अयोध्या: ऐसे मामलों में न्यायालयों से ज्यादा उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए

9 नवम्बर 2019 को बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है। सरल लोगों की उम्मीद के विपरीत जो यह समझते थे कि राजनीतिक राम का विवाद समाप्त हुआ, अब आगे बढ़ने की जरूरत है, लेकिन केरल जैसे राज्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध कुछ लोंगों ने गिरफ्तारियां दी हैं, सत्ता संस्थान के उच्च पदों पर रहे लोगो की आलोचनायें भी मुखर हुई हैं।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना वाजिब है। अच्छे मन से भी लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सब तर्क और बहस के बाद सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का यह तुक क्या है कि मुस्लिम पक्ष सन् 1528 से 1857 तक अपना निर्बाध कब्जा वहां नहीं दिखा पाया। जबकि कोर्ट खुद यह मानती थी कि इतिहास व आस्था के आधार पर नहीं बल्कि जमीन की मिल्कियत के आधार पर फैसला किया जायेगा। भारत जब एक संप्रभु गणराज्य घोषित हुआ, उसी के आधार पर कोर्ट के निर्णय की अपेक्षा वाजिब है। कोर्ट ने खुद माना है कि 22-23 दिसम्बर 1949 की रात घोर गैर कानूनी ढंग से मस्जिद में मूर्तियां रखी गईं और 6 दिसम्बर 1992 में बलात् मस्जिद को ढहा दिया गया। कोर्ट का निर्णय यह भी कहता है कि पुरातत्व विभाग की जांच से यह नहीं साबित होता कि वहां मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई।

5 दिसम्बर 1992 में सीपीआई, सीपीएम, आईपीएफ और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ लखनऊ से अयोध्या के लिए हम लोग चले थे और राम सनेही घाट, बाराबंकी जिले में हम लोगों की गिरफ्तारी हो गई थी। कार सेवकों के हुजूम को जिस तरह कल्याण सिंह की सरकार सहयोग कर रही थी उससे यह लग गया था कि मस्जिद को क्षतिग्रस्त न होने देने का जो शपथ पत्र कल्याण सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिया है वह महज धोखा है।

हम इस पर साफ थे कि मंदिर-मस्जिद लड़ाई के बहाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा आजादी आंदोलन के जो लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष मूल्य भारतीय राज्य ने स्वीकार किये है उसे पलट देने पर आमादा हैं। यह जरूर है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से जिन लोगों का विश्वास अंतिम सहारा के बतौर इस न्याय प्रणाली से था उन्हें गहरा सदमा पंहुचा है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह जो निर्णय है वह अपवाद नहीं है। गांधी जी जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाये तो भारत का शासक वर्ग भले समन्वयवादी होने की बात करता रहा हो लेकिन हिंदू वर्चस्व या हिंदू वरीयता का प्रलोभन उसमें बराबर रहा है।

भारत का विभाजन भी इसी त्रासदी का इजहार करता है। सुप्रीम कोर्ट के पास भी यह विकल्प था कि वह विवादित भूमि को जिस पर बकौल सुप्रीम कोर्ट दोनों पक्ष मिल्कियत साबित नहीं कर सके, दोनों पक्षों को विवादित भूमि न देकर वहां राष्ट्रीय स्मारक या सार्वजनिक हित के लिए कोई अन्य संस्थान बनाने का सरकार को निर्देश देती। आजादी की पहली लड़ाई की शिनाख्त दर्ज कराने वाली यह भूमि रही है। 1857 में यहां हिन्दु-मुसलमान अवाम ने मिलकर अग्रेंजों के खिलाफ लडाई लडी थी।

मंदिर हो या अन्य मुद्दे जो लोगों की भावनाओं को उभार सके उसके राजनीतिकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा तब तक लगी रहेगी जब तक कि वह भारतीय राज्य को पूरी तौर पर अधिनायकवादी राज्य में तब्दील नहीं कर देती है। सदमे की नहीं बल्कि भारतीय समाज के लोकतंत्रीकरण की लड़ाई आगे बढ़ाने की जरूरत है। जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को गैर कानूनी ढ़ंग से गिराया है उन्हें सजा दिलाने और संसद द्वारा 1991 में पारित कानून जिसमें यह व्यवस्था दी गई है कि 15 अगस्त 1947 में जो भी पूजा स्थल जिस रूप में थे उसी रूप में बनाये रखा जाये के लिए आगे आना होगा। दरअसल यह एक लम्बी लड़ाई है भारतीय राज्य के लोकतंत्रीकरण और अधिनायकवाद के बीच की।

जनता के लोकतांत्रिक मुद्दों खेती-किसानी, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य, पर्यावरण के मुद्दों से जोड़कर हमें लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए काम करना है। ऐसे मुद्दों पर न्यायालय से अधिक उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। ऐसे महत्वपूर्ण मामलों में न्यायालय के फैसले न्यायिक कम राजनीतिक ही अधिक होते हैं। राफेल, साबरीमला व लोकतांत्रिक आंदोलन से जुड़े लोगों की झूठी गिरफ्तारियां और उस पर कोर्ट के फैसले इसी बात को आम तौर पर दिखाते हैं।


लेखक स्वराज अभियान से जुड़े हुए हैं

First Published on:
Exit mobile version