लॉकडाउन के भाले पर शहीद हुए घुमन्तू समुदाय के बच्चों का ज़िक़्र किसी फ़साने में नहीं!

लॉक डाउन में जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं और जिनके लिए बहुत ही कम बात हुई है वो हैं घुमन्तू समुदाय के बच्चे। लॉक डाउन भले ही बीत गया लेकिन इन बच्चों का लॉक डाउन तो न जाने कब से चला आ रहा है और अनन्त तक चलेगा।

हाल ही में जयपुर रेलवे जंक्शन के नजदीक तम्बू डालकर रह रहे, ढोली समाज के बच्चे जीतू ने दम तोड़ दिया। वो 11 साल का था। उसकी माँ नुरती बाई का कहना है कि उसको भर पेट खाना मिले कई दिन हो गया था। वो पांच बच्चों में सबसे बड़ा था। वो कचरा बीनने का काम करता था। वो पिछले 5 दिन से बीमार था और अंत में उसने दम तोड़ दिया।

जीतू अकेला नहीं है, उसके जैसे न जाने कितने बच्चे अकेले जयपुर में दम तोड़ रहे हैं। यही स्थिति मध्य प्रदेश समेत बिहार और उत्तर प्रदेश राज्य की है। हमारी सरकार को इनसे कोई वास्ता नहीं है। त्रासदी की बात तो यह है कि इसे भूख से हुई मौत में शामिल नहीं किया जाता, बल्कि प्राकृतिक मौत में शामिल किया जाता है। इसी तरह इन समुदायों में मातृ मृत्यु और शिशु मृत्यु को भी रेकॉर्ड नहीं किया जाता है।

ये बच्चे केवल कचरा ही नहीं उठाते, बल्कि उसके साथ खतरनाक रसायनों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं। चूंकि इनके पास पहचान का कोई दस्तावेज नहीं होता इसलिए इनका कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं होता। इनमें ढोली, कालबेलिया, कंजर, पेरना, जोगी, नट, भोपा और साठिया जाति के अधिकांश बच्चे हैं।

इन बच्चों को हमने क्या दिया?

रेलवे लाइन दी मल साफ करने हेतु, शहर दिये कूड़ा बिनने के लिये, रेड लाइट दी भीख मांगने के लिये, ईंट भट्टे दिये मजदूरी करने के लिये। इन सबका परिणाम ये होता है कि ये बच्चे कम उम्र में ही अपना तनाव और कुंठा को कम करने के लिये नशे की लत में पड़ जाते हैं या फिर अपराधों की ओर मुड़ जाते हैं। एक तथ्य बड़ा चौकाने वाला है कि इन बच्चों को सबसे ज्यादा त्वचा संबंधी रोग होते हैं, जो उनको जल्द ही मौत की नींद सुला देते हैं।

राजस्थान में किए गए शोध के आधार पर घुमन्तू समाज के 6 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं. राजस्थान में 95 फीसदी से ज्यादा घुमन्तू समाजों के बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं. इसका सबसे बड़ा कारण हैं कि घुमन्तू समुदाय के टोले में कहीं भी आंगनवाड़ी की कोई सुविधा नहीं हैं. पूरे राजस्थान भर में घुमन्तू टोले में शायद ही कहीं आंगनवाड़ी हो।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 में पूरी दुनिया के 117 देशों में भारत को 102वां स्थान मिला है। ये दक्षिण एशियाई देशों में सबसे निचला स्थान है। हमे ये समझना है कि ये स्थिति तब है, जब इन घुमन्तू समाजों का जो कुल जनसंख्या के 10 फीसदी हैं, उनका कोई रिकॉर्ड शामिल नहीं है। अन्यथा इस रिपोर्ट का 117वां नम्बर भारत का ही है।

 

शर्मनाक स्थिति

हम बहुत बड़ी बड़ी बात करते हैं. बड़े बड़े दावे करते हैं. असल में सत्ता का चरित्र शोषण का ही होता है. सरकार बीजेपी की हो या कांग्रेस की. किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि जो ये 6 लाख बच्चे हैं, ये 10 साल के बाद क्या करेंगे ? न इनके पास शिक्षा हैं और न ही कोई कौशल? ये अपराधों की ओर ही मुड़ेंगे.

आदिवासी समुदायों के लिए अलग स्कूल हैं, जो सामान्य स्कूलों से अलग हैं, क्योंकि उनकी संकृति अलग है, सोच अलग है, और जीवन शैली भी अलग है. ये अच्छी बात है, किन्तु घुमन्तू समुदायों के बच्चों के लिए तो एक भी स्कूल नहीं हैं जबकि इनकी संस्कृति बकाया समाज से बहुत अलग है.

अजमेर में भीख मांगकर अपना पेट भर रहे कंजर समुदाय के बच्चे चंदन (नाम बदला हुआ) उम्र करीब 9/10 वर्ष, ने बताया कि उसके पिता नहीं है, केवल मा है. भीख मांगकर और कूड़ा उठाकर पैसा जुटाता है.

चंदन चार भाई- बहन हैं. उससे बड़ी उसकी बहन है, जो 11/12 साल की होगी. दो भाई उससे छोटे हैं. नजदीक तम्बू डालकर रहते हैं. जब मैंने वहां जाकर पता किया तो फुल्ली देवी, उम्र करीब 28/30 वर्ष भीख मांगकर गुजारा करती है.

चार बच्चे हैं पति को गुजरे 2 वर्ष हो गए हैं, किन्तु सरकार की कोई मदद नहीं हैं. न गरीबी रेखा का राशन कार्ड हैं और न ही विधवा पेंशन मिलती हैं तो यही चारा है. पढ़ाई लिखाई तो दूर की बात इनका पेट भर जाए यही काफी है.

ये दुनिया के बदनसीब बच्चे हैं, जिनका जीवन इसी कूड़े के ढेर से शुरू हुआ. इसी ढेर में इनका बचपन लिखा जायेगा. ये पैदा ही इस गंदगी को साफ करने के लिए होते हैं और अंत में एक दिन इसी गंदगी के ढेर में समा जायेंगे.

गरीब बनने की कीमत 10 हजार

अजमेर में पिछले 18 वर्षों से घुमन्तू समुदायों के लिए कार्य कर रहे रॉय डेनियल बताते हैं कि “यहां गरीब और मजबूर की सुनने वाला कोई नहीं हैं. मैं पूरे 2 साल तक आंगनवाड़ी खोलने के लिए घुमा, एक विभाग से दूसरे विभाग. लेकिन सरकार ने इन लोगों के लिए एक आँगनवाड़ी तक नहीं दी”

डेनियल आगे बताते हैं कि “ये इतने अभागे लोग हैं, यहां गरीब बनने की भी कीमत 10 हज़ार है. यदि आपने 10 हज़ार रु दिया तो आपका सब काम हो जाएगा, आपका बीपीएल राशन कार्ड भी बन जायेगा, विधवा पेंशन से लेकर सब काम हो जाएगा, इसके बिना आप एक साल क्या 20 साल घूम लें”

इस बात को जांचने हम जयपुर, पुष्कर से लेकर सिरोही, पाली इत्यादि कई जिलों के टोले का अध्यन किया तो इस तथ्य को सही पाया. उस राज्य से और क्या उम्मीद करेंगे जहाँ गरीब बनने की कीमत भी रुपयों से तय होती है.

राजस्थान की इन स्थिति पर समग्र सेवा संघ के सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गोस्वामी कहते हैं कि “कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक हैं. कहने को ये अलग हैं, लेकिन दोनों दल काम एक जैसा ही करते हैं. न कभी बीजेपी ने इन मुद्दों को उठाया और न कांग्रेस को इस मुद्दे से कोई वास्ता है. हमे राजनीतिक दलों को नहीं बल्कि इस राजनीतिक संस्कृति को बदलना पड़ेगा अन्यथा कुछ नहीं हो सकता.”

हमें भी अब ये तय करना होगा की हम किस ओर हैं? हम आने वाले समय को कैसा बनाना चाहते हैं? क्या इस भविष्य को कूड़े के ढेर में रखना चाहते हैं या भारत के निर्माण में इन बच्चों की भी कोई भूमिका होगी ?

मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री अपनी ताकत और जोर आजमाइश में लगे हैं और इधर ये बच्चे कुड़े के ढेर में अपना बचपन तलाश रहे हैं. उन बच्चों के सपने में जरूर लोकतंत्र और सविधान आता होगा और उनको कहता होगा कि ये गांधी का भारत है. नेहरू के सपनों का भारत हैं. फिर ये बच्चे गहरी नींद में सो जाते होंगे।


 अश्वनी कबीर, स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं।

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