चंद्रभूषण
असल चीज यह है कि अदालत ने अयोध्या विवाद को आस्था के प्रश्न की तरह नहीं बल्कि सिर्फ एक भूमि विवाद की तरह लेने का फैसला किया है। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने इसे एक जमीन के मालिकाने के मामले की तरह लेने के बजाय 1994 के उस फैसले को ही कुछ ज्यादा दिल पर लेते हुए इसको सरकार द्वारा अधिग्रहीत जमीन से जुड़ा आस्था का प्रश्न मानकर झगड़े में उतरे तीनों फरीकों के बीच जमीन को बराबर-बराबर बांट दिया था। सुप्रीम कोर्ट मसले को इस तरह नहीं ले रहा है। उसके लिए अब यह हिंदू-मुस्लिम का मामला ही नहीं है। एक जमीन के टुकड़े को लेकर- जिस पर एक पुरानी इमारत भी खड़ी थी- दो पक्ष अपना-अपना दावा जता रहे हैं। अदालत को बताना है कि टुकड़े पर इनका दावा सही है या उनका।
कुछ समय पहले दिल्ली में ही बीजेपी के एक असंतुष्ट लेकिन अगियाबैताल नेता ने मुझसे कहा था कि इस मामले पर फैसला सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा नेतृत्व के तहत ही होना है, क्योंकि मौजूदा सरकार का इस पर कुछ ज्यादा भरोसा है। उनकी कई अन्य बातों की तरह इसे भी मैंने विश्वसनीय नहीं माना, न कभी मानूंगा। मुझे नहीं लगता कि भारत में वह दौर अभी ही आ गया है, जब आप सुप्रीम कोर्ट को सरकारों की लाइन लागू करते देखेंगे। इस स्तर के हमारे न्यायाधीशों की अपनी कुछ और कमजोरियां हो सकती हैं, मसलन जब-तब छोटे-मोटे स्वार्थ या पूर्वाग्रह। लेकिन जिन फैसलों से देश की किस्मत जुड़ी है, उन पर आज भी आप उनसे विवेकसम्मत फैसलों की ही उम्मीद करते हैं।
मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अगर अयोध्या विवाद को पूरी तरह भूमि विवाद की तरह लिया तो उसका फैसला मस्जिद पक्ष की तरफ जाएगा। कारण यह कि उसके पास इस जमीन के लैंड रिकॉर्ड (खसरा-खतौनी वगैरह) हैं। समस्या इसमें आस्था का एंगल डालने से ही खड़ी हुई थी। आस्था को एक तरफ रख दें तो कहीं कोई विवाद ही नहीं है। क्या मंदिर पक्ष के पास इस जमीन का लैंड रिकॉर्ड है, दाखिल-खारिज के कागजात हैं? नहीं हैं तो खामखा क्यों बात बढ़ा रहे हैं? मुझे पता है कि इस फैसले के अपने खतरे हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों पर काबिज बीजेपी इस फैसले को 2019 में अपनी वापसी के लिए सबसे मुफीद मुद्दा बना सकती है। यह कहकर कि अदालत से निराश होकर सोमनाथ की तरह वहां मंदिर बनाने का कानून लाने के सिवा कोई चारा उसके पास नहीं बचा है। लेकिन वह हमारा सिरदर्द है, अदालत का नहीं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।