द्र यादव जैसे कुछ लोगों से बार-बार जेपी की भूमिका निभाने का आग्रह, तो एक नयी राजनैतिक दल की परिकल्पना आदि जैसे सुझाव शामिल हैं। हालाँकि गौर करने लायक़ बात है कि इन बैठकों में भी युवाओं और प्रतिष्ठित कार्यकर्ताओं के विचारों में भेद है। जहां वरिष्ठ साथी सत्तर के दशक वाली भूमिका की तलाश में हैं तो नए साथी आज के आइने में इसे स्वत: स्फूर्त आंदोलन और किसी एक नेता के इर्दगिर्द नहीं देखना चाहते। इन दोनों सोचों के पीछे अपने-अपने वाजिब वजह और कारण हैं। आइए इसे थोड़ा विस्तार से देखते हैं.

वैसे यह वाजिब है कि लगभग पचास साल के अंतराल पर हो रहे दो आंदोलनों की तुलना हो कुछ हद तक की भी जा सकती है और नहीं भी। निर्भर करता है आप किस पैमाने से देख रहे हैं। कुछ समानताएँ भी हैं और कुछ नहीं भी।

सबसे बड़ी समानता देश की राजनैतिक स्थिति है, उस समय अगर कांग्रेस और इंदिरा गांधी की तानाशाही के ख़िलाफ़ लोग गोलबंद हुए तो आज भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ लोग खड़े हैं। इन विरोधों को कुचलने के लिए भाजपा शासित राज्यों में हुई राज्यहिंसा ने विरोधों को और भड़काने का ही काम किया है। आज और कल दोनों समय के आंदोलन में छात्रों, युवाओं की अग्रणी भूमिका है। सत्तर के दशक में गुजरात और बिहार के युवाओं और छात्रों ने अग्रणी भूमिका निभाई तो, आज के दौर में जामिया, जेएनयू, अलीगढ़ विश्वविद्यालयों के साथ-साथ कानपुर, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद, हैदराबाद, बुलधाना, औरंगाबाद और अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र और युवा निभा रहे हैं।

यह भी सही है कि प्रदर्शन हर जगह पर हो रहे हैं लेकिन दिल्ली आधारित मीडिया समूहों का बोलबाला होने के कारण देश के अन्य हिस्सों में होने वाले प्रदर्शनों पर उतनी चर्चा नहीं। लेकिन एक अलग बात जो इस बार देखी जा रही है वह है मुसलमानों और महिलाओं की एक बड़ी संख्या में भागीदारी और समाज के अन्य वर्गों का उभार जो लम्बे समय बाद देखने को मिल रहा है।

समाज के बड़े तबके का आंदोलनों से जुड़ने के पीछे एक और कारण है आज के मौजूदा आर्थिक हालात से जुड़ा है। आज हालात देखें तो १९९५ के वैश्वीकरण आधारित आर्थिक नीतियों के कारण देश में बढ़ती हुई असमानता, बेरोज़गारी और राजनैतिक भ्रष्टाचार से समाज में घोर असंतोष है। जिन सपनों को दिखाया गया था आज वह ध्वस्त हुआ पड़ा है, समाज के बहुत बड़े तबके के लिए। इन नीतियों का फ़ायदा कुछ वर्गों तक सीमित रहा है, और सरकारें विफल दिख रही हैं समाधान में।

गिरती हुई अर्थव्यवस्था,आहट देती हुई आर्थिक मंदी, सुरसा की तरह फैलती महंगाई और बेरोज़गारी ऐसे हालात पैदा कर रही है जो सरकारें बदलने के बाद भी नहीं सुधरती दिख रही। दुनियाभर में लोकप्रिय और दक्षिणपंथी सरकारों का उदय भी इन्हीं कारणों से है, वह भारत हो, तुर्की हो या अमेरिका। कहीं ना कहीं ऐसी ही स्थिति सत्तर के दशक में आज़ादी के पच्चीस सालों बाद थी, जब एक नए समृद्ध और आज़ाद भारत का सपना कहीं ना कहीं धुंधला होता नज़र आ रहा था। उसकी जगह बढ़ती असमानता, पूँजीपति और सामंतवादी वर्गों का बढ़ता प्रभाव,आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और ग़रीबी ने उस समय युवाओं को एक नए भारत के सपने के संघर्ष के लिए सड़कों पर खड़ा कर दिया था।

उस सपने के पीछे कई विचारधारों का संगम था, कुछ गांधीवादी, समाजवादी, वामपंथी तो कुछ दुनियाभर में हो रहे छात्र आंदोलनों से प्रभावित होकर राज्य के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरे थे। उसका एक नतीजा था बाद में जनता परिवार का उदय और साथ में कई ग़ैर-राजनैतिक नागरिक संगठन और कई तरह के जनवादी आंदोलन। आज के दौर में लेकिन विचारधारा के स्तर पर परिस्थिति भिन्न है। वामपंथी और समाजवादी शक्तियाँ पूर्णरूप से ढलान पर हैं, बाज़ारवाद पूर्णरूप से हावी है, ख़ौफ़ज़दा लोगों ने विचारधारा का अंत, विचारधारा के परे युग भी कहना शुरू कर दिया है।

ज़ाहिर भी है क्योंकि कहीं ना कहीं राजनैतिक दल अपनी राजनैतिक वैधता, एक परिवर्तन के हथियार के तौर पर खो चुके हैं। चुनाव भले होते हों, लोग वोट भी करते हैं लेकिन राजनैतिक दलों में ऐसा कोई विश्वास नहीं है। और अगर कहीं इन प्रदर्शनों में राजनैतिक दलों की कोई भूमिका नज़र नहीं आती तो इसलिए क्योंकि उन्हें भी मालूम नहीं है कि वो क्या करें। जनता से सीखना और उनको सुनना उन्होंने वैसे ही बहुत पहले बंद कर रखा है। इक्का दुक्का मौक़ों को छोड़ दें, जो अपवाद हैं।

वैसे में एक नई इस बार जो ख़ासतौर पर देखने को मिली, वह है बड़ी संख्या में मुसलमानों और महिलाओं का शामिल होना। सत्तर के दशक के आंदोलन में देखें तो उस तरह से महिलाओं की भूमिका उतनी सक्रिय नहीं थी और न ही मुसलमानों की लेकिन इस बार सबको आश्चर्य में डाल देश का मुसलमान सड़कों पर अपनी नयी राजनीति और राजनैतिक भूमिका तय करने के लिए निकला है। राम मंदिर का फ़ैसला, तीन तलाक़ और कश्मीर जैसे मुद्दे, जिनको भाजपा ने हमेशा धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया है, वे भी इतनी संख्या में भारतीय मुसलमानों को सड़क पर नहीं उतार सके और आज जब CAA–NRC–NPR के मुद्दे पर वे बाहर निकले हैं तो यह उनकी राजनैतिक परिपक्वता को ही दर्शाता है। प्रदर्शनों में बड़ी तादाद में उनकी भूमिका को देख कर लगता है कि शायद कहीं न कहीं वे भारत को दक्षिणपंथी ताक़तों से बचाना चाहते हैं, धर्मनिरपेक्ष भारत को बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि विभाजन के बाद जिस मुल्क को उन्होंने चुना था वह मुल्क एक धर्म आधारित राष्ट्र में तब्दील हो जाए।

एक तरफ़ एक पूर्ण विचारधारा का अभाव दिख तो रहा है लेकिन अभी के चल रहे प्रदर्शनों का एक बहुत बड़ा योगदान राजनीति की धुरी और विरोध की संस्कृति को नए तरीक़े से परिभाषित करने में है। हम जिस दौर में जी रहे हैं उसकी एक नई राजनीतिक संस्कृति है जो कि इस दौर की उपज है। बाज़ारवाद की उपज है। इस शोषण और असमानता की उपज है। नई तकनीकी विकासों की उपज है। संचार माध्यमों की उपज है। इसने एक प्रतिरोध की नयी संस्कृति को जन्म दिया है। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आंदोलन में शामिल छात्र, युवा औ रमहिलाएँ किसी एक विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं और उन्होंने नए तरीक़े से संविधान और उसकी प्रस्तावना को हथियार बनाया है। संविधान अचानक 70 साल के बाद सभी ने पढ़ना शुरू किया है और अगर कहें तो हिंदुस्तान को जानना भी शुरू किया है।

एक हिंदुस्तानी होने का मतलब क्या है? क्या है हिंदुस्तान? यह एक नई खोज और एक नई शुरुआत लोगों ने की है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो नेहरू की लिखी किताब के शीर्षक भारत एक खोज की तर्ज़ पर नयी पीढ़ी हिंदुस्तान की खोज कर रही है। दिलों में नए भारत का सपना और सोच, ज़ुबान पर अम्बेडकर, संविधान और अहिंसक गांधीवादी आंदोलन के तरीक़े के साथ यह युवा जनतंत्र को पुनर्भाषित कर रहा है।

आज भारत में ही नहीं युवाओं और छात्रों का प्रदर्शन हांगकांग, र्जेंटीना, चिले, ब्राज़ील, आदि कई देशों में लगातार वहाँ की सरकारों के ख़िलाफ़ चल रहा है लेकिन एक नयी राजनैतिक शक्ति का उदय जो जनता की अपेक्षाओं को सही रूप में प्रस्फुटित करे, नहीं दिखी है। भारत में तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद बनी आम आदमी पार्टी से लोगों का तुरंत मोह भंग होना इसी बात का द्योतक है। क्रांतिकारी संघर्षों के बाद बनी यह पार्टी कुछ वर्षों में ही किसी आम दल की तरह सत्ता के खेल में जुट गयी। कुछ लोकप्रिय योजनाओं को छोड़ दें तो, कठिन फ़ैसलों और सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की बात भूले भटके भी यह पार्टी आज नहीं करती। ऐसा ही अनुभव दुनिया के अन्य देशों में भी हाल में देखने को मिले हैं। स्पेन, ब्राज़ील, बोलिविया, ट्यूनिशिया, यमन, मिस्र आदि । इसलिए मौजूदा हालात में चल रहे प्रदर्शनों से किसी व्यापक राजनैतिक शक्ति के उभार की अपेक्षा थोड़ा जल्दी होगी।

फिर भी इन नहीं रुकने वाले प्रदर्शनों से देश में संघर्षरत किसान, मज़दूर, दलित, आदिवासी, शहरी गरीब, अन्य जातियों के सम्मान के आंदोलन को और गति मिलेगी। यह एक नयी राजनीति और राजनैतिकीकरण का दौर है। इस राजनीति के दौर में माना जाता है कि ग़रीब शक्तियां और हरेक आंदोलन दूसरे आंदोलनों को उत्साहित करेंगी और प्रभाव डालेंगी, विरोध की एक नयी संस्कृति को जन्म देंगी। भले ही निकट भविष्य में कोई एक राजनैतिक शक्ति विकल्प के रूप में नहीं उभरे, लेकिन इतिहास के फ़ैसले और इतिहास लोग ही लिखते हैं और संघर्षों से ही नई राजनीति और राजनैतिक भाषा और राजनैतिक व्यवस्था भी पैदा होती है। इसे बनाने में अभी चल रहे आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण योगदान होगा।



मधुरेश कुमार जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्यव (एनएपीएम) के राष्ट्रीय समन्वयक है.

 

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