RSS कभी मुस्लिम बन चुके ब्राह्मणों और राजपूतों की ‘घर-वापसी’ क्यों नहीं कराता?

क्या दलित ही अकेला धर्मपरिवर्तन करता है? क्या ब्राह्मण ने धर्मांतरण नहीं किया है? क्या राजपूत मुसलमान नहीं बने हैं? कितने ब्राह्मणों और राजपूतों  की घर वापसी आरएसएस ने कराई है? मदुरा के ब्राह्मण ईसाईयों की घर वापसी क्यों नहीं कराई? मुस्लिम उलेमाओं में कितने ही ब्राह्मण पृष्ठभूमि से आये हैं, क्या उनकी घर वापसी कराई आरएसएस ने? आज तक एक भी ऐसी घटना सामने नहीं आई, जो यह प्रमाणित करे कि आरएसएस ने धर्मांतरण करने वाले ब्राह्मणों और राजपूतों की घर वापसी कराई हो?

प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  हमारे दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी आठवीं कड़ी जो  7 अगस्त 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 

आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–8

 

 

सच और मिथक

 

प्रश्नोत्तरी का पांचवां प्रश्न—

‘चर्च पर आरोप लगाते हैं कि वे लोग वनवासियों का धर्म-परिवर्तन करते हैं, पर आप भी तो उनकी घर-वापसी कराते हैं—फिर दोनों में अंतर ही क्या है?’

जवाब में आरएसएस कहता  है—

‘किसी मूल धर्म को बदल कर किसी अन्य धर्म में दीक्षित करना मतान्तरण है. भारत में सामान्यत: यह विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा राजसत्ता के बल पर भय, लोभ अथवा आतंक के बल पर शताब्दियों तक हुआ है. वह भले ही कैसे भी किया जाए. इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति या समूह बदले हुए मत को छोड़कर फिर अपने मूलधर्म में लौटता है, तो उसे घर-वापसी के सिवा और कहा ही क्या जा सकता है?’ यह ठीक वैसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति अपना देश या गाँव छोड़कर दूसरे देश या गाँव में आकर दस-बीस साल बसने के बाद फिर अपने देश या गाँव में लौटकर आ बसे. देखिए अपनी मिटटी और जड़ों की ओर लौटने की बहुतों में दबे रूप में ही सही, एक उत्कंठा बनी रहती है और यह उत्कंठा अनुकूल परिस्थितियाँ और माहौल पाकर और प्रबल हो जाती है, तथा व्यक्ति अपनी मिटटी और जड़ों से आ लिपटता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. घर वापसी और धर्म-परिवर्तन में बस यही अंतर है.

‘कोई अपनी जड़ों की ओर लौटे, इससे बढ़कर और ख़ुशी की बात क्या हो सकती है? जड़ों का ही दूसरा नाम धर्म, संस्कृति आदि है. अत: इसको हम निस्संदेह यथाशक्ति प्रोत्साहन देते हैं और घर वापस आने वालों का खुले हृदय से स्वागत करते हैं.’ [प्रश्नोत्तरी, पृष्ठ 8]

कितना भोला जवाब है आरएसएस का, कोई इनसे पूछे कि घर वापसी कराने का यह ठेका तुम्हें दिया किसने है? तुम होते कौन हो किसी की घर वापसी कराने वाले? तुम किसी का बाप बनने की कोशिश क्यों कर रहे हो? कोई कहीं भी जाए, किसी भी धर्म को अपनाए, उसे रोकने का लाइसेंस तुम्हें किसने दे दिया?

क्या दलित ही अकेला धर्मपरिवर्तन करता है? क्या ब्राह्मण ने धर्मांतरण नहीं किया है? क्या राजपूत मुसलमान नहीं बने हैं? कितने ब्राह्मणों और राजपूतों  की घर वापसी आरएसएस ने कराई है? मदुरा के ब्राह्मण ईसाईयों की घर वापसी क्यों नहीं कराई? मुस्लिम उलेमाओं में कितने ही ब्राह्मण पृष्ठभूमि से आये हैं, क्या उनकी घर वापसी कराई आरएसएस ने? आज तक एक भी ऐसी घटना सामने नहीं आई, जो यह प्रमाणित करे कि आरएसएस ने धर्मांतरण करने वाले ब्राह्मणों और राजपूतों की घर वापसी कराई हो?

फिर क्या कारण है कि आरएसएस दलितों और आदिवासियों का ही ठेकेदार बना हुआ है? क्या कारण है कि आर्यसमाज और हिन्दू महासभा की तरह आरएसएस भी दलितों और आदिवासियों  की ही शुद्धि करा रहा है? क्या इनका दिमाग खराब हो गया है, या ये दलित-प्रेम का ढोंग कर रहे हैं? कहते हैं, कोई अपनी जड़ों की ओर, अपने मूल धर्म में  लौटता है, तो उसे घर वापसी कहते हैं. लेकिन उसे घर वापसी कहने वाला आरएसएस कौन होता है? वह तो दलित नर्क वापसी है. अगर कोई दलित या आदिवासी, जिसे आरएसएस वनवासी कहता है, सम्मान और मुक्ति के लिए धर्म बदलता है, तो वह वापस उस धर्म में क्यों लौटना चाहेगा, जो उसके लिए नरकतुल्य है? आरएसएस उसकी जबरन घर वापसी कैसे कर सकता है?

कारण यह है कि आरएसएस नहीं चाहता कि कोई भी दलित या आदिवासी ईसाई या मुसलमान बनकर अपने जीवन को बेहतर बनाए. शिक्षित हो और अछूतपन के कोढ़ से मुक्ति पाए. इसलिए वह चमार को चमार और भंगी को भंगी ही बने रहने देना चाहता है. जैसे ही कोई दलित, ईसाई या मुसलमान बनता है, तो हिंदुत्व का ठेकेदार बना आरएसएस बलपूर्वक उसकी घर वापसी कराकर उसे फिर से दलित बना देता है.

सवाल है कि आरएसएस दलितों और आदिवासियों का ठेकेदार क्यों बन रहा है? इसके दो कारण हैं. पहला कारण यह कि आरएसएस जिस विशाल हिन्दू समाज की बात  करता है, उसकी कल्पना दलितों और आदिवासियों के बिना पूरी नहीं होती है; और दूसरा कारण यह है कि उनके हिन्दू फोल्ड में न रहने से उसका हिन्दूराष्ट्र आकार नहीं ले सकता. इस सच को नकारने के लिए ही उसने जड़ों की ओर लौटने का मिथक गढ़ा है. पर गौरतलब है कि जिन जड़ों को वह धर्म, संस्कृति कहता है, वह वास्तव में ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मण संस्कृति है, जिसका वह मुखिया बना हुआ है. उसमें कल्याण है तो ब्राह्मण का और मुक्ति है तो ब्राह्मण की. उसमें दलित का कल्याण और दलित की मुक्ति कहाँ है? आरएसएस के किसी नेता के पास इसका जवाब नहीं है.

प्रश्नोत्तरी में छठा प्रश्न यह है—

‘जातिप्रथा हमारे देश को लगा एक शाप है. इसे मिटा देने के लिए कई कानून बने हैं. फिर भी आये दिन दलितों पर अत्याचार होते रहते हैं, उनका खून बहता रहता है. इसके जिम्मेदार कौन हैं? इसे मिटने के लिए हमारे पास क्या कार्यक्रम है?’

इस प्रश्न का उत्तर आरएसएस इन शब्दों में देता है—

‘दुनिया में जाति के शाप से विमुक्त हुआ देश शायद ही कोई हो. इसी तरह दलितों पर भी अत्याचार हर समाज में होते रहते हैं. मनुष्य में छिपा पशु इस तरह से अपना सिर उठाता है. हमारे देश में जन्म के आधार पर जाति है. अमरीका में पैसे के आधार पर अघोषित जातियां हैं. कम्युनिस्ट देशों में राज करने वाले कम्युनिस्टों की ‘जाति’ अलग है, अन्य लोगों की अलग. युगोस्लाविया के कम्युनिस्ट चिंतक जिलास के लिखे ‘दि न्यू क्लास’ नामक प्रसिद्द ग्रन्थ में इसका मार्मिक वर्णन है. मनुष्य के पास जब बुद्धिबल, अधिकार व अमीरी का बल होता है, तब वह दूसरों के साथ इसी तरह पेश आता है. मनुष्य का यह दुर्व्यवहार दुनिया भर में देखा जाता है.

‘इसका मतलब यह नहीं कि जाति-पद्धति के बारे में हमें माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है. इस पद्धति का मूल क्या है, यह समझाने के लिए इतना विवरण देना पड़ा. आजकल अनेक लोग विभिन्न जाति-पंथ-वर्ग-प्रांत के लोगों में जातिभेद को भड़काकर उसे बढ़ा-चढ़ाकर, अपने स्वार्थ  की दाल गला लेने वाले हैं. ‘जाति-उद्धार’ का बहाना बनाकर अपनी नौकरी, शिक्षा, पदोन्नति आदि करा लेने वाले हर कहीं दिखाई पड़ते हैं. कुर्सी प्राप्त करने के लिए जाति की सीढ़ी चढ़ने की कोशिश न करने वाला कोई राजनेता अब देखने को मिलेगा क्या? अपने जाति-बांधवों में जाति के सम्बन्ध में दुरभिमान भड़काकर, अन्य जातियों के प्रति ईर्ष्या फैलाकर, अपने आपको हमेशा के लिए जाति का नेता बनाए रखने की कोशिश करने वाले, पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व केवल मैं ही कर सकता हूँ, ऐसा सोचने वाले अब दिल्ली से गली-गली तक हर कहीं देखने को मिलते हैं.

‘जैसे शरीर दुर्बल होते ही बीमारियों का शिकार बनता है, वैसे ही समाज की हालत भी होती है. जब समाज में एकता, समरसता, सामाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा कम होती जाती है, तब सभी बुराइयाँ सिर उठाती हैं. सारा समाज एक शरीर के जैसा है, यह भाव जब प्रबल होता है, तब सभी बुराइयाँ दूर हो जाती हैं. समाज को सशक्त बनाने का यह एकमात्र मार्ग है. समाज को सशक्त बनाने के लिए हमारे जैसे आम लोग क्या कर सकते हैं? इसके दो मार्ग हैं. एक है—जाति-पंथ-प्रांत-भाषा-सम्प्रदाय आदि को लेकर समाज में फूट डालने की कोशिश करने वालों से दूर रहना; ऐसे आंदोलनों से, पक्षों से, व्यक्तियों से दूर रहना, कोई सम्बन्ध न जोड़ना. दूसरा है—समाज के सभी वर्गों में समरसता लाने वाले कार्यक्रमों में भाग लेना. यह आवश्यक कार्य है. संघ इसी में जुटा है.’

आरएसएस के इस विस्तृत जवाब में यह स्वीकार कर लिया गया है कि जाति कर्म से नहीं, जन्म से होती है. जब जाति जन्म से होती है, तो जन्म से ही उस जाति का कर्म भी होता है. दलित जातियां अपने जन्मन: कर्म को छोड़ रही हैं, इसलिए उन पर अत्याचार हो रहे हैं. इसलिए आरएसएस का कहना  है कि दलित जातियां अपने नायकों से दूर रहें, जो उन्हें जन्मन: कर्म से दूर करके समाज की समरसता भंग कर रहे हैं.

यह समरसता क्या है, जिसका राग आरएसएस के नेता आजकल ज्यादा अलाप रहे  हैं. वे जब दलितों के साथ पत्तलों पर खिचड़ी-भोग करते हैं, तो इसे वे समरसता कहते हैं. जब वे अपने किसी दलित-पिछड़े नेता या कार्यकर्त्ता के घर में जमीन पर बैठकर खाना खाने का उपक्रम करते हैं,  तो उसे वे समरसता कहते हैं. कहा जाता है कि यह आरएसएस के जनसंघी चिंतक दीनदयाल उपाध्याय [1916-1968] के राजनीतिक दर्शन—एकात्म मानववाद से आया  है, जिसे उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद के भारतीय विकल्प के तौर पर गढ़ा था. एकात्म मानववाद के दर्शन पर आरएसएस इसलिए मुग्ध है, क्योंकि इसमें मनुवाद मूल रूप से मौजूद है.  यह दर्शन असमानता की विचारधारा को मानता है. उसकी मान्यता है कि समानता का दर्शन भारतीय नहीं है, वह पश्चिम की समाजवादी अवधारणा के साथ भारत में आया है, इसलिए विदेशी है. इसलिए आरएसएस समाजवाद का घोर विरोधी है. उसके अनुसार हिंदुत्व में समानता नहीं है, मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता नहीं है, तथा स्त्री और पुरुष के बीच समानता नहीं है. फिर समरसता क्या है? एकात्म मानववाद में इसका मतलब है कि जिस तरह हाथ की पाँचों उँगलियाँ समान नहीं हैं, पर उनके बीच एक समरसता होती है, उसी तरह हिन्दू समाज में सभी जातियां समान नहीं हैं, परन्तु वे सब जातियां जिस तरह एक-दूसरे के साथ कर्तव्य-भावना से जुड़ी हुई हैं—जैसे, किसी का काम पढ़नेलिखने का है, किसी का रण में युद्ध करने का है,  किसी का व्यापार करने का है और किसी का सेवा करने का है,  उसी का नाम समरसता है. परोक्ष  रूप से यह वर्णव्यवस्था का ही दूसरा नाम है. इसलिए आरएसएस अपने उत्तर में आरम्भ में ही कह देता है कि जाति से मुक्त कोई देश नहीं है, अमरीका में भी जाति है और कम्युनिस्ट भी क्लास के रूप में जाति को मानते हैं. यानी जाति उसके लिए बुरी चीज नहीं है. बुरी चीज उसके लिए विकृति है, जो जातिव्यवस्था में आ गयी है. वह कहता है कि इसी विकृति से समरसता भंग हुई है, और समरसता भंग होने से दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं. लेकिन आरएसएस के इन अंधे चिंतकों से यह पूछा जाना चाहिए, कि वर्णव्यवस्था में विकृति आ जाने से दलितों पर ही अत्याचार क्यों हो रहे हैं? ब्राह्मण, ठाकुर और बनियों पर अत्याचार क्यों नहीं हो रहे हैं? जब पूरी व्यवस्था में ही विकृत आ गयी है,  तो उसका असर सभी वर्णों और जातियों पर पड़ना चाहिए, केवल दलितों पर ही क्यों पड़ रहा है? आरएसएस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है.

अब यह भी देख लेते हैं कि आरएसएस की नजर  में वर्णव्यवस्था की समरसता को भंग करने वाली विकृति क्या है? इसे आरएसएस ने अपने उक्त जवाब में कहा है–  पिछड़ी जातियों के लोग ‘जाति-उद्धार’ को बहाना बनाकर अपनी नौकरी, शिक्षा, पदोन्नति आदि कराने का काम कर रहे हैं, और कुर्सी पाने के लिए वे विभिन्न जाति-पंथ-वर्ग-प्रांत के लोगों में जातिभेद को बढ़ा-चढ़ाकर भड़काकर अन्य जातियों के प्रति ईर्ष्या फैलाकर और प्रतिनिधित्व का सवाल उठाकर नेता बन रहे हैं. इससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा, नौकरियों और शासन में दलित-पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का सवाल ही आरएसएस के लिए वर्णव्यवस्था में आई वह विकृति है, जिससे समरसता भंग हुई है.  वह चाहता है कि शिक्षा, नौकरियों और शासन में दलित वर्गों का आरक्षण और प्रतिनिधित्व समाप्त हो, और समरसता कायम हो. जाहिर है कि कुँए के मेढकों की सोच कुँए वाली ही होती है, क्योंकि वे कुँए की अँधेरी दुनिया को ही एकमात्र दुनिया समझते हैं. इसलिए उन्हें बाहर की दुनिया और उसकी प्रगति की कोई जानकारी नहीं होती है. फिर जिस हिंदुत्व का आधार ही असमानता हो, वह दलित वर्गों का समान उत्थान कैसे स्वीकार कर सकता है?

[जारी…]

 

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