विकास नारायण राय
संयोग देखिये अगले दिन सोमवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने देश को डोकलाम में चीन के साथ अर्से से चल रहे स्टैंड ऑफ के समाप्ति की संतोष भरी सूचना दी. यह भी तय है कि प्रधानमन्त्री मोदी को चीन में ब्रिक्स शिखर सम्मलेन (3-5 सितम्बर) में भाग लेना है.
मैंने इसे संयोग यूँ ही नहीं कहा. मुझे बरबस राजीव गाँधी की दिसम्बर 1988 की चीन यात्रा का स्मरण हो आया. 1962 युद्ध के बाद किसी भारतीय प्रधानमन्त्री की वह चीन यात्रा भी चीन और भारत की सेनाओं के बीच एक लम्बे ‘स्टैंड ऑफ’ की समाप्ति के तुरंत बाद तय हुयी थी. तब भी यात्रा के लिए एयर इंडिया के विशेष जहाज की तैयारी के समय चूहा नजर आया था और नया जहाज नए सिरे से तैयार करना पड़ा था.
दोनों अवसरों पर बात सिर्फ चूहे की नहीं है. दरअसल, जिसे हमें मिलिट्री स्टैंड ऑफ बताया गया वह पहले भी बन्दर घुड़की का प्रदर्शन सिद्ध हुआ था और अब भी. दोनों में एक और समानता, डोकलाम में भारत और चीन के बीच 74 दिन चले वर्तमान बन्दर घुड़की दौर का अंत भी दोनों देशों की मीडिया द्वारा ‘संग्राम’ में अपनी-अपनी जीत की किलकारियों में देखा जा सकता है. समझ में नहीं आता, जब कोई रण हुआ ही नहीं तो जीत के दावे का क्या मतलब?
2014 में चीनी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमन्त्री अहमदाबाद में एक झूले पर झूलते दिखे थे. तीन वर्ष में ही चीनी राष्ट्रपति का सिल्क रूट रणनीति का उग्र पुल-बंदरगाह धक्का और भारतीय प्रधानमन्त्री का अपरिपक्व जवाबी ‘दलाई लामा कार्ड’ डोकलाम में टकरा गये.
याद कीजिये, एक और अपरिपक्व भारतीय प्रधानमन्त्री राजीव गांधी और एक और चीनी विस्तार को पूंजीवादी धक्का देते चीनी नेता देंग के बीच इससे भी लम्बा चले बन्दर घुड़की के दौर (अक्तूबर 1986-मई 1987) का अंत भी कुछ इसी अंदाज में हुआ था. तब अरुणांचल प्रदेश का उत्तर-पश्चिम सीमा क्षेत्र, समड्रोंग चु हलचल का केंद्र रहा.
दोनों दौर में चीन, भारत को बार-बार 1962 की याद दिलाता रहा, हालाँकि स्पष्ट है कि उसके लिए 1962 को दोहरा पाना न 86-87 में संभव था और न 2017 में हो सकता था. मिसाइल और एटम बम का इस्तेमाल न होने पर, पारंपरिक युद्ध में भारतीय सेना अधिक अनुभवी ठहरती है.
ध्यान रहे 1962 के बाद चीनी सेना ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी है, यहाँ तक कि उत्तरी कोरिया से सीमा झड़पों (1968-69) में उन्हें ही अधिक नुकसान उठाना पड़ा था. जबकि भारतीय सेना ने तब से 1971 में बांग्लादेश युद्ध और 1999 में कारगिल का विजयी स्वाद चखा हुआ है.
लिहाजा 2017 में भी न केवल भारत के लिए बल्कि चीन के लिए भी अंततः कूटनीति ही सर्वोपरि रणनीति हो सकती थी. दोनों देशों के शासकों को परवाह नहीं कि इस व्यर्थ की मिलिट्री कवायद से उन्हें मिला क्या! चीन में राज्य नियंत्रित और भारत में मोदी पोषित मीडिया तो है ही उनकी विजय दुंदुभि बजाने के लिए.
डोकलाम में अब भारतीय सेना पीछे हट गयी हैं. उनके प्रतिकार में आयी चीनी सेना भी. चीन का कहना है कि वह सीमा पर पहले की तरह पेट्रोलिंग भेजता रहेगा. जाहिर है, भारत ने भी कहीं यह नहीं माना है कि वह जरूरत पड़ने पर दुबारा अपनी सेना नहीं भेजेगा. न चीन ने अपनी पुल-बंदरगाह नीति, जिसके अंतर्गत वह सीमा पर सड़कें बना रहा है, से पीछे हटने की बात की है.
यानी जो जहाँ था, ‘स्टैंड ऑफ’ से पहले, वहीं आ गया है. इसका कूटनीतिक अर्थ यह भी निकल सकता है कि चीन की पुल-बंदरगाह नीति को लेकर भारत की आशंकाओं का चीन ने जवाब दे दिया है. इसमें बुरा कुछ नहीं. भारत को भी अपनी सीमाओं में सड़क और पुल बनाने को तवज्जो देनी चाहिये.
यानी, भारत और चीन का सीमा विवाद के संकीर्ण दायरे से निकलकर भू-राजनीति के विस्तार में प्रवेश करने की इच्छा शक्ति का स्वागत किया जाना चाहिए. इसकी शुरुआत 2009 में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा के समय ‘शांति और स्थायित्व’ समझौते के रूप में हो चुकी है.
(विकास नारायण राय, हरियाणा के पूर्व डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक हैं.)