पत्थलगढ़ी तो बहाना है, ‘किष्किन्धा’ असल निशाना है!

सत्यम श्रीवास्तव

हाल ही में झारखण्ड में पत्थलगढ़ी के समर्थन में फेसबुक पर पोस्ट लिखने और शेयर करने को अपराध मानते हुए बीस प्रबुद्ध नागरिकों पर राजद्रोह के मुकद्दमे दर्ज होना ‘न्यू नार्मल’ की श्रेणी की परिघटना मान ली गयी और इसे लेकर समाज की बड़ी जमात में कोई खास हलचल हुई नहीं. इसे अनदेखा भी किया गया, जैसा रोज़ होने वाली घटनाओं को किया जा रहा है. इसी मुद्दे को लेकर एक बैठक दिल्ली में ‘अवार्ड’ के दफ्तर में हुई जिसमें करीब 30 लोगों ने भागीदारी की. इस बैठक में झारखंड से पत्रकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार भी उपस्थित रहे जो इन बीस आरोपितों में से एक हैं.

वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा- “रोज़ एक से बड़ी एक घटनाएं हो रही हैं… इसे लेकर बहुत चिंता की बात नहीं है क्योंकि इस मुकद्दमे का कोई ठोस आधार नहीं है”. फिर भी यह परिघटना बल्कि आदिवासियों से जुड़ी हर छोटी-बड़ी घटना तमाम मुख्यधारा की चिंताओं व चिंतनों से उपेक्षित रह जाने के बावजूद सरकार नामक व्यवस्था का ध्यान ज़रूर खींच लेती है और त्वरित कार्यवाहियों को अंजाम देने की कोशिशें यह सन्देश तो देती ही हैं कि भले ही हम इस तरह की घटनाओं के लिए बहुत अभ्यस्त हो चुके हों और उदासीनता की हद तक इन पर ध्यान न दे रहे हों] पर सरकारें इन्हें लेकर वाकई गंभीर हैं. असल सवाल भी यही है.

बीते छह महीनों में जिस तेज़ी से यह शब्द (पत्थलगढ़ी) अलग-अलग वज़हों से सुर्ख़ियों में बना रहा है तो उसके पीछे केवल आदिवासी परम्परा का हवाला देना ठीक नहीं और इस निष्कर्ष पर अब पहुँच जाना जल्दबाजी नहीं कहलायेगा कि आदिवासी हलकों में पारंपरिक औजारों से एक नयी राजनैतिक लड़ाई की शुरुआत हो चुकी है. इस राजनैतिक लड़ाई के पीछे तमाम भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिस्थितयां हैं जो हाल के बर्षों में बलात पैदा की गयीं हैं. इसलिए पत्थलगढ़ी केवल सांस्कृतिक, पारंपरिक सामुदायिक अभिव्यक्ति ही नहीं बल्कि राजनैतिक परिघटना है जिसका उभार हाल के दौर में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में देखा जा रहा है. इस उभार को इतना महत्व शायद नहीं मिलता अगर इसकी प्रतिक्रिया में राजकीय दमन और हिंसात्मक कार्यवाहियां न हुई होतीं.

अलग-अलग नामों से विभिन्न राज्यों में शुरू हुए इस राजनैतिक आन्दोलन ने झारखण्ड व छत्तीसगढ़ की सरकारों को जल्दी ही प्रतिक्रियाएं देने के लिए मजबूर कर दिया और राज्य सरकारों की ओर से उठाये गए क़दमों की बौखलाहट ने भी इस धारणा को पुष्ट किया है कि मामला आदिवासियों की परंपरा व रूढ़ियों से अलग कुछ ‘और’ है. आखिर परम्परा के इस इज़हार में ऐसा क्या है जिससे राज्य सरकारें बैचेन हुई हैं? जिनका आदिवासी संस्कृति और उनके दैनंदिन व्यवहार, आचार-विचार से मुख़्तसर भी तार्रुफ़ है वे यह बता सकते हैं कि पत्थलगढ़ी तो इन समुदायों में आदिकाल से चली आ रही है. आर्यों के ‘आगमन’ से लेकर मुग़लों के ‘आक्रमण’ (सरकार द्वारा तय पाठ्यक्रम में हमें ऐसा ही पढ़ाया गया है) और अंग्रेजों के राज तक में इन समुदायों ने इन परम्पराओं का पालन किया है. फिर जब देश आज़ाद हुआ तब इन परम्पराओं को संविधान की पांचवीं अनुसूची में मान्यता भी मिल गयी. पांचवीं अनुसूची संविधान का अनिवार्य हिस्सा है यानी जिसके बिना भारत का संविधान पूरा नहीं माना जा सकता. आजादी के बहत्तर साल में भी इनके पारंपरिक अनुष्ठानों पर ‘लांछन’ नहीं लगाने का संवैधानिक लोकाचार जारी रहा. इसी बहत्तरवें साल में ऐसा क्या हो गया कि संविधान प्रदत्त ये अधिकार सरकारों को चुभने लगे?

मुद्दे की कम गहराई में जाकर भी इसके दो करण स्पष्ट रूप से समझे जा सकते हैं –पहला और अनिवार्य से प्रमुख कारण तो है प्राकृतिक संसाधनों को इन समुदायों से “बलात” हड़पने की मंशा और कोशिश. “बलात” इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तान के संविधान में एक भी ऐसा ठोस कानून नहीं है जो आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों से उनके संसाधनों को हड़पने को वैधानिक आधार सरकार को देता हो. और ऐसा भी नहीं कि राज्य सरकारें इस बुनियादी तथ्य से नावाकिफ हों. सरकारें यह बात भली-भाँति जानती हैं कि अगर वैधानिक ढंग से संसाधन लेने की बात होगी तो यह संभव नहीं होगा. इसलिए जो इस “न्यू इण्डिया” का मूल मंत्र है ‘परसेप्‍शन’ और जिसके लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने अपने दौर के कैपिटलिज्म की भाषा में ‘संसाधनों को सक्षम हाथों में देना कहा’ था और जिसकी बुनियाद पर नए उभरते मध्यवर्ग की उम्मीदों को पूरा समर्थन मिला था- उसे आदिवासियों के खिलाफ निर्मित करना. ऐसा तभी हो सकता है जब इन्हें उकसाया जाए या इनकी किसी भी अभिव्यक्ति को कुचलने की कोशिश की जाए ताकि खुशामदी मीडिया की पीठ पर सवार यह नेगेटिव परसेप्‍शन व्यापक रूप से प्रसार पाये और अंततः सरकारें अपने किये को कानूनसम्मत ठहरा सकें. खेल का नियम बदलना इसे ही कहते हैं. जहां सरकारें कानूनी रूप से बैकफुट पर थीं वो अब फ्रंटफुट पर खेल रहीं हैं और व्यापक समाज का समर्थन उन्हें मिल रहा है.

बात शुरू हुई थी ग्राम सभा की सर्वोच्चता पर और प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम सभा के स्वामित्व अधिकार से जो अब पहुँच गयी कानून व्यवस्था बनाये रखने पर. जब ग्राम सभाएं अपनी सर्वोच्च भूमिका का इज़हार कर रहीं थीं तो संविधान के लगभग सारे प्रावधान उनके पक्ष में थे, जिनमें संविधान की पांचवीं अनुसूची, ग्यारहवीं अनुसूची, 73वां संविधान संशोधन, पेसा कानून, सर्वोच्च न्यायालय का समता जजमेंट, वन अधिकार मान्यता कानून आदि शामिल थे. जब सरकार ने इनकी अभिव्यक्ति को कुचला तो आधार बन गया ‘इन्डियन पीनल कोड’ (भारतीय दंड संहिता) और जिसका अनुपालन सरकार को करना है. खेल के इस बदले हुए नियम को केवल प्राचीन और आदिम व्यवस्थाओं का हवाला देकर समझना नाकाफी होगा.

इस खेल को समझने का दूसरा सिरा हमें हिन्दू राष्ट्र या रामराज्य बनाने की राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की राजनैतिक संकल्पना में मिल सकता है. इसका संबंध सत्तासीन मौजूदा राजनैतिक दल, उनकी राजनैतिक विचारधारा और निर्मित सरकारों व संविधान के बीच के बुनियादी टकराव में है. यह आशंका इसलिए भी की जा सकती है क्योंकि हमारा देश अब रामराज्य की दिशा में अग्रसर है और इस रामराज्य की प्राथमिक विशेषताओं में सर्वोपरि है उत्तर भारत में निवासरत हिन्दुओं विशेष रूप से ‘विप्रवादी व्यवस्था’ से अलहदा किसी भी अन्य सामाजिक आचरण के प्रति घृणा और हिकारत की भावना को देश के हित में प्रतिष्ठित करना. इस नए बनते रामराज्य में सिवा सवर्ण हिन्दुओं (और स्‍पष्‍टत: द्विजों के) के किसी भी अन्य परम्परा को लांछित करना बहुत ज़रूरी है ताकि हिन्दू राष्ट्र की प्रतिष्ठा की जा सके. इसकी एक झलक मध्यकाल में हिन्दुओं के समन्वयकर्ता गोस्वामी तुलसीदास ने इस उद्घोष में की थी कि यह देश मलेच्छों के आतंक से ग्रसित हो गया है (मलेच्छासुक्रान्ता देश) और रामचरित मानस रचते हुए उन्होंने एक राजनैतिक कार्यक्रम राम के माध्यम से दिया था. वह कार्यक्रम था रावण से अंतिम युद्ध से पहले किष्किन्धा को अपने नियंत्रण में लाना.

यह केवल भौगोलिक प्रस्तुतिकरण नहीं था कि अंतिम दुश्मन तक पहुँचने के रस्ते में तमाम दूसरे समुदाय मिलेंगे जिनके साथ नियंत्रण के संबंध स्थापित किया जाना ज़रूरी है. आज जब यह कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के रूप में देश में छह सौ साल के बाद हिन्दू राज लौटा है तब राजनैतिक कार्यक्रम भी तो सिरे से बदल गया. धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता, हक अधिकार, स्वायत्तता, मानवाधिकार वगैरह अब इस कार्यक्रम के तहत परिभाषित होंगे. सरल शब्दों में हिन्दू राष्ट्र या रामराज्य मतलब हिन्दू राज. हिन्दू राज मतलब हिन्दुओं के अधीन राज व्यवस्था. ठीक इसी समय आदिवासी समुदायों ने यह कहने की गलत चेष्टा कर दी कि वे हिन्दू नहीं हैं.

पत्थलगढ़ी कर रहे आदिवासी समुदाय न केवल अपने संसाधन बचाने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि वे खुद को हिन्दुओं से अलग मानते हुए इस हिंदूवादी व्यवस्था का प्रतिकार भी कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उसके इतिहास में यह पहली ऎसी चुनौती मिली है जो उनके अब तक किये गए प्रयासों पर पानी फेर सकती है. इसलिए इससे पहले कि हिन्दू राजा के पीछे निषाद, जामवंत, सुग्रीव, नल ,नील और यहाँ तक कि हनुमान भी चलने से इनकार कर दें, यह एहतियात ज़रूरी है कि खूँटी या जशपुर में भड़की चिंगारी को तत्काल कुचल दिया जाए ताकि समूचे ‘किष्किन्धा’ को अपने नियंत्रण से बाहर हो जाने को बचाया जा सके.

इन दो मुख्य सिरों को पकड़ते हुए अगर हम इस राजनैतिक आन्दोलन को समझने की कोशिश करें और आदिवासियों के साथ एकजुटता दर्शायें, तो संविधान सम्मत आधुनिक लोकतांत्रिक समाज को बचाए रखने में बतौर स्‍वतंत्र नागरिक एक अहम भूमिका का निर्वहन कर सकेंगे.


       लेखक दिल्‍ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता हैं

First Published on:
Exit mobile version