हरेराम मिश्र
अपने आप में यह दिलचस्प है कि योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चल रहे निषेधाज्ञा उल्लंघन के एक आपराधिक मामले को खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वापस ले लिया है। निषेधाज्ञा उल्लंघन का यह मामला गोरखपुर के पीपीगंज थाने में सन् 1995 में दर्ज किया गया था जिसमें योगी आदित्यनाथ के साथ तेरह अन्य लोग भी आरोपी थे। यही नहीं, योगी आदित्यनाथ सरकार करीब 20 हजार नेताओं और जन प्रतिनिधियों पर दर्ज ऐसे मुकदमे वापस लेने की तैयारी कर रही है, जो उन पर आंदोलन और धरना प्रदर्शन के दौरान दर्ज किए गए थे। माना जा रहा है कि योगी सरकार द्वारा राजनीतिज्ञों पर दर्ज मुकदमों की वापसी का यह पहला चरण है। इसके बाद सरकार भाजपा नेताओं पर दर्ज उन मुकदमों की समीक्षा करेगी जो कि गंभीर आपराधिक धाराओं में हैं। ऐसी संभावना है कि अगले चरण में उन मुकदमों को भी वापस ले लिया जाएगा।
UP govt orders withdrawal of 1995 case related to defying prohibitory orders against CM Yogi Adityanath and 14 others.
— All India Radio News (@airnewsalerts) December 28, 2017
गौरतलब है कि योगी सरकार ने दर्ज मुकदमों की वापसी की प्रक्रिया ठीक ऐसे समय में शुरू की है जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट गोरखपुर दंगे में योगी आदित्यनाथ पर मुकदमा चलाए जाने का आदेश देने की एक जनहित याचिका पर फैसला सुरक्षित कर चुका है। विपक्ष की कानून और व्यवस्था प्रभावित होने की सतही आलोचनाओं के बीच- योगी सरकार इस मामले में तेजी से आगे बढ़ रही है। योगी सरकार का यह फैसला सीधे तौर पर भाजपा के लोगों को फायदा पहुंचाएगा और उन्हें संबंधित प्रकरण में अदालत के समक्ष अपनी बेगुनाही साबित किए बिना ही आरोपों की ’जवाबदेही’ से मुक्ति मिल जाएगी।
दरअसल, कानून-व्यवस्था तथा लोक शांति स्थापित करने के नाम पर पुलिस के पास बहुत ताकत होती है। राज्य में जिस दल की सरकार होती है, पुलिस मशीनरी उस दल के एजेंट की तरह काम करती है। ऐसे में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं को सरकार का विरोध करने से रोकने के लिए पुलिस द्वारा शांति भंग करने, गैर कानूनी जमावड़ा, निषेधाज्ञा उल्लंघन आदि के आरोप में विपक्षी दलों पर मामले दर्ज किए जाते हैं। चूंकि सभी दल दिखावे में लोकतांत्रिक हैं लिहाजा सत्ता में रहते वे अपने खिलाफ एक बात सुनना पसंद नहीं करते। ऐसे में ये सत्ताधारी दल राजनैतिक विरोधियों को परेशान करने के लिए पुलिस मशीनरी का खूब उपयोग करते हैं।
लेकिन, योगी सरकार ने इस समस्या से निपटने का जो ’तरीका’ खोजा है वह कानून का मखौल बनाने जैसा है। बेहतर होता कि इस संदर्भ में योगी सरकार द्वारा कुछ ऐसे ठोस कदम उठाए जाते जिससे कि इस तरह के मुकदमों को दर्ज करने की प्रक्रिया ज्यादा जवाबदेह और पारदर्शी होती। लेकिन ऐसा लगता है कि खुद योगी आदित्यनाथ ऐसी स्थिति बनाए रखने के पक्षधर हैं। इसलिए पुलिस मशीनरी को लोकतांत्रिक और जवाबदेह बनाने के ठीक उलट वह ऐसे ’शार्टकट’ अपना रहे हैं।
यूपी को गुंडामुक्त करवाने का योगी का शॉर्टकट फॉर्मूला : साभार आजतक
’पार्टी विथ डिफ्रेंस’ की बात करने वाली भाजपा ने अपने इस कदम से यह साफ कर दिया है कि वह किसी ’नैतिकता’ को नहीं मानती। यदि कोई व्यक्ति अपने ही मामले में जज बन जाए तो यह पूरी न्यायिक प्रक्रिया का उपहास जैसा है। लोकतंत्र में यह अस्वीकार्य है। लेकिन योगी सरकार जिस हठ पर आमादा है उससे यह साफ है कि वह किसी स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन नहीं करती। सरकार द्वारा बरती जा रही इस जल्दबाजी से ऐसा लगता है कि योगी आदित्यनाथ बहुत डरे हुए हैं। वह किसी अदृश्य ’भय’ से भयभीत हैं। इसीलिए वह अदालत का सामना करने से भाग रहे हैं और जनादेश का दुरुपयोग करके पीछे दरवाजे से कानूनी शिकंजे से अपनी गर्दन बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसी ’संस्कृति’ का विकास-पोषण लोकतंत्र को और कमजोर करेगा।
दरअसल, मुकदमा वापसी की यह कार्य संस्कृति तब और खतरनाक हो जाती है जब हमारे राजनीतिज्ञों का माफिया और अपराध की दुनिया से गठजोड़ का किस्सा हर रोज खुलता है। यह तरीका आम जन मानस की इस धारणा को पुष्ट करता है कि एक नेता कानून और अदालत से ’बड़ा’ होता है। जब समूची राजनीति माफिया-अपराधियों की पनाहगाह बन चुकी हो, सांप्रदायिक हिंसा में नेताओं की खुली संलिप्तता दिखती हो- तब ऐसी संस्कृति को बिल्कुल भी विकसित या प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए।
हलांकि विकास, राष्ट्रवाद की बात करने वाली, सबका साथ सबका विकास जैसे नारों के सहारे सेक्यूलर भाव वाले लोकतंत्र को ’भगवामय’ बनाने तथा सबसे बड़े देशभक्त होने का नगाड़ा पीटने वाली भाजपा में आपराधिक छवि के नेताओं की कितनी संख्या है, इसे एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिर्फोम्स (एडीआर) के ताजे आंकड़ों से समझ सकते हैं। एडीआर के मुताबिक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य सहित 20 मंत्री ऐसे हैं, जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। विधानसभा में बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 114 के ऊपर अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें से 83 पर गंभीर आपराधिक केस हैं। सदन में सपा के 46 में से 14, बसपा के 19 में से 5, कांग्रेस के 7 में से 1 विधायक पर आपराधिक मामला दर्ज है। खुद योगी आदित्यनाथ पर 3 मामले दर्ज हैं, जिनमें 7 गंभीर धाराएं हैं। केशव मौर्य के ऊपर 11 मामले दर्ज हैं और इन मामलों में 15 संगीन धराएं लगी हैं। नंदगोपाल नंदी, सतपाल सिंह बघेल, दारा सिंह, उपेंद्र, सुरेश कुमार राणा, सूर्य प्रताप शाही, भूपेंद्र, गिरीश चंद्र यादव, मनोहर लाल, ब्रिजेश पाठक, ओम प्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा जोशी, अनिल, अशुतोष टंडन, धर्मपाल सिंह, सतीष महाना और नीलकंठ ऐसे मंत्री हैं जिनके ऊपर आपराधिक मामले दर्ज हैं। राष्ट्रवाद मजबूत करने में इन नेताओं के आपराधिक वृत्ति की भला क्या उपयोगिता है?
प्रतिनिधि चित्र: आप ही मुंसिफ, आप ही जज
अब ऐसे में, अगर योगी सरकार एक कदम आगे बढ़कर इन नेताओं पर दर्ज आपराधिक मुकदमों को भी वापस ले लेती है तब भाजपा अपराधियों की सुरक्षित ’शरणस्थली’ बन जाएगी। हो सकता है कि यह कदम इन नेताओं को और ज्यादा अपराध करने के लिए प्रेरित करे। यह सब किस तरह से जन हित में होगा और किस तरह से ऐसे अपराधी छवि के लोग राष्ट्रवाद मजबूत करेंगे- इसे सहज ही समझा जा सकता है?
दरअसल योगी सरकार का यह कदम आम आदमी के दिमाग में इस लोकतंत्र का एक ’असफल’ चेहरा सामने लाता है। बेहतर होता कि यह सब करने के बजाए राजनैतिक दलों के लिए ’कंडोम’ में परिवर्तित होती पुलिस की छवि को सुधारने और जवाबदेह बनाने का ठोस काम किया जाता। लेकिन इससे ठीक इतर, योगी इस सरकार मुकदमा वापसी के मार्फत प्रदेश में ’भाजपाई’ और ’भगवा’ गुंडागर्दी को सांस्थानिक रूप देने की कोशिश कर रही है। यह विधि के शासन खत्म करने की एक ’आपराधिक’ चाल है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं