सत्ता विरोधी लहर को इस बार छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने सटीक रणनीति और जुझारू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की सार्वभौमिक स्वीकार्यता की बदौलत ऐतिहासिक विजय के रूप में अपनी झोली में ला पाने में सफलता पाई है।
कहते हैं कि जीत के बहुत दावेदार होते हैं और ये सही भी है क्योंकि अंतत: सभी की सक्रियता बल्कि कई बार नकारात्मक अभियान के प्रति निष्क्रियता भी जीत की राह बनाती है। चुनाव से पहले कांग्रेस ने अपनी इन्हीं आंतरिक दुर्बलताओं को दुरुस्त किया। किसे निष्क्रिय करना है और किस हद तक निष्क्रिय करना है इस रणनीति की बुनियादी विषय वस्तु रही।
सभी को जीत का श्रेय देते हुए भी इस बात को शायद हाईकमान को सबसे ज़्यादा तवज्जो देना चाहिए कि आज कांग्रेस अगर छत्तीसगढ़ में पुनर्ज्जीवित हुई है तो इसमें मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल की सबसे बड़ी भूमिका रही है। भूपेश ने न केवल चुनावी रणनीति को सड़क और घर घर में फलीभूत किया बल्कि पार्टी के नेता राहुल गांधी के राजनैतिक दर्शन को भी ज़मीन पर उतारा। जब राहुल गांधी अपने भाषणों में ‘अंतरंगी पूँजीपतियों’ को निशाना बनाते हैं तब अक्सर लोगों को भरोसा नहीं होता कि क्या कांग्रेस सरकारें भी अपने अध्यक्ष की इन बातों को निभा पाएंगीं?
छत्तीसगढ़ के संदर्भ में जब राहुल ने सरगुजा के कोयला खनन पर यह कहते हुए प्रहार किया कि ये तो औद्योगिकीकरण नहीं है बल्कि यह संसाधनों की लूट है तब ऐसे में मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे उचित व्यक्ति का चुनाव क्या होगा इसकी स्वाभाविक झलक भी मिल रही थी। क्योंकि अगर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष इसे संसाधनों की लूट कहते हैं तब सरकार बनने पर इस लूट को रोकने की बड़ी कोशिश करते हुए भी जनता को दिखाना होगा।
भूपेश प्राय: इन मुद्दों पर पूरी साफ़गोई के साथ जनता के साथ खड़े दिखाई देते रहे हैं। कम से कम ऐसा नेता मुख्यमंत्री की पहली पसंद बने जो विधानसभा के अंदर ही अडानी के साथ अपने मैत्रीपूर्ण संबंधों का हवाला न दे क्योंकि यही मैत्री सत्तापक्ष में बैठने पर क्रोनी कैपिटलिज्म कहलाता है। ऐसा नेता तो मुख्यमंत्री बने जो प्रदेश के किसी भी जिले में सालों साल चलने वाली धारा 144 खत्म करा सके और कम से कम वह अपनी शाही विरासत के लिए नहीं बल्कि जनता के साथ खड़े उसके अपने दोस्त भाई की तरह दिखे।
छत्तीसगढ़ की चुनावी दौड़ में मीडियाविजिल पर ही मैंने एक विश्लेषणकिया था ‘’छत्तीसगढ़ में राजघराने की रवायतें रोक सकतीं हैं कांग्रेस का विजय रथ’’।इस लेख में चुनावी जीत या हार के निष्कर्ष पर न जाएं, तो मैंने टीएस बाबा के बारेमें जो लिखा था उसे आज फिर दोहरा देना समीचीन होगा:
छत्तीसगढ़ में राजघराने की रवायतें रोक सकतीं हैं कांग्रेस का विजय रथ
‘’राहुल गांधी के बदले तेवरों का संज्ञान पूरे देश में लिया जा रहा है और इससे ‘सत्ता के अंतरंगी पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का रहस्य खुलता जा रहा है। ऐसे में यह नयी बदली हुई कांग्रेस स्वाभाविक रूप से छत्तीसगढ़ की पीड़ित जनता की पहली पसंद होने की सलाईयतें पैदा कर सकी है। सत्ता विरोधी लहर तो खैर पिछले दो विधानसभा चुनावों से मौजूद ही है…
लेकिन हाल में घटी कुछ घटनाओं और नेता प्रतिपक्ष के बयानों ने छत्तीसगढ़ में फिर उसी धारणा को पुष्ट करने की शुरूआत कर दी है कि कांग्रेस की तरफ से इस दफा फिर भाजपा की सरकार ही निर्वाचित कराई जाएगी। यह दो महत्वपूर्ण मौके रहे जब नेता प्रतिपक्ष श्री त्रिभुवनेश्वर सरन सिंह (टी.एस. बाबा) ने विधानसभा के अंदर (जुलाई 2018) गौतम अडानी से अपनी मित्रता का इज़हार किया और दूसरा मौका जो दो-तीन दिन पहले (18 सितंबर) को आया जब उन्होंने जशपुर जिले के कुनकुरी में एक वक्तव्य में कहा कि –दिलीप सिंह जू देव के परिवार से अगर कोई चुनाव लड़ता है तो वो उसके खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे क्योंकि जू देव के उन पर बहुत एहसान हैं और आज अगर वो विधायक हैं तो उन्हीं की वजह से। उनके लिए व्यवहार और संबंध राजनीति से ऊपर हैं’
हालाँकि यह देखना बहुत दिलचस्प है कि टी.एस. बाबा के इस वक्तव्य के जवाब में दिलीप सिंह जू देव के वारिस युद्दवीर सिंह ने उन्हें न केवल आभार दिया बल्कि यह भी कहा कि –‘दादा आप बेहतरीन सीएम साबित होंगे’। आम तौर पर चुनावी माहौल में इस तरह के बयानों पर राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व से सफाई या टीका टिप्पणियाँ आतीं हैं पर आज 3-4 दिन बीत जाने के बाद भी दोनों ही दलों से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है।‘’
अब सब कुछ हालांकि हाईकमान को तय करना है और बिना एक चेहरे को सामने रख कर चुनाव जीतने के बाद जो समीकरण बनते हैं उसे ही सुलझाना है पर जनता की उस अनकही आवाज़ को भी अगर हाईकमान सुन सका तो यह छत्तीसगढ़ में वाकई ऐतिहसिक होगा।