दिल्ली के शाहीनबाग की तर्ज़ पर इलाहाबाद के रोशनबाग में भी महीने भर से अधिक समय से नागरिकता संसोधन कानून के विरोध में आंदोलन जारी है। पर्दानशीन औरतें पूरी शिद्दत से डटी हुई हैं। दिन के पहले पहर में जुटान जरा कम रहती है पर दोपहर बाद बड़ी संख्या में महिलाएं जुटने लगती हैं। प्रदर्शनकारियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की टोह लेने के क्रम में धरनास्थल पर बैठे कुलीन लोक के एक मुस्लिम से जब मैंने बात की तो उन्होंने कहा कि ये महिलाएं ज्यादातर आसपास के संभ्रांत इलाकों से आई हुई हैं और अभी अगर इनकी बगल में आकर दलित महिलाएं बैठ जाएं तो ये दो हाथ की दूरी बना लेंगी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र रामलखन का कहना था कि रोशनबाग के आसपास ही गरीब मुस्लिमों की भारी आबादी रहती है पर दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में ही उसका दम निकल जाता है तो ऐसे में वह धरने में मुसलसल कैसे शामिल हो।
लॉ स्टूडेंट अर्चना टाभा का मानना है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या की चेतना बहुत ही पिछड़ी है। लोकसभा चुनावों में जब सपा-बसपा ने गठबंधन किया था तो यादवों को इस बात से परेशानी थी कि डिम्पल यादव ने मायावती के पैर क्यों छुए, पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक सत्यानाशियों के पाले में चला गया है। हद दर्जे की पिछड़ी जातीय चेतना नागरिकता कानून के विरोध में चलने वाले संघर्षों की राह में एक बड़ी रुकावट है। उनका मानना है कि जो सवर्ण मुसलमान आज अम्बेडकर की फ़ोटो अपने आंदोलनों में लिए दिख रहे हैं वे पहले अम्बेडकर का मज़ाक उड़ाते थे और ये कहते फिरते थे ब्राह्मणों के प्रति नफ़रत दलितों का झूठा प्रोपगंडा है। ब्राह्मण तो अपने काम से काम रखता है। हां जो पसमांदा मुसलमान वर्ग है वह दलितों-आदिवासियों से सहानुभूति रखता है।
इंकलाबी नौजवान सभा के प्रदेश सचिव सुनील मौर्य कहते हैं कि इलाहाबाद के अंदर जो आंदोलन चल रहा है, उसमें कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की भागीदारी को बखूबी चिह्नित किया जा रहा है। यही वज़ह है कि आंदोलनकारियों और आमजन के बीच कम्युनिस्ट विचारधारा की साख बनती हुई दिख रही है। अगर इस आंदोलन और महिलाओं की बढ़ी हुई चेतना को हम संगठित करने में सफल हुए तो भविष्य में वाम आंदोलन के जबर्दस्त उभार की संभावना दिखती है, अन्यथा इस्लामिक मूलतत्वगामी ताकतें नेतृत्व को अपने हाथ में ले सकती हैं। उन्होंने कहा कि यह आशंका निराधार नहीं है क्योंकि एनआरसी की प्रक्रिया जैसे ही आगे बढ़ती है, वैसे ही मुस्लिम समाज के भीतर बड़े पैमाने पर उथल-पुथल का मचना तय है।
इसके बरअक्स इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने लगभग सात साल के एक मुस्लिम सफाईकर्मी के बेटे से बात की, जिससे पता चला कि वह मिर्जापुर का रहने वाला है और वह इस आंदोलन में अपने अब्बा-अम्मी के साथ आया हुआ है। बच्चे ने बताया कि उसकी अम्मी भी एक स्कूल में सफाई-कर्मी का काम करती हैं। इससे यह बात साफ होती है कि इस आंदोलन में हर वर्ग और जाति के लोग शामिल हैं।
इंकलाबी छात्र मोर्चा के संयोजक रितेश विद्यार्थी कहते हैं कि गाँवों में सवर्ण सामंती ताकतें पुरजोर तरीके से लोगों को यकीन दिलाने की कोशिश कर रही हैं कि जो मुस्लिम नागरिकता साबित करने में विफल होंगे, उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित कर दिया जाएगा और वह संपत्ति हिंदुओं में बाँट दी जाएगी। सांप्रदायिक सत्यानाशियों के असर में पिछड़ों-दलितों की एक भारी आबादी है और अभी वह एक तो मुस्लिमों के प्रति नफरत और दूसरे भविष्य में संपत्ति प्राप्त करने के लालच की खुमारी में है और आंदोलन से एकदम से दूरी बनाए हुए है। ऐसे में यह आंदोलन एक खास समुदाय और प्रगतिशील ताकतों का बनकर रह गया है, आम मेहनतकश जनता की वैसी भागीदारी इसमें नहीं है, जैसी कि होनी चाहिए।
आम दलित आबादी के प्रति अगड़े तबके के मुस्लिमों के नज़रिए की बाबत पूछे जाने पर धरना स्थल पर मौज़ूद मो. आसिफ का कहना है कि पहले के मुकाबले स्थितियाँ तनिक बेहतर तो हुई हैं पर यह रफ्तार बहुत ही मद्धिम है, अभी भी दलितों को मुस्लिम सवर्ण अपनी चारपाई पर मुश्किल से ही बैठने देते हैं। साथ खान-पान को लेकर आसिफ का कहना था कि सोनकर-पासवान जैसी दलित जातियां सूअर पालती और खाती हैं जबकि इस्लाम में सूअर खाना हराम है, इसलिए हम दलितों को अपनी थाली में खाना नहीं देते। अर्थ साफ है दलितों के प्रति अपनी नफरत को दर्शाने के लिए बहुत खूबी से तर्क गढ़ लिए जाते हैं।
आंदोलन को पक्षधर नज़रिए से देखने वाली आफरीन का कहना है कि रोशनबाग, शाहीनबाग और देश के अन्य जगहों पर पिछले लगभग डेढ़ महीने से चल रहा CAA-NRC व NPR विरोधी आंदोलन निश्चित तौर पर जनता पर लगातार हो रहे फासीवादी हमले के खिलाफ एक जनउभार है। लंबे समय तक राजनीतिक रूप से शांत और कम सक्रिय मुस्लिम अल्पसंख्यकों का गुस्सा इस बार सड़कों पर एक जन संग्राम बनकर उभरा है। ये बात सही है कि भाजपा सरकार इस आंदोलन का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में अब तक असफल रही है। इसका मुख्य वजह देश के वाम-जनवादी संगठनों व व्यक्तियों का इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी रही है। इस आंदोलन को मुस्लिम संगठनों और वाम- जनवादी संगठनों ने मिल जुलकर नेतृत्व दिया है।
अपने गीतों और भाषणों आदि से वामपंथी सांगठनों ने अब तक इस आंदोलन को वैचारिक रूप से पर्याप्त विस्तार दिया है। लेकिन मुख्य रूप से गरीब विरोधी होने के बावजूद मुस्लिम गरीबों और गैर मुस्लिम गरीबों, दलितों, आदिवासियों की भागीदारी इस आंदोलन में बहुत ही कम है। मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों और एक बहुत बड़ी ग्रामीण आबादी तक अभी पूरी बात नहीं पहुंचाई जा सकी है। सीएए के खिलाफ जो गुस्सा मुस्लिम समाज में दिखायी दे रही है वो अभी अन्य वर्गों व गरीब तबकों में नहीं दिख रही है। ये तो तय है कि मुसलमान अब इस मुद्दे पर पीछे नहीं हटने वाला है।
अगर- प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतें मुस्लिम समाज को इस मुद्दे पर नेतृत्व देने में पीछे हटती हैं तो इस समाज का नेतृत्व कट्टरपंथी ताकतों के हाथ में भी जा सकती हैं। जिसका नतीजा अच्छा नहीं निकलेगा। वामपंथी और क्रांतिकारी ताकतों के सामने ये बड़ा अवसर है कि वो CAA-NRC-NPR और अन्य जरूरी आर्थिक मुद्दों रोजगार, शिक्षा, निजीकरण और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के सवालों को लेकर मुस्लिमों खासकर गरीब मुस्लिमों सहित व्यापक शहरी व गरीब आबादी के बीच जाए और राजनीतिक पहलकदमी अपने हाथ में ले ले। अगर वामपंथी और क्रांतिकारी ताकतें ऐसा करने में सफल हों तो देश निश्चित तौर पर एक क्रांतिकारी बदलाव की दिशा में जा सकता है।
इस आंदोलन की एक और खास बात है मुस्लिम महिलाओं की जबरदस्त भागीदारी। आज़ादी, बराबरी और फासीवाद के खिलाफ नारे लगा रहीं और कड़कड़ाती ठंढ में भी पूरी रात और चौबीसों घंटे धरने पर बैठी हज़ारों- लाखों महिलाओं ने इस आंदोलन को एक नया आयाम दिया है। मुस्लिम महिलाओं की ये भागीदारी आने वाले दिनों में पूरे मुस्लिम समाज और देश की पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कई कदम पीछे धकेलने में सफल होगी।