UPCOCA के निशाने पर हर असंतुष्‍ट और असहमत नागरिक है! समझिए इस काले कानून को…

सीमा आज़ाद

”गोली का जवाब गोली से ही देना होगा।” यह वक्तव्य किसी अपराधी, गुण्डा समूह सामंती सेना या किसी संविधान विरोधी का नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का है, जो उन्होंने सत्ता में आने के बाद अभी एक महीने पहले ही दिया था। इसके पहले इस देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी पुलिस वालों से यह ‘अपील’कर चुके थे कि ‘‘वो एक मारते हैं, तो तुम दस मारो।’’

दोनों के ही इन ‘राज दरबारी’ वक्तव्यों की कड़ी आलोचना की गयी, इन्हें सीधा-सीधा मानवाधिकारों पर हमला माना गया, क्योंकि कानून किसी व्यक्ति या दोष सिद्ध अपराधी को भी सिर्फ और सिर्फ कानूनी प्रक्रिया के तहत ही खत्म करने का अधिकार देता है। लेकिन ऐसा लगता है कि ये सरकारें सदियों के संघर्षों से अर्जित मानवाधिकारों की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि उनके हनन के लिए ही बनी हैं। पिछले कई सालों से देश और देश के विभिन्न प्रांतों की सरकारें एक से बढ़कर एक जनद्रोही कानून लाती ही जा रहीं हैं। लेकिन जब ये लोग राज दरबारी बयानों द्वारा मानवाधिकारों के हनन की ‘अपील’ करते हैं, तो आप उनकी आलोचना कर  सकते हैं, लेकिन जब वे इन्हीं कामों को कानून बनाकर पेश कर देती हैं, तो कोई इनकी आलोचना भी नहीं कर सकता। क्योंकि तब ये सारे गैरकानूनी काम कानूनी हो जाते हैं।  बल्कि इसके बाद तो इन कानूनों की आलोचना भी गैरकानूनी होने की जद में आ जाती है। यानि तब, हर तरीके से हमारी घेरेबन्दी कर ली जाती है।

उत्तर प्रदेश की सरकार एक ऐसे ही कानून को लाने जा रही है, जिससे लोगों के विरोध करने का दायरा और अधिक संकुचित हो जायेगा। पहले ही यह ‘देशद्रोह’, ‘यूएपीए’ और ‘गैंगस्टर’ जैसे कानूनों के माध्यम से काफी तंग था। याद होगा कि हाल ही में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता पर ‘मुख्यमंत्री का रास्ता रोके जाने के कारण’देशद्रोह लगा दिया गया। देशद्रोह लगाये जाने के इस ‘कारण’ में इस कार्यकर्ता द्वारा योगी का रास्ता रोके जाने का ‘कारण’ एकदम गुम हो गया।

उत्तर प्रदेश में आने वाला नया जनद्रोही कानून है-यूपीकोका, (उत्तर प्रदेश संगठित अपराध रोकथाम कानून ) जिसे 2007-08 में मायावती की सरकार भी लाना चाहती थी, लेकिन केन्द्र और राज्य में अलग-सरकारों के होने की वजह से इस कानून को केन्द्र से सहमति नहीं मिल सकी थी लेकिन इस बार स्थिति राज्य सरकार के पक्ष में है- दोनों जगह उनका ही ‘राज’ है। यानि इसके पास होने की उम्मीद पूरी तो नहीं, लेकिन पहले से कहीं ज्यादा है। पूरी इसलिए नहीं, क्योंकि विधानसभा में भले ही भाजपा का बहुमत है, लेकिन विधान परिषद में नहीं, इस कारण विधान सभा में यह पास हो गया लेकिन विधान परिषद से पास नहीं हो सका है। इसे यहां से प्रवर समिति के पास भेज दिया गया है, यह अनुमान है कि इस बार प्रदेश की सरकार इसे पास करा लेगी।

उत्तर प्रदेश की जनता पर थोपा जाने वाला यह कानून पहले सभी कानूनों से अधिक जनविरोधी है। यह बात सबसे पहले तो इस बात से ही समझ में आ जाती हैं कि यूपीकोका का आदर्श महाराष्ट्र में लागू कानून ‘मकोका’ (महाराष्ट्र संगठित अपराध रोकथाम कानून) है, खुद उप्र सरकार ने यह कहा है। ‘मकोका’ के तहत महाराष्ट्र में सैंकड़ों बेगुनाह लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं, जिनके मुकदमे लड़ने के कारण प्रसिद्व वकील शाहिद आज़मी शहीद हो गये, उनकी हत्या कर दी गयी। आतंकवाद के केस में पकड़ी गयी साध्वी प्रज्ञा एण्ड कम्पनी के लोगों को जमानत पर तब रिहा किया जा सका, जब सरकार में सत्ता बदलने पर उन पर से ‘मकोका’ का केस हटा लिया गया। वास्तव में मकोका टाडा और पोटा की जगह पर लाया गया ऐसा कानून है, जो लोगों के ढेरों संवैधानिक अधिकारों की एक बार में हत्या कर देता है, उसके बाद इन अधिकारों के बगैर उसका जेल से बाहर आना मुश्किल हो जाता हैं। इसी की प्रतिलिपि है यूपीकोका।

इस बार यूपीकोका जब लाया गया, तो मायावती की सरकार में इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर हुए विरोध-प्रदर्शनों को देखते हुए यह ढिंढोरा पीटते हुए लाया गया, कि यह कानून भू-माफियाओं, खनन माफियाओं और वन तस्करों के खिलाफ लाया गया कानून है। सरकारी हो चुकी मीडिया ने भी इसकी इसी तरीके से रिपोर्टिंग की। कुछ ने तो छोटे माफियाओं की सूची जारी कर यह भी घोषणा कर डाली की अब ‘इस कानून के आ जाने के बाद इनकी खैर नहीं।’ जबकि खुद मीडिया घराने बहुत ही अच्छी तरीके से जानते हैं कि खनन माफिया हों या भू-माफिया, ये सभी या तो खुद विधानसभा, संसद में पहुंचे नेता हैं या किसी ऐसे ही नेता के रिश्तेदार, मित्र या चापलूस। तो क्या खुद अपने पर शिकंजा कसने के लिए सरकार यह कानून लेकर आ रही है? जाहिर है-हरगिज नहीं, यह लोगों की आंख पर पर्दा डालने का एक भोंडा तरीका भर है। इसके निशाने पर तो सरकार का किसी भी तरीके का विरोध करने वाले लोग हैं, कोई माफिया नहीं। हाल ही में 14 दिसम्बर को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अवैध खनन में शामिल होने के आरोप में कानपुर देहात के जिलाधिकारी राकेश कुमार सिंह और गोरखपुर के जिलाधिकारी राजीव रौतेला को निलम्बित करने का आदेश दिया। लेकिन सरकार ने इसे लागू नहीं किया। यदि वो खनन माफियाओं को वास्तव में रोकना चाहती तो उसके लिए पहले से काफी कानून मौजूद हैं, जिसकी मदद और मदद के बगैर भी वो उन्हें सबक सिखा सकती है, लेकिन उसका मकसद यह है ही नहीं।

इस बार के यूपीकोका के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं-

  1. यह कानून पुलिस और पुलिस के ही अन्य स्पेशल फोर्सेस को पहले से अधिक ताकतवर बनाती है। यानि उसके पास किसी को भी सालों तक जेलों में सड़ाने के अधिक विधिक हथियार होंगे। यहां यह ध्यान देने की बात है कि पुलिस को अधिक बल देने का मतलब है सरकार को लोक के बरख़्श अधिक ताकतवर बनाना। यानि दरअसल सरकार के पास अब अधिक ताकत होगी, कि वह अपने विरोधियों को अधिक समय तक जेल की सलाखों के पीछे कैद रख सके और गैर कानूनी तरीके से विरोधियों की गैरकानूनी हत्या कर सकें।
  2. यह प्रावधान है कि पुलिस का विरोध करने वाले आरोपी की जमानत एक साल के पहले हो ही नहीं सकती। जाहिर है आन्दोलनकारी इसके निशाने पर हैं। जब भी कोई सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करता है, उसे रोकने पुलिस ही आती है, और आन्दोलनकारियों को सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर पुलिस का ही विरोध सहना और करना भी पड़ता है। इस कानून के द्वारा ऐसे विराधियों पर भी यूपीकोका लग सकता है साथ ही साल भर तक जमानत के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यानि बीएचयू आन्दोलन में लड़कियों ने पुलिस बर्बरता के विरोध में जो पत्थर बरसाये इसके लिए उन्हें साल भर बिना जमानत के जेल में रखा जा सकता है।
  3. हिंसक आंदोलन करने वालों पर यूपीकोका लागू होगा। यानि राज्य के खिलाफ कई हिंसक आंदोलनों के साथ छात्रों, किसानों कर्मचारियों के उग्र हो उठने वाले आंदोलन भी इसकी जद में आ सकते हैं। दूसरे इस ‘उग्रता’ को कई बार जिस तरीके से उकसाया जाता है, या नियोजित किया जाता है, उसके कई प्रमाण बार-बार आंदोलनकारियों ने देखे हैं। कई बार लाठी चार्ज के बहाने के लिए पुलिस यह आरोप लगाती है कि ‘आंदोलन उग्र हो गया था।’ बीएचयू के इस बार के लड़कियों के आंदोलन में भी पुलिस वालों ने यही बहाना दिया था। इन सब पर यूपीकोका लगाया जा सकता है।
  4. अपराधियों को शरण देने वालों पर भी यूपीकोका कानून लागू होगा और उसे न्यूनतम तीन साल की सजा हो सकती है। यानि किसी ने अनजाने में भी किसी को अपने घर पर रूका लिया, और सरकार ने उसे अपराधी घोषित कर दिया या सचमुच वह अपराधी ही हो, तो भी अनजाने में किये गये इस काम के लिए भी किसी को तीन साल तक जेल में रहना पड़ सकता है, क्योंकि व्यक्ति संगठित अपराध का हिस्सा माना जायेगा।
  5. यूपीकोका वाले मामलों की रिपोर्टिंग मीडिया में नहीं हो सकती, इसके लिए अलग से दण्ड का प्रावधान है। यानि अभी मीडिया भले ही इस कानून को माफियाओं और अपराधियों पर हमला मान रही है या जानबूझ कर प्रचारित कर रही है, लेकिन यह कानून दरअसल मीडिया पर भी एक बड़ा हमला है, जिसके लिए सभी मीडिया घरानों को मिलकर इसका विरोध करना चाहिए। इस प्रावधान का साफ मतलब यही है कि अभी यदि किसी निर्दोष को पुलिस की कोई एजेन्सी गिरफ्तार कर लेती है, तो मीडिया कभी-कभी उसकी सच्चाई को सामने लाने का काम भी करती है। लेकिन इस कानून के आने के बाद मीडिया को ऐसा करने की इजाजत नहीं होगी, इसके लिए उसे दण्डित किया जा सकता है। यहां इस बात का उल्लेख मौजू होगा कि हाल ही में योगी सरकार ने उन पर चलने वाले कई आपराधिक मुकदमों की रिपोर्टिंग न करने की इजाजत कोर्ट से हासिल कर ली है। यानि मीडिया की रिपोर्टों से यह सरकार काफी अधिक डरती है और इस पर नकेल कसने की उसने पूरी तैयारी कर ली है, लेकिन मीडिया अभी भी उनके आगे नत मस्तक हैं।
  6. आरोपी जब जेल भेज दिया जायेगा, तो भी उसके परिजनों से मिलने के उसके अधिकारों में भी कटौती कर ली गयी है। यूपीकोका के आरोपी से मिलने के लिए जेल अधीक्षक नहीं, बल्कि डीएम से इजाजत लेनी होगी, जाहिर है यह एक मुश्किल काम होगा और इसका मतलब है कि उसकी मुलाकातों में कटौती की जायेगी, और यह हमेशा सरकार की दया पर निर्भर रहेगा कि उसे किससे मिलने दिया जाय और किससे नहीं।
  7. जेल में मरीज यदि बीमार हो जाता है, और उसे अस्पताल में 36 घण्टे से अधिक रखने की नौबत आती है, तो इसके लिए जिलाधिकारी द्वारा गठित मेडिकल बोर्ड की मंजूरी आवश्यक होगी। यानि आरोपी मरीज का जीवन न्यायिक हिरासत में हर समय असुरक्षित ही होगा, क्योंकि इसके लिए वह किसी कानून का नहीं, बल्कि उसी सरकार पर निर्भर होगा, जिसने उसे जेल में डाला है।
  8. मानवाधिकारों के ढेरों हनन के साथ इस कानून की एक सैद्धांतिक खामी भी है, जो अधिकांशतः जनद्रोही कानूनों की होती है। यूपीकोका में भी खुद को निर्दोष साबित करने का भार खुद आरोपी पर ही होगा। यानि सभ्य समाज के न्याय का यह सिद्धांत कि ‘किसी को भी तब तक दोषमुक्त समझा जाना चाहिए, जब तक कि उसका दोष न्यायालय में साबित न हो जाय।’ लेकिन यूपीकोका में व्यक्ति को पहले दिन से ही दोषसिद्ध समझा जायेगा। और खुद को निर्दोष साबित करने का सारा भार उस पर ही होगा।
  9. यूपीकोका कानून में अन्य कानूनों से अलग तीन महीने बाद भी आरोपी को पुलिस रिमाण्ड पर लिया जा सकता है।
  10. बाकी कानूनों से अलग जनद्रोही कानून यूएपीए की तरह यूपीकोका में भी चार्जशीट दाखिल करने की समय सीमा तीन महीना न होकर 6 महीना है। यानि छः महीने तक आरोपी को बगैर जमानत के बगैर सुनवाई के जेल मे रहना होगा। यह सीधे-सीधे किसी भी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है।
  11. इस कानून के प्रावधान की एक बहुत बड़ी खामी यह है कि कोर्ट डिजीटल सबूतों को भी मान्यता देता है। यानि फोन पर किसी की किसी से हुई बातचीत, ईमेल सन्देश या कोई तस्वीर। इन सुबूतों को आमतौर पर अदालतें इसलिए महत्व नहीं देतीं, क्योंकि इनमें आसानी से छेड़छाड़ किया जा सकता है। लेकिन यूपीकोका के तहत आरोपी के खिलाफ ये सारे सुबूत अन्य सुबूतों की तरह ही मान्य होंगे। सिर्फ इतना ही नहीं इसके आगे की बात इससे भी ज्यादा खतरनाक है। वह यह कि आरोपी के खिलाफ इन सुबूतों को इकट्ठा करने के लिए सरकार या पुलिस किसी के भी डिजिटल वार्तालाप को कैद कर सकती है। यानि उसे रिकार्ड कर सकती है, या उसे सुन सकती है। यह पूरे प्रदेश की जनता के निजता के अधिकारों पर एक बड़ा हमला है।
  12. यूपीकोका का एक खतरनाक प्रावधान यह है कि इसमें सरकारी गवाहों की पहचान का खुलासा नहीं किया जायेगा। यानि आरोपी पक्ष को पता ही नहीं चलेगा कि उसके खिलाफ गवाही किसने दी है। वह उसके बारे में पूछ-ताछ भी नहीं कर सकता है।

सुनने में यह इस लिहाज से अच्छा लग सकता है कि गवाहों को धमकाने का काम इससे खत्म हो जायेगा। लेकिन जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि यह कानून कहने भर को माफियाओं के लिए है, इससे सरकारी विरोधियों पर निशाना साधा जाना है। ऐसा नहीं भी हो, तो इससे न्याय की पारदर्शिता खत्म होती है और न्याय सन्देहास्पद हसे जाता है, क्योंकि उक्त गवाह से आरोपी पक्ष गोपनीयता के नाम  पर अपनी जिरह कर ही नहीं सकता है। जबकि मकोका और यूएपीए जैसे कानून के तहत चलने वाले मुकदमों मेें ऐसे कई कई मामले सामने आये हैं, जिसमें पुलिस अपने कुछ खरीदे हुए गवाह कोर्ट में प्रस्तुत करती है, जो तमाम मुकदमों में एक ही होते हैं। ये पुलिस द्वारा रटा-रटाया बयान दोहराते है, लेकिन जिरह में कई बार उनकी सच्चाई सामने आ जाती है। लेकिन यूपीकोका में न्याय के न्यायवान बनने के इस महत्वपूर्ण पहलू को ही समाप्त कर दिया गया है। यह बेहद खतरनाक है। यूपीकोका के मामलों में न्यूनतम सजा 3 साल तथा अधिकतम सजा फांसी है। साथ ही 5 लाख से लेकर 25 लाख तक का जुर्माना भी।

आज भी देश भर की जेलें निर्धारित सजा काट चुके, लेकिन  जुर्माना न चुका पाने वाले लोगों से भरी पड़ी है। यूपीकोका के आ जाने के बाद यह सिलसिला और बढ़ेगा, क्योंकि इतना भारी जुर्माना चुकाने की स्थिति में गरीब आरोपी तो नहीं ही होंगे। अभी तो स्थिति ये है कि मात्र 25 हजार जुर्माना न चुका पाने के कारण कितने लोग सालों से जेल में कैद हैं।

  1. यूपीकोका मामलों की सुनवायी अलग अदालतों में होगी। यह पूरे मामले को अपने हाथ में रखने की एक और कवायद है। ऐसे जितने भी आदेश देखने में भले लगते हैं, लेकिन वे होते जनविरोधी हैं। जैसे ‘फास्ट कोर्ट’ की स्थापना मामलों की जल्द सुनवाई के लिए की गयी थी, लेकिन इस बात के काफी प्रमाण मौजूद हैं कि इसका इस्तेमाल विरोधियों को जल्द से जल्द मन मुताबिक सजा दिलवाने के लिए ही किया गया है, न कि न्याय दिलवाने के लिए।

यूपीकोका के सभी घोषित प्रावधानों को ही देखते हुए ये समझ में आ जाता है कि ये कानून किसी माफिया या अपराधी को रोकने के लिए नहीं, बल्कि सरकारी विरोधियों को रोकने के लिए अधिक है।  सरकार के विरोधियों में आज जनवाद पसन्द, अल्पसंख्यक, वामपंथी और दलित  शामिल हैं। ये कानून माफियाओं के लिए नहीं, इनके खिलाफ ही लाया जा रहा है। मकोका का इस्तेमाल भी ज्यादातर ऐसे ही विरोधियों के खिलाफ किया गया है। मकोका का ही नहीं, बल्कि ऐसे जनद्रोही सभी कानून, विरोधियों को जेलों में डालने के लिए ही लाये जाते हैं। यूपीकोका भी उसी की एक कड़ी है। इसका विरोध करने वालों का मुंह बंद करने के लिए सरकार कह रही है कि इसके कई प्रावधान ऐसे हैं, जो इसका दुरूपयोग नहीं होने देगी। जिसे वे ऐसे प्रावधान बोल रही है उनमें है-

  1. केस को डीआईजी रैंक के अधिकारी की अनुमति के बाद ही दर्ज किये जायेंगे। लेकिन क्या यह सचमुच दुरूपयोग से बचाव है? डीआईजी खुद सरकार का नुमाइंदा है और सरकारी आदेश का पालन ही करेगा।
  2. सरकार का कहना है कि यह कानून उसी पर लागू होगा, जिसका पहले से कम से कम तीन साल का कोई आपराधिक रिकार्ड हो। लेकिन यह तर्क इसलिए किसी को संतुष्ट नहीं करता, क्योंकि पुलिस किसका रिकार्ड कब खराब बताकर इस कानून को थोप दे, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर थाने में ‘अज्ञात’नाम से जितने मुकदमे दर्ज होते हैं, समय आने पर उन्हें ‘ज्ञात’बना देना पुलिस के बाये हाथ का खेल होता है। इसी कमाल से वे आंदोलनकारियों को एक केस से बरी होते ही दूसरे केस में फिर जेल में डाल देते हैं। इसलिए यह तर्क जरा भी आश्वस्त नहीं करता है।

वास्तव में प्रदेश में और देश में भी पहले से जितने कानून मौजूद हैं, बेशक उनमें से कई जनद्रोही भी है, अपराधियों, माफियाओं को पकड़ने और उन्हें सजा दिलाने के लिए पर्याप्त है। लेकिन सरकारों की मंशा ऐसी है ही नहीं, क्योंकि अपराधी तो खुद संसद और विधान सभाओं में ही हैं, जो खुद अपने नाम पर नये-नये कड़े से कड़े कानून बना कर आम लोगों को अपराधी के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं।

चूंकि इस बार की सरकार हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर आयी है तो जाहिर है इसका निशाना ‘हिन्दुत्व’ से बाहर के लोग ज्यादा हैं। इस बार आया यूपीकोका भी इनके ही दमन के लिए लाया जा रहा है। ‘माफिया’, ‘आतंकवादी’, ‘देशद्रोही’और ‘अपराधी’ तो वे शब्द हैं, जो बाद में इन पर चस्पा किये जाने हैं, ताकि बाकी की जनता को तटस्थ किया जा सके। लेकिन निशाने पर हर वो व्यक्ति है, जो सरकार से असंतुष्ट है और अल्पसंख्यक है। यूपीकोका जैसे जनद्रोही कानूनों का आते रहना इस फासीवादी निजाम की कई विशेषताओं में से एक विशेषता है, न कि अपराधों को खत्म करने की कोई कवायद। यह नया कानून भी उसकी ही एक कड़ी है।


सीमा आज़ाद वरिष्‍ठ पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इलाहाबाद से दस्‍तक नाम की पत्रिका निकालती हैं। साहसिक अभिव्‍यक्ति के लिए सज़ा काट चुकी हैं।

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