क्या इस बार गांधी देश की सबसे बड़ी और प्रमुख आंतरिक अनिवार्यता हैं?

मुझे नहीं लगता कि अपनी हाल-फ़िलहाल की स्मृति में मैंने लोगों को महात्मा गांधी को इतना अधिक, इतनी तीव्रता के साथ याद करते हुए कभी देखा हो। अगर हर साल 2 अक्टूबर को होने वाले औपचारिक-अनुष्ठानों को छोड़ दें, तो निजी स्तर पर इस तरह, इतनी बहुतायत में शायद ही कभी गांधी जी को याद किया गया हो। सोशल मीडिया और इंटर्नेट की मौजूदगी की वजह से गांधी-स्मृति की इस बाढ़ या आँधी की विशालता ध्यान देने लायक़ है। क्या यह किसी बेचैन पुकार की तरह है? या मेरा ऐसा सोचना अतिरेक है?

1982-83 में, जब ओटेनबरो की ‘गांधी’ फ़िल्म रिलीज़ हुई थी और उसे कई अकादमी सम्मान मिले थे, तब उस फ़िल्म के बहाने महात्मा गांधी की चर्चा का एक नया दौर देश और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दिया था। उस समय अख़बार, रेडियो और पत्र-पत्रिकाएँ ही उन्हें याद करने और उन पर विचार करने के माध्यम थे। टेलिविज़न तब नया-नया ही था और उसकी पहुँच इतनी नहीं थी। डीडी चैनल ही हुआ करता था। सैकड़ों व्यावसायिक चैनल नहीं थे।

70-80 के दशक में भी गांधी जी को लोग भूलने लग गए थे। आम बातचीत में साधारण लोगों के बीच शायद ही भूले-बिसरे कभी उनका ज़िक्र होता था। आटेनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ को जब अपार अन्तर्राष्ट्रीय कामयाबी मिली , तो बेन किंग्सले की अटपटी विदेशी काया और लहजे के बावजूद आमतौर पर दुनिया भर के दर्शकों ने उसे पसंद किया। मज़ाक़ में कहा जाता था की भारत के लोग तो अपने गांधी को भूल गए थे, आटेनबरो ने उन्हें अमेरिका से इंडिया को एक्सपोर्ट कर के दुबारा प्रासंगिक बना दिया।

बाद में कई कई फ़िल्में गांधी को याद करती रहीं। कमल हासन का ‘हे राम’ या जान्हू बरुआ की ‘मैंने गांधी को नहीं मारा ।’ इन फ़िल्मों ने भी सीमित बौद्धिक वर्ग में लोगों का ध्यान खींचा लेकिन जैसी बॉक्स ऑफ़िस सफलता संजय दत्त की ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ या शायद ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की गांधीगिरी को मिली, वैसी उन्हें न मिल सकी। इन बीच के वर्षों में रंगमंच में भी गांधी बार-बार लौटते रहे।

लेकिन इस बार तो लगता है, जैसे गांधी की आँधी है।

क्या इस बार गांधी देश की सबसे बड़ी और प्रमुख आंतरिक अनिवार्यता हैं?

एक ओर जब गली-गली से तरह-तरह की हिंसक घटनाओं की ख़बरें आ रही हैं, जब प्रेस और मीडिया पर या तो प्रतिबंध है, या उन्हें ख़रीद कर विज्ञापन और प्रचार का माध्यम बना दिया गया है, अभिव्यक्ति और व्यक्ति की मूलभूत, मौलिक और संवैधानिक स्वतंत्रता पर ऐतिहासिक अंकुश और प्रतिबंध है, जिस पूँजी के नियंत्रण और उसके उपयोग को लेकर गांधी के स्पष्ट निर्देश थे, उत्पादन के साधनों में उद्योगों के सामने मनुष्य के श्रम का महत्व और सत्ता के विकेंद्रण की बात उन्होंने की थी या अन्यायपूर्ण शासकीय आदेशों-क़ानूनों के प्रति नागरिक असहयोग और अवज्ञा की धारणा को उन्होंने प्रस्तुत ही नहीं, उसका प्रयोग भी किया था, वह अब इतना ख़तरनाक मान लिया गया है कि उसका कोई स्पेस ही कहीं नहीं बचा।

नेशनल मंडेला ने जब कहा था कि गांधी ने हमें अहिंसा और शब्द की उस अकल्पनीय ताक़त से पहली बार परिचित कराया था, जो किसी भी हिंसा और झूठ से बड़ी थी, तो क्या ऐसा नहीं लगता कि अब आज हम उस समय में पहुँचा दिए गए हैं, जहाँ हिंसा और झूठ की ताक़त इतनी विशाल है और पूँजी का पेट इतना भूखा हो चुका है कि हम सबका जीवन ही नहीं, समूची पृथ्वी ही नष्ट होने के कगार पर है।

क्या गांधी का नाम अब किसी ऐसे मंत्र में बदल चुका है, जिसका सिर्फ़ जाप और पारायण किए जाने से कोई लाभ मिलेगा, या गांधी आज के हमारे संकटों और रोगों से उबरने का एक अनिवार्य उपाय और जीवनदायी औषधि भी हैं?


लेखक प्रसिद्ध कथाकार हैं। यह पोस्ट उनकी फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है

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