जितेंद्र कुमार
अब जबकि उत्तर प्रदेश में एक चौथाई से ज्यादा सीटों का मतदान पूरा हो गया है, यह सवाल अभी भी महत्वपूर्ण बना हुआ है साथ ही उलझा हुआ है कि सरकार किसकी बन रही है? हर सुबह जब हम हिन्दी का कोई भी अखबार उठाते हैं या फिर जब कभी कोई भी न्यूज चैनल खोलते हैं तो आभास यह होता है कि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को हराने के लिए समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन के नेता लचर साबित हो रहे हैं.
टीवी एंकरों और रिपोर्टरों की भाषा और रुझान से ऐसा आभास मिल रहा है कि बीजेपी या तो चुनाव जीत गई है या सबसे आगे चल रही है. जबर्दस्ती अखिलेश यादव और राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाने का षडयंत्र कर रहे हैं.
मीडिया, खासकर हिन्दी मीडिया की स्थिति यह है कि वह समझने में बार-बार चूक कर रहा है कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव पिछले पांच वर्षों से मुख्यमंत्री हैं जबकि नरेन्द्र मोदी पिछले पौने तीन वर्षों से देश के प्रधानमंत्री हैं.
हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी, अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मुहिम में लगे हुए हैं, उनके साथ उनकी पार्टी और अमित शाह भी हैं. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है जो पूरी तरह जायज है. हां, यह अलग बात है कि अगर बीजेपी यूपी में चुनाव नहीं जीतती है तो मोदी से अधिक अमित शाह पर इसकी सीधी आंच आएगी.
लेकिन उत्तर प्रदेश के इस चुनावी परिवेश में मीडिया इन चीजों के अलावा जिस एक तथ्य को पूरी तरह, कई बार जानबूझकर नकार रही है वह है राज्य में मायावती और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की उपस्थिति.
यहां भी लगता है कि मीडिया प्रधानमंत्री मोदी के उस मजाक का शिकार हो गई है जिसके मुताबिक नोटबंदी से सबसे ज्यादा नुकसान बसपा को हुआ है क्योंकि उनके पास सबसे अधिक काला धन था. और चूंकि काला धन खत्म हो गया है और अब उनके पास देने (मतलब अखबारों और टीवी चैनलों को देने के लिए) के लिए कुछ बचा ही नहीं है, इसलिए उनके बारे में लिखने का कोई फायदा नहीं.
अगर मजाक को एक तरफ रख कर थोड़ी सी निगाह उत्तर प्रदेश की सियासी सच्चाई पर डालें तो इस बात के सिर्फ आर्थिक पहलू नहीं हैं. मीडिया से मायावती के गायब होने का दूसरा कारण खुद मीडिया की सामाजिक, मानसिक और जातीय संरचना भी है.
मीडिया का जातिवाद
सवाल यह है कि चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी, जिनके पास पिछले लोकसभा चुनाव में भी 20 फीसदी के आसपास वोट था, उन मायावती को इस स्तर तक नजअंदाज क्यों किया जा रहा है?
सिर्फ पांच साल पहले तक वो उत्तर प्रदेश की न सिर्फ मुख्यमंत्री थीं बल्कि आजाद भारत के इतिहास में उन्होंने उत्तर प्रदेश में पहली सरकार चलाई जिसने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. उनका जबर्दस्त जनाधार रहा है. अगर पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव को देखा जाए तो उन्हें क्रमशः 26 फीसदी (25.91) और 20 फीसदी (19.60) मत मिले हैं.
2007 के विधानसभा चुनाव में 30 फीसदी से अधिक वोट पाकर वह मुख्यमंत्री बनी थीं और सपा 25.43 फीसदी वोट पाकर 97 सीटों पर सिमट कर दूसरे स्थान पर पहुंच गई थी.
उसी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मात्र 15 फीसदी वोट मिले थे. क्या कारण है कि मात्र 15 फीसदी वोट पाने वाली पार्टी को सत्ता का सबसे बड़ा दावेदार माना जा रहा है और जो पार्टी अपनी स्थापना के बाद से लगातार अपने प्रदर्शन में सुधार करती रही है, जिसे 20 फीसदी से अधिक वोट मिलता रहा है उसकी चर्चा तक नहीं हो रही है?
एक और बात इसी दौरान यह हो रही है कि अखिलेश यादव और राहुल गांधी की जोड़ी को भी मीडिया लेकर उड़ रहा है. सपा-कांग्रेस गठबंधन को दी जा रही अहमियत को भी समझने की जरूरत है.
हालांकि देखने में ये दोनों सवाल भले ही बहुत आसान लगें लेकिन इसका जवाब खोजना बहुत ज्यादा मुश्किल है. पहले अखिलेश यादव को दी जा रही अहमियत पर बात करते हैं. यह सही है कि अखिलेश यादव के पांच साल के कार्यकाल के खात्म होने के बावजूद भ्रष्टाचार का कोई आरोप उन पर नहीं लगा है.
कमोबेश यह बात भी सही है कि तथाकथित विकास का जो नैरेटिव मोदी के ऊभार के बाद से पूरे देश में प्रचारित-प्रसारित हुआ है, अखिलेश उस दौड़ में भी काफी हद तक खरा उतरे हैं. हालांकि जिस विकास की अवधारणा फिलहाल हम देख रहे हैं उसे इतने संकुचित ढंग से परिभाषित कर दिया गया है कि गढ्ढ़ा खोदना और ईंट लगा देना ही विकास कहलाने लगा है और समेकित विकास की सोच लगभग भुला दी गई है. खैर यह अलग विषय है.
सबसे महत्वपूर्ण बात अखिलेश ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में जिस तरह अपने परिवार के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसमें विजयी सिद्ध हुए उससे लोगों को लगा कि वह एक ताकतवर नेता भी हैं और परिवारवाद के खिलाफ भी हैं. अपने पिछले कार्यकाल के विपरीत अब अखिलेश अगर सत्ता में आते हैं तो कई अहम फैसले ले सकते हैं जो पारिवारिक दबाव के चलते अपने वर्तमान कार्यकाल में वे नहीं ले सके.
दलित पिछड़ा राजनीति और मायावती
लेकिन मायावती को नजरअंदाज करने के पीछे मीडिया और तथाकथित प्रबुद्ध वर्गों की एक सोची समझी रणनीति रही है. मायावती उत्तर भारतीय राजनीति परिदृश्य में मजबूती से दलितों-पिछड़ों की राजनीति करने वाली अकेली नेता बची हैं. दूसरे नेता लालू यादव थे पर सजा होने के बाद उनकी चुनावी भूमिका बेहद सीमित हो गई है.
इस दौरान मुलायम सिंह से लेकर दूसरे तमाम नेता जो सामाजिक क्रांति की कोख से पैदा हुए उन्होंने अपनी राजनीति के साथ तमाम समझौते किए. सबने एक बड़ा वोटबैंक बनाने की लालसा में अपनी राजनीति से समझौता किया. इस लिहाज से मायावती और लालू यादव अपनी राजनीति में लगातार स्थिर बने रहे हैं.
मायावती उन कुछेक नेताओं में हैं जिनका संघर्ष का इतिहास है, जिसने दलितों की आवाज को अपनी ताकत में बदला है. हालांकि सांप्रदायिकता से लड़ाई के मामले में उनका नजरिया बहुत साफ नहीं रहा है क्योंकि चार में से तीन बार वह बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी हैं. फिर भी, बदले में उन्होंने वैसा कोई काम नहीं किया है जिससे सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का बीजेपी को मौका मिला हो. बल्कि इन तीनों मौकों का इस्तेमाल उन्होंने अपनी राजनीति और वोटर को मजबूत करने में किया और समय आने पर भाजपा से किनारा कर लिया.
तीसरी बात, जब आरएसएस के प्रवक्ता मनमोहन वैद्य ने बयान दिया कि आरक्षण खत्म कर देना चाहिए तब मायावती गिने-चुने नेताओं में थी जिसने इसका विरोध किया था. लालू यादव भी उनमें से एक थे.
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनाव में शामिल किसी भी सामाजिक न्याय की सियासत से जुड़े नेता, जिसमें अखिलेश यादव भी शामिल हैं, ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें लगता है कि आरक्षण के मसले पर चुप्पी साधकर सवर्णों का वोट भी पाया जा सकता है.
दूसरी तरफ पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बड़े नेता मुलायम सिंह अपने ही बेटे द्वारा किनारे लगा दिए गए हैं, जिनकी खुद की बनाई हुई विरासत थी और सांप्रदायिकता से लड़ने का इतिहास भी था.
अखिलेश यादव और नीतीश कुमार इस मामले में पूरी तरह अलहदा हैं. वे दोनों नेता भले ही पिछड़े वर्ग से आते हों लेकिन उनकी कोई वैसी समृद्ध विरासत नहीं है. वो अपने चाल और चरित्र, दोनों में सवर्ण मध्यम वर्ग की तरह लगते हैं, उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं. उनका न तो सामाजिक न्याय में गहरा विश्वास है (जैसा लालू या मायावती का है) और न ही सांप्रदायिकता से लड़ने का कोई इतिहास है (जैसा मुलायम और लालू का है).
इस आईने से जब हम मीडिया की मायावती और लालू के प्रति हिकारत को देखते हैं तब चीजों को समझने में आसानी होती है. यही मीडिया अखिलेश या नीतीश से कतई घृणा नहीं करता.
आज उत्तर प्रदेश के चुनाव में हम जो देख रहे हैं इसके सूत्र मीडिया की इसी मानसिकता में छिपा है. मायावती मीडिया में पूरी तरह से भुला दी गई हैं, अपनी तमाम ताकत और पकड़ के बावजूद.
मीडिया को यह हकीकत समझ लेनी चाहिए वरना हो सकता है कि 11 मार्च के बाद जब तक उसे अपनी गलती का अहसास हो तब तक उसके हाथ से बगलें झांकने का मौका भी निकल चुका होगा.