विनोद वर्मा तो ‘पत्रकार’ नहीं हैं, पर हैं कौन ?

पंकज श्रीवास्तव

समय हमेशा ही कठिन होता है, इसलिए यह नहीं कहूँगा कि पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए यह समय बेहद कठिन है। गाँधी जी भी पत्रकारिता की स्थिति से बहुत निराश थे। वे दक्षिण अफ़्रीका से लेकर भारत तक कई-कई भाषाओं में अख़बार निकालते रहे, क़रीब 50 साल तक ‘मिशन’ की तरह पत्रकारिता करते रहे लेकिन विज्ञापन कभी स्वीकार नहीं किया। पाप समझते थे। आज देश के सबसे बड़े मीडिया समूह टाइम्स ऑफ़ इंडिया का मालिक खुलेआम कहता है कि वह ख़बरों के नहीं, ‘विज्ञापन के धंधे’ में है !

ऐसे में किसे पत्रकार माना जाए, किसे पत्रकारिता कहा जाए? गाँधी जी या टाइम्स? या दोनों? यह कठिन सवाल ‘पत्रकार’ विनोद वर्मा की गिरफ़्तारी से उपजा है। कुछ लोग एक ‘वरिष्ठ पत्रकार’ की गिरफ़्तारी पर विचलित हैं तो कुछ लोगों के लिए इसका ‘पत्रकारिता’ से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि विनोद वर्मा काँग्रेस के लिए काम कर रहे थे।

तथ्य ठीक हैं, फ़र्क़ व्याख्या का है !

विनोद वर्मा एक भारतीय नागरिक तो हैं ही, लिहाज़ा उनके मानवाधिकारों को कुचला जाना पत्रकारों के लिए चिंता की वजह क्यों नहीं होना चाहिए? लेकिन कारोबारी मीडिया आमतौर पर चुप है।  शायद इसलिए भी कि नागरिक और मानवाधिकारों का कुचला जाना उसके सरोकार से बाहर हो चुका है। विनोद वर्मा जिस छत्तीसगढ़ से आते हैं, वहाँ ख़ासतौर पर ऐसे आदिवासियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों का जीना मुहाल है जो जल, जंगल और ज़मीन की लूट का विरोध कर रहे हैं। अब ‘पुलिसिया राज’ की वही धमक दिल्ली की सरहद पर विनोद वर्मा (पत्रकार नहीं, नागरिक सही) की गिरफ़्तारी के रूप में सुनाई पड़ी तो वह  ‘प्रतिक्रिया’ भी क्या देता !

वाक़ई आज ‘पत्रकार’ दुश्चक्र में फँसे एक दयनीय प्राणी का नाम है। थोड़ी देर पहले फ़ेसबुक पर जनसत्ता के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का बयान पढ़ा कि पिछले पाँच साल से उनके पास कोई काम नहीं है। वे यूँ ही लिख-पढ़कर काम चला रहे हैं। यह सिर्फ़ राहुल देव का मामला नहीं है। ‘वरिष्ठ’ और ‘सम्मानित’ जैसे विशेषणों का इस्तेमाल ना भी करें तो पत्रकारिता के ‘हुनर’ में माहिर एक लंबी चौड़ी फ़ौज इन दिनों बेरोज़गार है। इसका संबंध पत्रकारों की ‘सेवा-शर्तों’  को लेकर हुए आपराधिक घपले से है। यह घपला, उदारीकरण के रफ़्तार पकड़ने के साथ क़ॉरपोरेट और राजनेताओं के गठजोड़ ने किया। करते ही गए।

कारोबारी मीडिया में काम करने की शर्त है उम्र कम होना और आँख में बाँध दी जाने वाली पट्टी में उजाला खोजना। यह ठीक है कि संपादक से बहस की एक सीमा होती है, लेकिन अगर संपादक की कसौटी ‘सिद्धांत या विचार’ ना होकर मालिक से मिले ‘निर्देश’ हों, तो फिर रिश्ता गब्बर और साँभा वाला ही बनता है। जब तक लूटमार करते रहे तब तक ठीक वरना ‘कॉस्टकटिंग’ मैनेजमेंट का स्थायी कार्यक्रम है। उम्र और तनख्वाह बढ़ने का हवाला देकर कभी भी बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। सेवाशर्तों में हुए घपले की वजह से गिरोह से बाहर कर देना बाएँ हाथ का खेल हो चुका है। अपवाद हैं, पर इससे नियम ही पुष्ट होता है।

ऐसे में बेरोज़गार हो चुके अनुभवी पत्रकार कहाँ जाएँ? उन्हें भी जीना है। घर-बच्चों की ज़रूरतें पूरी करनी है। उन्हें एक ही ‘हुनर’ आता है जो उन्हें किसी पीआर एजेंसी के दरवाज़े पर ले जाता है। पीआर का महत्व अब राजनीतिक पार्टियाँ और नेता भी समझने लगे हैं। यानी जिन कॉरपोरेट कंपनियों और नेताओं की वजह से नौकरी जाती है, दाल-रोटी का इंतज़ाम (अगर हो पाए) भी वहीं से होता है। प्रेस रिलीज़ तैयार करना और मालिक का चेहरा चमकाने में सारा ‘हुनर’ ख़र्च होता है। ऐसे भी पत्रकार हैं जो बीच-बीच में सरकारी नौकरी भी करते रहते हैं और फिर मुख्यधारा (कारोबारी) मीडिया में वापस आ जाते हैं। कुछ अनुवाद या ऐसे ही कामों में दिहाड़ी मज़दूर की तरह खटते हैं पर वे कभी नहीं भूल पाते कि वे पत्रकार हैं। आमतौर पर उन्हें पत्रकार माना भी जाता है।

विनोद वर्मा को ‘पत्रकार’ मानने में आपत्ति की वजह यही है कि वे इन दिनों छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष का पीआर देख रहे थे। बात ठीक है। ऐसे में  उनका एडिटर्स गिल्ड में बने रहना भी ठीक नहीं लगता ! लेकिन उन्होंने लंबा जीवन पत्रकारिता में काटा है। बीबीसी में वरिष्ठ पदों पर रहे हैं। अमर उजाला के डिजिटल एडिटर रहे हैं। हो सकता है कि कुछ महीने बाद फिर वे किसी अख़बार या चैनल में आ जाएँ। तो क्या वे फिर से पत्रकार हो जाएँगे? क्या वे ‘निष्पक्षता’ की कसौटी पर हमेशा के लिए संदिग्ध नहीं हो गए हैं ?

बात आगे बढ़ाइए। अगर विनोद वर्मा पर सवाल हैं तो उन्हीं तर्कों के आधार पर क्या एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे अरुण शौरी को पत्रकार न माना जाए ? क्या पायनियर के संपादक चंदन मित्रा को पत्रकार ना माना जाए जो बीजेपी में बाक़ायदा शामिल हैं, राज्यसभा में हैं? और स्तम्भकार स्वप्नदास गुप्ता ! जिन्हें बीजेपी ने हाल में राज्यसभा में भेजा है? और एम.जे.अकबर ! जो मोदी मंत्रिमंडल की शोभा बढ़ा रहे हैं..और प्रभात ख़बर वाले जेडीयू सांसद हरिवंश..और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के चेयमैन रामबहादुर राय ! …और..और..और..

यह कल्पना करना भी कठिन है कि अरुण शौरी को पत्रकार के अलावा भी किसी रूप में याद किया जाएगा!

अच्छा छोड़िए, उनकी बात कीजिए जो पूरी तरह ‘निष्पक्ष’ हैं। जो सिर झुकाकर काम करते हैं। अपने काम से काम रखते हैं। दफ़्तर जाते हैं और वहाँ से सीधे घर। जो इतने सतर्क हैं कि उनके राजनीतिक-सामाजिक विचार ख़ुद उनसे भी छुपे हैं। पर क्या उनके मालिक भी ‘निष्पक्ष’ हैं, जो उन्हें वह काम देते हैं जिन्हें वे सिर झुकाकर पूरा करते रहते हैं? क्या मालिक का राजनीतिक एजेंडे पूरा करने के लिए रात-दिन झूठ का झंडा बुलंद करने वाले चीखते ऐंकर-ऐंकरानियों को पत्रकार माना जा सकता है? इसलिए कि उनकी कार में किसी पार्टी का झंडा अब तक नहीं लगा है ! चाहे मालिक राज्यसभा पहुँच गया हो और उसने अपनी पार्टी के विरोधियों को ख़त्म करने की सुपारी ली हो…?

चलिए, थोड़ी देर के लिए पत्रकारिता को केवल ‘हुनर’ मान लें,  यानी 5W (क्या, कब, कहाँ, कौन, क्यों ) और 1H (कैसे) की जानकारी देने का काम। पर क्या यह सच नहीं कि कारोबारी मीडिया का सारा ज़ोर जानकारियाँ देने नहीं छुपाने में है? देश को खोखला करने वाली प्राकृतिक तेल, जल, जंगल, ज़मीन की लूट के 5W, 1H कहाँ हैं? हम किस समाचार माध्यम से इनका जवाब जान सकते हैं? शिक्षा और स्वास्थ्य की देशव्यापी बदहाली के अपराधियों के चेहरे कौन दिखाता है? सच यह है कि पत्रकारों को पैसे इस ‘हुनर’ के इस्तेमाल के लिए नहीं, इसे भुलाने के लिए दिए जाते हैं। तो क्या हुनरमंद से ‘हुनरबंद’ बन जाने वालों को पत्रकार कहा जाए?

यह अफ़सोस से कुछ ज़्यादा करने की बात है कि कॉरपोरेट पूरी तरह मीडिया पर क़ाबिज़ है। ज़्यादातर जगह वह सीधे मालिक है। जहाँ वह मालिक नहीं, वहाँ वह शेयरधारक है। जहाँ शेयर नहीं हैं, वहाँ उसके विज्ञापन हैं जिनके बंद होने की आशंका से सब दंडवत रहते हैं। ना संपादक को कोई निर्देश देता है और ना संपादक अपने रिपोर्टर को। सबको पता है कि उसकी रोटी, कॉरपोरेट हितों की रक्षा से चल रही है। सेंसरशिप पुरानी बात है। अब कारोबारी मीडिया के कथित निष्पक्ष पत्रकारों में नौकरी के साथ ही एक ‘सेंसर’ फिट कर दिया जाता है।

वैसे भी अगर पत्रकारिता सिर्फ़ ‘हुनर’ है तो इस्तेमाल तो उसी के लिए होगी जो ज़्यादा क़ीमत देगा। बाज़ार का तर्क भी यही है। ‘निष्पक्षता’ एक भ्रम है। इसका दावा या तो निहायत भोले लोग करते हैं या फिर दर काइयाँ ! निष्पक्षता का दावा एक ‘पक्ष’ में खड़ा होकर ही किया जाता है। आज एक तबका मानता है कि मोदी को गरियाने वाले पत्रकार नहीं हैं तो दूसरी तरफ़ ऐसे हैं जो मानते हैं कि मोदी की रात-दिन प्रशंसा करने वाले पत्रकार नहीं हैं ! पर किसी संस्थान में काम करने वाला पत्रकार यह कहाँ तय करता है कि मोदी या किसी और नेता के प्रति रुख़ क्या होगा? यह तो मालिक ही तय करता है। और मालिक कौन है? पूँजी के प्रेतों ने पत्रकारिता पर क़ब्ज़ा कर लिया है। पेशेवर पत्रकारिता पर जिस तरह एकाधिकार का ख़तरा मँडरा रहा है, उसका नतीजा भयानक ही हो सकता है।

ऐसे में किसे ‘पत्रकार’ मानें, इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा संभव नहीं है। देखना यह होगा कि भारत में ‘आज़ाद पत्रकारिता’ की बुनियाद क्या है? सच्चाई यह है कि भारत में पत्रकारों को अलग से कोई संरक्षण हासिल नहीं हैं। संविधान में नागरिक को जो ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का अधिकार है, उसी के सहारे पत्रकारिता संभव हुई है। यानी ‘भारतीय संविधान के संकल्प और सिद्धांत’ ही भारतीय पत्रकारिता का आदर्श हो सकते हैं। यह निष्पक्ष नहीं ‘पक्षधर’ होना है। यानी समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र आदि ही  पत्रकारिता का आधार हो सकते हैं। अगर संविधान ‘वैज्ञानिक चेतनायुक्त समाज’ बनाने का लक्ष्य रखता है तो फिर अंधविश्वासों का प्रचार करने वाले पत्रकारिता के दुश्मन ही हैं (आज सबसे ज़्यादा तो यही हो रहा है)।

यानी जो भी विचार, संविधान की मूल भावनाओं पर हमला करता है, पत्रकार का ‘धर्म’ उसके ख़िलाफ़ खड़ा होना है। यह उसके अस्तित्व से जुड़ा मसला है। जानता हूँ कि यह परिभाषा भी सर्वमान्य नहीं हो पाएगी, लेकिन भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में ‘संविधान की सर्वमान्यता’ के सिद्धांत के उलट विनाश ही है।

वैसे, हमारा एक पुरखा है जो इस सवाल को हल करने में मदद कर सकता है। प्रेमचंद। उन्होंने कहानी और उपन्यास ही नहीं लिखे, ‘जागरण’ और ‘सरस्वती’ का संपादन भी किया। दुनिया के हर विषय पर क़लम चलाई। उन्होंने एक बार लिखा था– “पूरी दुनिया में शासकों और शासितों के बीच युद्ध चल रहा है। हमें बतौर पत्रकार शासितों के वक़ील की तरह काम करना है।”

यह ‘निष्पक्षता’ नहीं, ‘पक्षधरता’ का शंखनाद है। ‘पत्रकार’ होने की एकमात्र यही कसौटी है कि कोई शासितों के दुख-दर्द से अपनी कलम को जोड़ता है या नहीं। पत्रकार जहाँ भी हो, जिस हाल में हो, शाश्वत विपक्ष की भूमिका में होता है। जब तक एक भी आँख में आँसू हैं, शासकों का पक्ष लेने वाला दलाल होगा, पत्रकार नहीं।



 

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