रोहिण कुमार / पटना
लोकसभा चुनाव में अब जबकि कुछ महीने का वक्त ही बचा है, राजनीतिक दलों के बीच माहौल भांपने और अपनी गोट बिठाने का प्रपंच तेज हो चुका है. सियासी गठबंधनों के भीतर पुनर्विचार का दौर चालू है. इस बीच बिहार का सियासी समीकरण रोमांचक होता दिख रहा है. जातियों के गणित से लेकर सीटों के बंटवारे तक यहां उथल-पुथल जारी है जो सामाजिक न्याय के एक नए संस्करण की ओर इशारा कर रही है.
मीडियाविजिल के विश्वस्त सूत्रों के अनुसार उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) का सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन से अलग होना बिल्कुल तय है. सिर्फ इसकी औपचारिक घोषणा होना बाकी है। माना जा रहा है कि तस्वीर दो-तीन दिन में साफ़ हो जाएगी. एनडीए में सीटों के बंटवारे से रालोसपा संतुष्ट नहीं है. फिलहाल जदयू और भाजपा के बीच 17-17 सीटों के बंटवारे की समझ बनी है. अगर रालोसपा इस गठबंधन में बनी रहती है तो उसे 2 और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को 4 सीटें मिलेंगी. रालोसपा के गठबंधन से अलग होने की स्थिति में लोजपा के हिस्से 6 सीटें आएंगी. कुल मिलाकर कुशवाहा की स्थिति दो सीटों के साथ सबसे कमज़ोर रह जाएगी और उन्हें यह कतई गवारा नहीं है क्योंकि आज की तारीख में भी उनके तीन सांसद हैं.
सामाजिक न्याय का पेंडुलम
नब्बे के दशक में बिहार ने सामाजिक पुनर्जागरण का दौर देखा है. यह मंडल आंदोलन के आवेग में पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण का दौर था. लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने सामाजिक न्याय का नेतृत्व किया. लालू का मुख्यमंत्री बनना पिछड़ी जातियों के लिए न सिर्फ प्रतिनिधित्व का प्रश्न था बल्कि यह उनके सामूहिक स्वाभिमान और पहचान से भी जुड़ा था. लालू ने बेशक पिछड़ी जातियों को अगड़ी जातियों के सामने तन कर खड़ा होने की हिम्मत दी. यह लालू का ही असर था कि ओबीसी, दलितों और मुसलमानों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई. बावजूद इसके लालू के पहले कार्यकाल के बाद से ही यह महसूस होने लगा कि सामाजिक न्याय के नेतृत्वकर्ता ने पिछड़ों में सजातीय यादव समुदाय को ज्यादा तवज्जो दी और गैर-यादव पिछड़ों व अन्य की सामाजिक स्थिति कमोबेश वही रही. लालू के बाद राबड़ी देवी का कार्यकाल भी अप्रभावी ही साबित हुआ. साधु यादव और शहाबुद्दीन जैसों की गुंडागर्दी से जनता परेशान हो चुकी थी। यह जगजाहिर था कि वे राजद की शह पर काम कर रहे थे।
30 अक्टूबर 2003 वह दिन था जब जनता दल के एक धड़े (जिसका नेतृत्व शरद यादव कर रहे थे) लोकशक्ति पार्टी और समता पार्टी के गठजोड़ से जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का गठन हुआ. गैर-यादव ओबीसी जातियां जिन्होंने राजद के राज में ठगा महसूस किया था, वे स्वाभाविक रूप से जदयू के साथ चली गईं.
2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार की आबादी में 14. 4% यादव हैं, 6.4% कुशवाहा (कोयरी), 4% कुर्मी, 26% अतिपिछड़ा, 16% दलित और महादलित (दुसाध 4%, मुसहर 2.8%), आदिवासी 1.3%, मुस्लिम 16.9% और 17% ऊंची जातियां हैं. चूंकि नीतीश को गैर-यादव पिछड़ों का समर्थन प्राप्त हुआ और वह खुद कुर्मी समुदाय से आते हैं, लिहाजा उन्हें गैर-यादव जातियों का नेता मान लिया गया. भाजपा के साथ मिलकर जदयू ने बिहार में सरकार भी चलाई. नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की सूरत में नीतीश ने भाजपा से दूरी बनाई और धुर विरोधी राजद के साथ महागठबंधन किया. राजद के कंधे पर चढ़कर 2015 विधानसभा चुनाव उन्होंने जीता और सरकार भी बनाई. राजद के लिए यह चुनाव अपना वजूद बचाने का चुनाव था. नतीजा यह रहा कि राजद बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. इस महागठबंधन को भाजपा का विजयी रथ रोकने के लिए कारगर माना गया और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में भी ऐसी ही संभावना तलाशने की कोशिश की गई. नीतीश कुमार बहुत दिनों तक महागठबंधन में नहीं टिक सके और वापस भाजपा के साथ चले गए. इस अवाक करने वाले फैसले ने नीतीश के ऊपर विश्वसनीयता का संकट खड़ा कर दिया.
एनडीए की साझीदार रालोसपा नीतीश की इस गड़बड़ स्थिति को अच्छे से समझ रही है. कार्यकर्ताओं के साथ-साथ रालोसपा की नजर कुर्मी-धानुक और अन्य ओबीसी धड़ों पर भी है. रालोसपा का दावा है कि कुर्मी-धानुक समुदाय अब नीतीश कुमार से विमुख हो चुका है और नए नेतृत्व की तलाश कर रहा है. ज़ाहिर है, रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा इस नए नेतृत्व के सबसे बड़े दावेदार हैं।
इसमें तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता
सतह पर भले विवाद सीटों से जुड़ा दिख रहा हो लेकिन रालोसपा का एनडीए से अलग होना “इसमें तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता” वाली स्थिति को ही दर्शा रहा है.
रालोसपा की विदाई अवसरवादी प्रतीत न हो, इसलिए पार्टी ने इस फैसले को नीतिगत साबित करने के लिए कम से कम दो मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया है. पहला, शिक्षा में सुधार और दूसरा, न्यायपालिका में पारदर्शी नियुक्ति. रालोसपा के नेताओं के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं है कि एनडीए गठबंधन में रहते हुए इन्होंने इन दोनों ही मुद्दों को कितने पुरजोर तरीके से उठाया है. मुद्दे बेशक दमदार हैं पर प्रश्न मुद्दा उठाने वाली पार्टी की राजनीतिक प्रतिबद्धता का है. केन्द्र सरकार ने जब एससी-एसटी एक्ट में बदलाव किया, तब भी रालोसपा स्टैंड लेने से बचती रही. शिक्षा का बजट घटाया जाता रहा जिससे कि निजीकरण का रास्ता और भी सरल हो, विश्वविद्यालयों में होने वाली नियुक्तियों में आरक्षण नीतियों का खुला उल्लंघन किया जाता रहा, सुप्रीम कोर्ट के जजों की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई– ऐसे तमाम मुद्दों पर रालोसपा का पक्ष मोदी सरकार से प्रत्यक्षत: अलहदा नहीं रहा.
इस बीच कुशवाहा की बातचीत राजद से भी चल रही है. संभव है कि 5 दिसंबर को वाल्मीकिनगर में होने वाली रालोसपा की बैठक में एनडीए से अलग होने की औपचारिक घोषणा कर दी जाए। उसके बाद राजद के साथ सीटों को लेकर साझेदारी पर बातचीत तेज होगी. अंदरखाने ये खबरें भी हैं कि राजद के साथ जाने पर बिहार में रालोसपा के विस्तार की संभावनाएं बढ़ेंगी और 2020 के विधानसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा भी बिहार के मुख्यमंत्री पद के एक दावेदार हो सकेंगे.
दिलचस्प यह है कि बिहार के चुनावी समीकरणों में रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) अप्रासंगिक होती दिख रही है. गठबंधन से रालोसपा के बाहर जाने की स्थिति में लोजपा के हिस्से 6 सीटें आएंगी. लोजपा के बारे में आम समझ बन चुकी है कि यह पार्टी अब परिवार में सिमट चुकी है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनावी सरगर्मियां चढ़ने के बावजूद पटना में लोजपा के बैनर-पोस्टर दिखना संयोग मात्र होगा.
भाजपा के लिए क्षेत्रीय दलों की अहमियत सिर्फ इतनी है कि कौन सा दल उसे पर्याप्त संख्याबल दिलवा पाने में सक्षम है. फिलवक्त यह कहना मुश्किल है कि पार्टियों का जातीय गणित कितना सटीक बैठेगा, पर पारंपरिक जातिगत समीकरण बदलने के आसार पूरे हैं. अगर नीतीश के परंपरागत कुर्मी-धानुक समुदाय को उपेंद्र कुशवाहा अपने पक्ष में साधने में सफल हुए, तो निस्संदेह बिहार की राजनीति में उनका कद बड़ा हो जाएगा.
रोहिण कुमार प्रखर युवा पत्रकार हैं। आइआइएमसी से पासआउट हैं और न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी में काम कर चुके हैं। फिलहाल स्वतंत्र रिपोर्टिंग कर रहे हैं।