मोदी सरकार ने अपने अब तक के कार्यकाल में यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए कुछ महत्वपूर्ण कानूनों में बदलाव करके उन्हें बेहद कमजोर और निष्प्रभावी बना दिया है। आखिर क्या कारण है कि मोदी सरकार ने सत्त्ता में वापसी करते ही मनमोहन सरकार द्वारा लाए गए कानूनों पर टूट पड़ी है।आइए नज़र डालते हैं यूपीए के उन महत्वपूर्ण कानूनों पर जिनसे भारत के देशी पूंजीपतियों, विश्व व्यापार संगठन और करप्ट नौकरशाही को समस्या थी।
मनरेगा यूपीए के मनमोहन सरकार की क्रांतिकारी योजना थी। लेकिन इससे सबस् ज्यादा परेशानी भारत के कार्पोरेट को थी। उनकी दो दलीलें थी। पहली ये कि इससे राजकोष पर अतिरिक्त दबाव बढ़ेगा और दूसरे ये कि इससे उद्योगो और कारखानों को इससे मजदूर नहीं मिल पाएंगे। जबकि इसके पीछे की नकी मंशा श्रम के शोषण और सस्ते मजदूरों से थी। अपने सीमित प्रावधानों के बावजूद मनरेगा ने गांवों व कस्बों से शहरों में होने वाले भारी विस्थापन की गति को मंद कर दी थी। दूसरा फायदा ये हुआ कि मनरेगा में मिनिमम वेज मिलने के चलते मजदूर मनरेगा के बराबर मजदूरी मांगने लगे इससे श्रम का शोषण कम हो गया।
2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद ही सुगबुगाहट तेज हुई कि मनरेगा बंद कर दिया जाएगा। इसे बंद करने से शायद सरकार को वोटरों को गुस्सा झेलन पड़ता तो मोदी सरकार ने बीच का रास्ता निकालते हुए मनरेगा की फंडिंग कम करके इसे निष्प्रभावी बना दिया। इससे फायदा ये हुआ कि पिर से बेरोजगारी बढ़ी और कार्पोरेट को सस्ते मजदूर मिलने लगे।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013
विश्व व्यापार संगठन भारत समेत तमाम विकासशील देशों पर दबाव बनाता रहा है कि वो अपने देश में खाद्य सुरक्षा व कृषि संरक्षण सबसिडी को कम करके सार्वजनिक वितरण प्रणाली खत्म करें। ताकि बाजार अपना काम कर सके।
लेकिन यूपीए 2 ने अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष मेंदुनिया का सबसे बड़ा फूड सुरक्षा कार्यक्रम लाकर खाद्य सुरक्षा को और बड़ा व जनव्यापी बना दिया। भारत सरकार किसानों से लोक भंडारण के लिए अनाज खरीदती है और फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत बांटती है। । इसका मकसद सभी को खाद्य सुरक्षा का अधिकार देना,महंगाई नियंत्रित करना, किसानों को पूरा संरक्षण प्रदान करना और आपातकालीन स्थितियों के लिए सुरक्षा खाद्य भंडारण करना है। जबकि विश्व व्यापार संगठन चाहता है कि भारत सरकार खाद्य सुरक्षा पूरी तरह से कंपनीराज के कब्जे में आ जाए। ताकि खेत और लोगों के बीच बड़े मुनाफे का व्यापार हो सके। लोग पैकेटबंद और प्रसंस्कृत भोजन का उपभोग करें।
वन अधिकार कानून-2006
इस कानून के बनने से आदिवासी वनवासी जंगलों के असली मालिक हो गए। जंगलो और पहाड़ों के मुफ्त खनन करके बडा मुनाफा कमाने के भारतीय पूंजीपतियों के मंसूबों पर एक तरह से पानी फिर गया। वो तर्क देते रहे कि इससे देश का आर्थिक विकास कमजोर होगा। इसके बाद मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय वन नीति 2018 के जरिए वन अधिकार कानून-2006 को कमजोर कर दिया। फिर कार्पोरेट लॉबीको सपोर्ट करने वाले कथित पर्यावरणविदों ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके आदिवासियों को अतिक्रमणकारी और जंगलों को नष्ट करनेवाला बताकर उनकी जंगलों से बेदखली का मार्ग प्रशस्त किया।
भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना विधेयक-2013
ये कानून किसानों ओर भूमि मालिकों के हितों को संरक्षित करता था। इस कानून के बनने के बाद से मनमाने तरीके से किसानों की जमीनें छीनने वाले कार्पोरेट के हित प्रभावित हो रहेथे। अतः सत्ता में आने के कुछ महीने बाद ही दिसंबर 2014 में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा उत्पादन, ग्रामीण आधार भूत संरचना, सस्ते आवासों का निर्माण, औद्योगिक गलियारा बनाने, सरकार के स्वामित्व वाली जमीन पर सार्वजनिक-निजी परियोजनाएं लागू करने के नाम पर इस कानून में संसोधन करके कार्पोरेट के हित में कमजोर कर दिया।
सूचना का अधिकार अधिनियम-2005
सूचना का अधिकार कानून पास होने के बाद इसका सबसे ज्यादा शिकार सरकारी योजनाओं में पलीता लगाने वाले भष्ट नौकरशाह हुए। खुद मोदी सरकार पिछले कार्यकाल में इस कानून की वजह से कई बार फंसती नजर आई। फिर चाहे वो मोदी की डिग्री सार्वजनिक करने का मामला रहा हो, नोटबंदी पर रिजर्व बैंक की बैठक से संबंधित जानकारी का खुलासा, तत्कालीन आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन द्वारा पीएमओ को बड़े फ्रॉड करने वालों की सूची सार्वजनिक करने का आदेश, कालेधन पर सीआईसी का आदेश या प्रधानमंत्री द्वारा फर्जी राशन कार्ड मामले पर जानकारी देने का आदेश।अतः मोदी सरकार ने दोबारा सत्ता में आते ही सूचना का अधिकार कानून को संसोधन के जरिए कमजोर बना दिया है।
2014 लोकसभा चुनाव में यूपीए के हार की पटकथा
2014 लोकसभा चुनाव की पटकथा 2012 में ही लिख दी गई थी। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए अपने जनकल्याणकारीकाननी सुधारों व नीतियों को लेकर लगातार पूंजपतियों के निशाने पर थी।मनमोहन सिंह सरकार ने अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में ये जो कुछ अच्छे काम किए थे ये कार्पोरेट और ताकतवर भ्रष्ट नौकरशाही के खिलाफ काम करती थी।अतः देश के कार्पोरेट और करप्ट नौकरशाही ताकतों ने मिलकर कांग्रेस के खिलाफ़ अन्ना हजारे की अगुवाई में एक ‘एनजीओ आंदोलन’ खड़ा किया। जबकि कार्पोरेट मीडिया ने 24 घंटे लाइव कवर करके इसे जनमत प्रभावित करनेवाला देशव्यापी आंदोलन बना दिया। इस तरह लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार जनमत को बनाने में कार्पोरेट खुलकर सामने आया और कार्पोरेट हितों पर जनहितों को तरजीह देनेवाली सरकार को उखाड़ फेंका।
2019 का चुनाव भाजपा और कांग्रस के बीच नहीं बल्कि कांग्रेस और कार्पोरेट के बीच था। दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी विपक्ष में रहते हुए कार्पोरेट के खिलाफ लगातार हमलावर रहे और लगातार अडानी अंबानी जैसे पूंजीपतियों का नाम लेकर उन्हें गरीबों किसानों का हक़ों का लुटेरा बताते रहे। इसके अलावा कांग्रेस ने चुनावी मैनिफेस्टों में कुछ ऐसी योजनाएं शामिल की जिनके आकार लेने से कार्पोरेट बर्बाद हो जाते। इसमें मनरेगा को एक बार फिर नए सिरे से प्रारूप देने (मनरेगा-3.0 का आरंभ करने) और जिन ज़िलों ने 100 दिन के रोज़गार के लक्ष्य को पूरा किया गया है वहां रोज़गार गारंटी बढ़ाकर 150 दिन करने का वादा, मिनिमम यूनिवर्सल इनकम के तहत बीस प्रतिशत आबादी को सालाना 72 हजार नगद देने का वादा,कृषि कर्ज़ माफ़ करके उचित मूल्य, कम लागत, बैंकों से कर्ज़ की सुविधा दे कर किसानों को अधिक आत्मनिर्भर बनाना, हर ब्लॉक में आधुनिक गोदाम और कोल्ड स्टोर बनाने के लिए नीति बनाने कावादा, बेघरों तथा भूमिहीन को घर देने के लिए “वासभूमि का अधिकार” कानून (Right to Homestead Act) बनाने का वादा, निजी स्वास्थ्य बीमा को हतोत्साहित करके सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने का वादा,रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति बनाने के काम में सरकार हस्तक्षेप खत्म करना,चुनाव में सुधारों की दिशा में अपारदर्शी चुनाव (निर्वाचक) बॉन्ड स्कीम को बन्द करके राष्ट्रीय चुनाव कोष की स्थापना करके चुनावों को प्रभावित करने की कार्पोरेट की प्रभाव को खत्म करना शामिल था।
अतः कार्पोरेट लॉबी ने एकजुट होकर अपने सारे पूंजीगत संशाधनों का इस्तेमाल करके प्रशस्त किया कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर सत्ता में वापसी न करने पाए।