भीमा-कोरेगांव हिंसा में दोषी बनाया गया मेरा दोस्त महेश राउत ‘शहरी माओवादी’ क्यों नहीं है…

सोहिनी शोएब

मैं युनिवर्सिटी के दिनों से महेश राउत को जानती हूं। मेरे लिए वह हमेशा से ताकत, प्रोत्‍साहन और सीखने-सिखाने का स्रोत रहा है। उसकी मौजूदगी हमेशा शांत और विनम्र होती थी, जो काफी ज़मीनी थी। इसके चलते वह कॉलेज में बहुत लोकप्रिय हो गया था। मुझे उसकी जितनी भी स्‍मृतियां हैं, उसमें वह लोगों से घिरा हुआ दिखता है- कभी यह योजना बनाता हुआ कि किसी असाइनमेंट को कैसे टाला जाए, कभी कॉलेज के फेस्टिवल की तैयारी करते तो कभी उन नए छात्रों से सलाह-मशविरा करते जो अकसर घर की याद और काम के बोझ आदि से परेशान रहते थे।

कॉलेज में हम दोस्‍त हुआ करते थे। शायद यह दोस्‍ती कम बल्कि जिस तरह जूनियर छात्र सीनियरों के प्रभाव में होते हैं, वैसा कुछ श्रद्धा का रिश्‍ता था।

मैं दिल्‍ली युनिवर्सिटी से पढ़कर वहां आई थी। वह जगह अंबेडकरवादियों से भरी पड़ी थी। पहली और दूसरी पीढ़ी के उन दलितों से जिन्‍होंने वहां तक पहुंचने में बहुत संघर्ष किए थे। अपनी मुश्किलात और अपने साथ हुए भेदभाव के चलते ही उनके भीतर इतनी चमक थी।

महेश उन्‍हीं में से एक था। उन दिनों हम देर रात तक लेमन टी पर अंतहीन बहसें करते थे और भोर होने पर चेम्‍बूर स्‍टेशन के करीब जाकर नाश्‍ता करते थे।

समय बीता और हम दोनों अपने-अपने काम में लग गए। महेश गढ़चिरौली के उन जंगलों में चला गया जहां उसका घर था और मैं लद्दाख के सुदूर गांवों में चली गई। जैसा कि अकसर कॉलेज के बाद होता है, हमारे बीच संपर्क टूट गया। कभी-कभार समान दोस्‍तों से खबर मिलती थी कि व‍ह कितना शानदार काम कर रहा है। उसे प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलोशिप पर काम करने के दौरान 2013 में जब पुलिस ने हिरासत में लिया था उसकी भी खबर मिली थी। मुझे अकसर उसे लेकर एक किस्‍म के सरोकार या कहें गर्व का भाव रहता था।

अब जबकि महेश और चार अन्‍य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है और उसके साथ वो सब कुछ हो रहा है जिसे ”जांच” का नाम दिया जाता है, मुझे फिर से वही अहसास हो रहा है।

ऐसा लगता है कि इस बार भी उसे गलत आधार पर पकड़ा गया है। आखिर महेश जैसे सामुदायिक कार्यकर्ताओं को वे ऐसे प्रताडि़त क्‍यों करते हैं जो इतनी कठिन परिस्थितियों और जग‍हों पर राज्‍य की योजनाओं व कार्यक्रमों को लागू करने के लिए जुटे रहते हैं?

ज़मीन पर काम करने वाले तमाम अच्‍छे कार्यकर्ताओं को ये लोग पकड़ लेंगे तो कौन बचेगा? फिर कैसे कोई गरीबों और वंचितों के बीच काम करने को लेकर प्रोत्‍साहित किया जा सकेगा?

छह साल पहले कॉलेज छोड़ने के बाद पिछले साल अप्रत्‍याशित रूप में हमारी मुलाकात ब्राज़ील में राजनीतिक शिक्षण पर कंद्रित एक कार्यक्रम में हुई थी।

वहां भी मैंने उसे ज्ञान के प्रति वैसा ही भूखा पाया जैसा वह कॉलेज में होता था। वह और ज्‍यादा विनम्र, ईमानदार और करुणा से भरा हुआ दिखता था। सबसे ज्‍यादा हाशिये के लोगों के बीच ज़मीन पर काम करने से ये गुण उसके भीतर पैदा हुए थे।

मुझे याद है कि जब क्‍लास नहीं होती थी तब वह पेड़ के नीचे बैठा होता, कुछ रेखाचित्र खींच रहा होता या अपने बिस्‍तर में पड़ा होता था। कभी वह पढ़ता होता था तो कभी कैंपस की रसोई में बरतन मांजता मिलता था। वह इन सब के बीच मानव मुक्ति के गीत गुनगुनाता रहता था।

अभी मैंने टाइम्‍स ऑफ इंडिया की एक खबर में देखा जिसमें लिखा था कि पुलिस के पास गुप्‍तचर सूचना है कि वह भारत सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काने के लिए ब्राज़ील गया था। हाय रे TOI! हाय रे महाराष्‍ट्र पुलिस! इतने सारे संसाधनों और संपर्कों के बावजूद आप एक बुनियादी चीज़ खोजने में मात खा गए?

क्‍या आप ENFF (फ्लोरेस्‍टन फर्नांडीज़ नेशनल स्‍कूल, ब्राज़ील) लिखकर गूगल नहीं कर सकते थे या फिर बेहतर होता कि तमाम देशों और संगठनों में मौजूद हमारे जैसे लोगों से पूछ ही लेते जो वहां हर साल होने वाले आयोजन में नियम से जाते हैं?

महेश को रेखाचित्र बनाना पसंद था। मुझे याद है वह दोपहर जब हमने भारत का तिरंगा पेंट करते हुए वक्‍त बिता दिया था। ऐसे ही एक बार ब्राज़ील के कार्यक्रम में दुनिया भर के छात्रों के सामने प्रदर्शन के लिए हमने भगत सिंह पर इंकलाबी गीत तैयार किए थेा।

समझ नहीं आता कि जनता और जनतंत्र का एक प्रेमी आखिर अचानक कैसे राष्‍ट्रविरोधी और देश को खतरा हो सकता है।

वह दिसंबर में घर आया था। वो और मेरे कई दोस्‍त दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कोलकाता में क्रिसमस के उत्‍सव के दौरान मेरे यहां थे और मेरी मां के हाथ का बने खाने की तारीफ़ किया करते थे। पुलिस और मीडिया में आई खबरों के मुताबिक उस वक्‍त वह भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के लिए प्रतिबंधित संगठनों को फंड करने की तैयारी में जुटा था।

पिछले साल ब्राज़ील में उससे मुलाकात के बाद मैं उसका काम देखने के लिए गढ़चिरौली गई थी। गांव दर गांव मैंने पाया कि लोग सशक्‍त और स्‍वावलंबी हुए थे। उनका भला हुआ था। आदिवासियों ने वनाधिकार कानून का प्रयोग कर के अपनी ज़मीन, आजीविका और वनाधिकारों को बचाने का काम किया था।

ये आदिवासी ग्राम सभा जैसी पंचायती राज संस्‍थाओं का प्रयोग कर रहे थे और जिला परिषद के चुनाव लड़ रहे थे- वनोत्‍पादों की बिक्री में लगे ठेकेदारों के गिरोह को चुनौती देने के लिए ये लोग अहिंसक और पूरी तरह संवैधानिक तरीकों का प्रयोग कर रहे थे और इसमें वे काफी हद तक कामयाब भी रहे।

जिस दौर में हम सत्‍ता के केंद्रीकरण और पूंजी के निजीकरण को बढ़ता हुआ देखते हैं, ऐसे में मेरे खयाल से यह काफी सराहनीय काम था। वहां से संघर्ष और प्रेरणा की कहानियां लेकर मैं बिहार के उन जाति विभाजित इलाकों में गई जहां मैं आजकल रहकर काम करती हूं।

गढ़चिरौली में मैंने एटापल्‍ली तहसील की सुरजागढ़ पहाडि़यां देखीं। स्‍थानीय लोग इसे पवित्र मानते हैं। राज्‍य और कॉरपोरेशन आज इन पहाडि़यों का अधिग्रहण करने में लगे हुए हैं ताकि वहां खदानें खोली जा सकें। यहां हर गांव में मुझे वर्दीधारी और बंदूकधारी सिपाही दिखे और अर्धसैन्‍य बलों के चेक प्‍वाइंट दिखे।

मैंने यहां जेसीबी मशीनें देखीं, नई खुली ऑटोमोबाइल पार्ट की दुकानें देखीं। ये सब यहां खनन का काम आसान बनाने के लिए थे। मैंने देखा कि आदिवासी औरतें अपने घर में हताश होकर बैठी हुई थीं। उन्‍हें बाहर जाने पर जांच-पड़ताल, छापे और हिरासत में लिए जाने का डर था। ये लोग अपने ही घरों में कैदी की तरह होकर रह गए थे।

मैंने ग्राम सभा के सदस्‍यों का मज़बूत संकल्‍प भी देखा जो अपने आर्थिक शोषण और मानवाधिकार उल्‍लंघनों का समाधान खोजने के लिए एकजुट थे।

महेश इन तमाम गांवों में बहुत लोकप्रिय था और जिन लोगों के साथ मैं गई थी, वे भी उसे बहुत प्‍यार करते थे। वे उसे अपने घर का ही सदस्‍य मानते थे। कुछ लोगों ने तो मुझसे उसे शादी के लिए मनाने को भी कहा। उन्‍हें लगता था कि वह बहुत मेहनत करता है और अपनी सेहत का पर्याप्‍त ध्‍यान नहीं रखता। उन्‍हें लगता था कि शादी हो जाने पर उसका अकेलापन कम होगा और जिंदगी के दूसरे पहलुओं में भी संतुलन आएगा।

महेश भाऊ, कोशिश कर के जल्‍दी कैद से निकल आओ और शादी करने का सोचो। मुझे उन जंगलों में तुम्‍हारे शादी के जश्‍न में आना है। पता चला है कि वहां शादी में काफी खाते-पीते और नाचते-गाते हैं।

इस बीच एक दोस्‍त और आंदोलन के एक अनुभवी साथी के रूप में महेश के प्रति मेरे मन में इज्‍जत और बढ़ गई है। इस बार हालांकि कोई प्रभाव या श्रद्धा वाला भाव नहीं है।

बस, उसकी ताकत और कमजोरियों के प्रति मेरी समझदारी और सहानुभूति में लगातार इजाफा हुआ है। उन लोगों और उन सरोकारों के साथ मेरी एकजुटता और गहरी हुई है जिनके साथ वह खड़ा था।

इस अंधेरे वक्‍त में मेरा संकल्‍प और मज़बूत हुआ है कि संघर्ष जारी रहना चाहिए!

”हम लड़ेंगे साथी…”!


यह लेख dailyo से साभार प्रकाशित है

 

 

First Published on:
Exit mobile version