कल 13 नवम्बर 2019 को अमर उजाला में वरिष्ठ साहित्यकार सुधीश पचौरी का लेख आया हुआ था। सुधीश पचौरी की पहचान वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में की गयी है। लेख में वे अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाओं पर व्यंग्य कर रहे थे। लेख का शीर्षक है ‘अयोध्या, आम आदमी और बुद्धिजीवी।’
शीर्षक में ही वरिष्ठ साहित्यकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं। हिंदी साहित्य में शायद वरिष्ठ साहित्यकार बनने के लिए बुद्धि की जरूरत नहीं होती है। सिर्फ जातिवादी, साम्प्रदायिक और चापलूस बनने से बात बन जाती है। लेख में बोल्ड अक्षरों में बुद्धिजीवियों से पूछा गया है कि जब देश की अदालत और “बहुमतवादी अस्मिता कहती है कि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले। तब भी आप उसका विश्वास नहीं करेंगे? और अगर नहीं करेंगे तो आपका विश्वास कौन करेगा?”
वरिष्ठ साहित्यकार अगर इसी अख़बार का अगला पन्ना देख लेते तो ये सवाल पूछने की जरुरत नहीं पड़ती। अगले पन्ने पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है, ‘राम मंदिर अभियान ख़त्म, अब घर वापसी अभियान में जुटेगी विहिप।’
वो कहते हैं कि, “मध्यकाल में जो इस्लामी आक्रांता भारत आते थे तो वे प्रसाद बांटने नहीं आते थे।” और ये भी कि ‘इतिहास जनस्मृति में मौजूद रहता है। जन स्मृति में राम है।’ प्रोपगैंडा को सुधीश पचौरी जनस्मृति के नाम से जानते है। बुद्धि न होने के कारण ये समस्याएं हो जाती हैं। तथाकथित जनस्मृति ताजमहल को तेजो महालय मानती है। सुधीश जी को जनस्मृति का अहसास है। 500 साल पहले आये आक्रमणकारियों का पता है, पर वो कौन लोग थे जो अपने ही देश के लोगों से जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते थे, जो आज भी जारी है। वो कौन लोग हैं जो अपने ही देश की सम्पदा को तहस-नहस करते हैं। अपने ही देश के नागरिकों का कत्लेआम करते हैं? ये सब बातें तथाकथित जनस्मृति से बाहर की बातें हैं।
सुधीश जी को इस बात का भी ग़म है कि बुद्धिजीवी वाल्मीकि की रामायण को याद रखते हैं पर तुलसीदास की रामचरित मानस को नहीं याद करते जिसमें राम करुणा के सागर हैं। सुधीश जी को खुद भी कहाँ याद रहता है कि तुलसीदास ने उन्ही आक्रान्ताओं के राज में रामचरित मानस लिखी जो मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाते थे। उन्ही मस्जिद में तुलसीदास को सोना भी पड़ा क्योंकि मंदिर वाले तो रामचरितमानस लिखने ही नहीं दे रहे थे। सब बातें सबको कहाँ ही याद रहती हैं।
सुधीश जी, बुद्धिजीवी बिलकुल वही काम कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए। वो ये काम कभी से कर रहे हैं। बुद्धिजीवी जनता को सही राह दिखाने का काम करते है। ग़लत को ग़लत कहते हैं।
मोहनदास गाँधी ने सच के बारे में लिखा हैः “An error does not become truth by reason of multiplied propagation, nor does truth become error because nobody sees it. Truth stands, even if there be no public support. It is self sustained.”
एक संस्कृत श्लोक भी है, “निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मी समाविशतु गच्छ्तु वा यथेष्ठं। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्यायात्पन्थात्प्रविशन्ति पदं न धीराः।।”
बुद्धिजीवियों का काम तो उसी सच के साथ खड़ा होना है। पब्लिक सपोर्ट की वजह से सच को नहीं छोड़ा जा सकता। आपने कहा, अदालत ने भी मान लिया कि वहाँ 500 साल पहले मंदिर था। कोर्ट ने भी अपना काम किया। ये भी कोर्ट के लिए कोई नया काम नहीं है। दुनिया भर में कोर्ट का इतिहास है। कोर्ट कभी भी सामाजिक चिकित्सा नहीं करती न ही कभी समाज सुधार या सामाजिक आंदोलन करती है और न ही ऐसे कामों को सपोर्ट करती है। कोर्ट का न्याय ऐसे ही काम करता है।
हावर्ड फ़ास्ट ने ‘स्पार्टकस’ में शासकीय न्याय के बारे में कितना सटीक लिखा हुआ है− “अब से बहुत पहले सिसरो ने न्याय और नैतिकता के विराट अंतर को पा लिया था। न्याय था मज़बूत के हाथ का औजार जिसे वो जैसे चाहे इस्तेमाल करे और नैतिकता थी कमजोर के मन की भ्रान्ति, वैसी ही भ्रान्ति जैसे भगवान। ग़ुलामी की प्रथा न्यायपूर्ण थी। सिसरो के मतानुसार केवल मुर्ख ही ये कह सकते है कि वो नैतिक है।”
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न्यायपूर्ण है। 1947 से पहले भी देश में कोर्ट थे, जज थे। उस वक्त भी वो न्यायपूर्ण निर्णय देते थे। अमेरिका से लेकर साउथ अफ्रीका तक पंच परमेश्वर और उनके न्याय के दस्तावेज बिखरे हुए हैं। संस्कृति, वर्चस्व, शोषण सब कुछ इतिहास अपने में समेटे हुए है। 1857 में अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट दिया था कि, ‘ग़ुलाम ड्रेड स्कॉट अपनी आजादी के लिए मुकदमा नहीं लड़ सकता क्योंकि वो इंसान नहीं है वो एक सम्पति है।’
ऐसे ही इस निर्णय के बारे में भी कहा जाएगा कि, ‘2019 में कोर्ट 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने और उसके बाद हुए दंगो पर, दंगा प्रायोजित करवाने वाले आरोपों पर आश्वस्त नहीं हुआ, पर उसे इस बात पर यक़ीन हो गया कि 500 साल पहले वहां एक मंदिर था।’ हर युग में न्याय ऐसे ही होते रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने जो किया वो न्यायपूर्ण है, सही भी है। बुद्धिजीवी जो कर रहे हैं वो भी बिलकुल सही है वो भी सदियों से यही करते आ रहे हैं। उन्होंने दासता का विरोध किया, रेसिज्म का विरोध किया, फासिज्म का विरोध किया। उसी युग में किया जब सबको ये नॉर्मल लगता था। अमेरिका में काम के घंटे 8 करने के लिए 1 मई 1886 वर्कर्स ने हड़ताल की। 4 मई को हुए बम ब्लास्ट के आरोप में 8 मजदूर नेताओ को गिरफ़्तार किया गया। उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं थे। उन्हें कोर्ट ने सिर्फ उनके विचारों और किताबों के कारण मौत की सजा सुना दी। इस फैसले का भी उस वक्त दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने उन जजों के लिए लिखा कि, ‘अगर दुनिया में से 8 इंसानों को जाना ही है तो उनको जाना चाहिए जिन्होंने ये सजा सुनाई है।’
सुधीश जी, आप बुद्धिजीवियों की चिंता मत कीजिये। वो अपना काम कर रहे है। सुप्रीम कोर्ट भी अपना काम कर रहा है। मैं तो आपकी भी तारीफ करूँगा। आप भी कोई नया काम भले ही न कर रहे हों, पर एक परम्परा को जारी रखने में अपना सहयोग तो दे ही रहे हैं। आप जैसे लोगों की तो कभी कमी वैसे रही नहीं है और राम जी की दया से आज भी नहीं है। आप अपना काम करते रहिये। आपके काम में तो वैसे भी बुद्धि की कम ही जरूरत पड़ती है। तो बुद्धिजीवियों को उनके हाल पर छोड़ दीजिये।
यह लेख अमोल सरोज का है और विकास आनंद की फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित है