पत्रकारों को यह अधिकार है कि वे अपनी सूचना का स्रोत चाहें तो ज़ाहिर न करें, लेकिन उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे अपुष्ट सूचना पर ताल ठोंके।
ज़ाहिर है, यह माहौल बनाने में मीडिया का बड़ा हाथ है। उसने इस ख़बर के साथ तैमूर लंग की क्रूरता की कहानियाँ पेश करनी शुरू कर दीं। बहरहाल, सेठों या कॉरपोरेट मीडिया कि सांप्रदायिक राजनीति के साथ चल रहे गठबंधन में ऐसा होना स्वाभाविक था, लेकिन अगर पुष्ट ख़बरें देने और हर हाल में तटस्थ रहने का दावा करने वाला बीबीसी भी इसी रौ में बह जाए तो अफ़सोस ही नहीं प्रतिवाद करना भी ज़रूरी हो जाता है।
तमाम दूसर मीडिया संस्थानों की तरह बीबीसी हिंदी वेबसाइट में भी बताया गया है कि सैफ़-करीना ने बेटे का नाम तैमूर लंग पर
देश में तमाम अशोक घूमते मिल जाएँगे जिनका नाम देवानाम प्रियदर्शी अशोक पर नहीं, फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार पर रखा गया क्योंकि बाप उस ज़माने के रुपहले पर्दे के राजा अशोक कुमार का दीवाना था। हो सकता है कि सैफ़-करीना भी किसी और तैमूर से प्रभावित हों या फिर उन्होंने इस बारे में सोचा ही न हो। केवल औलाद को फ़ौलाद (तैमूर का शाब्दिक अर्थ) देखना चाहते हों ? क्या यह गुनाह है ? क्या उन्हें अपने बच्चे का नाम चुनने की स्वतंत्रता नही है?
सबसे बड़ी बात कि क्या तैमूर नाम, उस लंगड़े शासक के बाद ही भाषा में आया या उसके पहले और बाद भी हज़ारों तैमूर हुए हैं ? फ़ारसी और तुर्की भाषी शहरों में तैमूर, तिमूर या इससे मिलते जुलते नामों की भरमार है। पाकिस्तान के मशहूर लालबैंड में भी तैमूर है और एक नामी पत्रकार भी इसी नाम का है। क्या सब तैमूर लंग की तरह ही क्रूर हैं। या उनके बाप भी औलाद को बस फ़ौलाद बनाना चाहते थे। हालाँकि बाप के चाहने से क्या होता है, मंसूर अली ख़ान पटौदी ने बेटे का नाम सैफ़ (तलवार) रखा तो कौन सा उसने क़त्ल किया। इस नाम के साथ गाने-बजाने ( कृपया इसे असम्मान न समझें) में ही तो जुटा है !
पर इस कोलाहल में ऋषि कपूर की बात कौन सुनेगा, जब बीबीसी ही नहीं सुन रहा है !