बीएचयू में लड़कर अपना अधिकार हासिल करने वाली छात्राओं को बहुत-बहुत बधाई। हालांकि मुझे संदेह है कि जांच में दोषी पाए गए प्रोफेसर को उचित सजा, जैसे नौकरी से बर्खास्तगी और जेल मिलेगी। फिर भी बीएचयू जैसा विश्वविद्यालय, जहां शोषण के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को “मदन मोहन की बगिया” का वास्ता देते हुए “मधुर मनोहर” गाते हुए खामोश रहने की सलाह और आज्ञा दी जाती है, वहाँ शोषक के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना ही अपने आप में सराहनीय कार्य है।
अब सवाल यह उठता है कि इन्हें आज़ादी के नारों से इतनी चिढ़ क्यों है? क्या आंदोलनकारियों ने देश से आज़ादी मांगी? नहीं न? फिर शोषण और शोषणकारी व्यवस्था से आज़ादी की मांग करने से इन्हें आपत्ति क्यों है? इन्हें जातिवाद से आज़ादी नहीं चाहिए लेकिन आरक्षण को हटाना इनके लिए जरूरी है।
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ऐसा नहीं है कि शोषक/शोषिकाओं का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से साथ देने वाले/वाली सिर्फ यहीं हैं। बल्कि ऐसे/ऐसी दलाल इंसानों की कई श्रेणियां हैं।
एक श्रेणी है किसी भी पार्टी के/की भक्त की। इन्हें यह नहीं दिखता कि आसाराम ने कैसे अपने खिलाफ गवाही देने वालों को एक-एक करके मरवा दिया। इन्हें यह नहीं दिखता कि उन्नाव के बलात्कारी के खिलाफ संघर्ष करने वाली लड़की, उसके परिवार और वकील के साथ क्या-क्या हुआ। इन्हें चिन्मयानंद के अपराधों के वीडियो वाले पुख्ता सबूत नहीं दिखते। ये इन मुद्दों पर बेशर्मी से चुप रहते/रहती हैं लेकिन जैसे ही कोई किसी बलात्कारी या यौन शोषक/शोषिका के पक्ष में कोई तर्क दिखता है तो “फर्जी केस” की पिपिहिड़ी बजाने लगते/लगती हैं। मैं ये नहीं कहता कि “फर्जी मामलों” के खिलाफ मत लिखो, लेकिन जो मामले सही हैं उनमें अगर तुम चुप्पी साध ले रहे/रही हो तो तुम दलाल नहीं हो तो और क्या हो?
फिल्म इंडस्ट्री ने पहले पर्याप्त सबूतों को झुठलाते हुए आरुषि के/की हत्यारे/हत्यारी मां-बाप को निर्दोष ठहराने के लिए “तलवार” बनाई, फिर टाडा के अभियुक्त संजय के महिमामंडन के लिए “संजू” बनाई और अब “क्वीन” और “सुपर 30” के निर्देशक “विकास” को बेगुनाह साबित करने के लिए “आर्टिकल 375” बनाई है। यह समाज ऐसा ही है मजबूत इंसानों के अपराधों के बावजूद उनके साथ खड़ा होने वाला। इस समाज के मन में यह सवाल नहीं उठता कि अगर “नाना” निर्दोष था तो उसने “तनुश्री” पर हमला क्यों करवाया? इसे तो अपने स्वार्थ से मतलब है। इसलिए तनुश्री के पक्ष में बोलने वाले/वाली भी, जब “संजू” के डायरेक्टर पर यौन शोषण का आरोप लगता है तब या तो शांत हो जाते/जाती हैं या “राजकुमार” को क्लीन चिट देने लग जाते/जाती हैं।
समाज में अधिकांशतया ऐसा ही होता है। जब खुद के स्वार्थों पर आंच नहीं आती तो लोग न्यायप्रिय और क्रांतिकारी हो जाते/जाती हैं और जब खुद के स्वार्थों पर आँच आती है तो अपराधियों के/की दलाल हो जाते/जाती हैं।
इस समाज में ऐसा चलन है कि अगर पीड़ित/पीड़िता और अपराधी की जातीय, वर्गीय, धार्मिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय पहचान अलग-अलग हो तो लोग अपनी पहचान से सम्बंधित इंसान के पक्ष में हो जाते/जाती हैं।
यहाँ तक कि सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण के लिए लड़ रहे/रही वंचित समुदायों में रखे/रखी गयी इंसानों को भी यौन शोषण और बलात्कार के मामलें तब सामाजिक न्याय के मामले नहीं लगते जब उससे इनके हितों पर आँच आती हो।
बीएचयू के शिक्षा संकाय का ही उदाहरण ले लीजिए। प्राथमिक विद्यालयों में कार्यरत मेरे समकालीन कुछ रिसर्च स्कालर्स को आरक्षण प्राप्ति की अपनी लड़ाई में मेरा साथ चाहिए लेकिन ये लोग एक सुरक्षित जॉब होने के बावजूद तब खामोश रहे जब मैं पिछले दिनों एक शोषित लड़की की बात रख रहा था। अब या तो इन्हें मुझपर भरोसा ही नहीं या फिर इनके लिए आरोपी की कृपा ज्यादा महत्व रखती है। अब ऐसे में इन्हें मुझसे किसी सहयोग की उम्मीद क्यों करनी चाहिए?
एक और एक मिलकर दो बनते हैं लेकिन हर एक अगर दूसरे से खुद को अलग कर ले तो वहाँ तो शून्य ही बनेगा न? यह ठीक है कि मेरी पोस्ट पर पर्याप्त लाईक्स और टिप्पणियां आ जाती हैं लेकिन सब यहीं सोच लें तो फिर तो मेरी आवाज़ किसी तक न पहुंचे। फिर आप किस मुँह से यह कहते हैं कि मैं आपके फायदे वाले मामले में बोलूं। सामाजिक न्याय का मतलब सिर्फ “आरक्षण” ही तो नहीं है न?
अपने स्वार्थ के लिए किसी अपराधी और अपराध का पक्ष चुनने वाले/वाली इतना समझ लें कि वे अपने लड़कों को बलात्कारी और लड़कियों को शोषण होने पर चुप रहने वाली इंसान बना रहे/रही हैं।
बाकी इस समाज में कुछ खास नैतिकता तो नहीं है फिर भी इन कठिन परिस्थितियों में भी अपना स्वार्थ त्यागकर शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले/वाली हर इंसान को मेरा सलाम! आपका हौसला बुलन्द रहे!
तपन कुमार के फेसबुक पोस्ट से साभार प्रकाशित