विकास नारायण राय
अग्निवेश एक ऐसे राजनीतिक हमले का शिकार बने जिसका स्रोत अंबेडकर के बताये संवैधानिक विरोधाभास में निहित है। अन्यथा, मोदी के प्रधानमन्त्री बनने पर उन्होंने बधाई का पत्र भेजा था और नीतीश कुमार के बिहार में भाजपा संग जाने के बावजूद वे नशाबंदी पर उनका समर्थन जताते रहे थे। अंबेडकर की तर्ज पर अग्निवेश भी अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देकर जाति प्रथा से व्यवहारिक स्तर पर लड़ने के समर्थक रहे हैं।
अंबेडकर ने संविधान सभा में जैसा चेताया था, हमारे राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक जीवन के बीच के विरोधाभास उलझते जा रहे हैं। उन्होंने कहा था 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने पर-“राजनीति में समानता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य का सिद्धांत स्वीकार रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करना जारी रखेंगे। …….हम कब तक यह विरोधाभासी जीवन जीते रहेंगे? हम कब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को अस्वीकृत करते रहेंगे? यदि हम लम्बे समय तक इसे अस्वीकार करते रहे, तो ऐसा अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल कर ही करेंगे|”
स्वामी अग्निवेश पर भगवा भीड़ का हमला जिस एक सवाल पर केन्द्रित हो जाना चाहिए, वह है: क्या यह संविधान भी बचेगा? सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग की अनेकों घटनाओं के सन्दर्भ में ताजातरीन निर्देश में कहा है कि वे भीड़ तंत्र को देश रौंदने नहीं दे सकते। उसका यही मतलब निकलेगा कि निदान के मौजूदा तौर-तरीके, यानी हाई कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में रिटदायर करना, संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं।
संविधान लिंचिंग गली-मोहल्लों-गावों-कस्बों में होने लगी है तो उसके निदान भी सहज उपलब्ध हो। दरअसल लम्बे अरसे से जरूरत मुंह बाए खड़ी है कि संविधान की रक्षा के लिए कोई सख्त कानून बने जो भगवा या शरिया जैसी धार्मिक राजनीति के शिकार सामान्य पीड़ित को सहज निदान भी उपलब्ध करा सके। मसलन, ‘प्रोटेक्शन ऑफ़ सिटीजन फ्रॉम वायलेशन ऑफ़कान्सटीट्यूशन एक्ट।’ वैसे ही जैसे दलित और आदिवासी सन्दर्भ में कड़ा कानून बना हुआ है –प्रेवेंशन ऑफ़ अट्रोसिटी अगेंस्ट शेडूलकास्ट एंड शेडूल ट्राइब एक्ट।
गत वर्षों में संविधान की कई लोकतांत्रिक अवधारणायें स्वयं ‘लिंचिंग’ का शिकार हो चुकी हैं।इनमें शासन के तीन अंगों- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका- की परस्पर स्वतंत्रता की मूलभूत अवधारणा भी शामिल है। कार्यपालिका की मनमानी ने विधायिका को तो अनुपालक बना ही दिया है,अपने ऊपर न्यायपालिका के अंकुश को भी एक हद तक भोंथरा कर छोड़ा है।
यहाँ तक कि,अरसे से स्वयं सुप्रीम कोर्ट की भी लोकतांत्रिक पकड़ संदेह के घेरे में नजर आ रही है। मोदी सरकार बनने पर दिल्ली पटियाला हाउस अदालत परिसर में भगवा पाले के वकीलों के ‘लिंचिंग मॉब’ हमले का कन्हैया कुमार प्रकरण सारे देश ने टीवी पर देखा था। उत्तेजित सुप्रीम कोर्ट ने उसी दिन सीनियर वकीलों की टीम भेज कर रिपोर्ट भी मंगाई पर आगे दोषियों पर कार्यवाही का चरण टांय-टांय फिस्स ही रहा। आज भी वे अन्धविश्वासी-अफवाही-आपराधिक मॉब लिंचिंग को लेकर क्रियाशील हुए हैं जबकि राजनीतिक मॉब लिंचिंग और उसकी पूरक मीडिया लिंचिंग पर उनकी प्रायः निष्क्रियता या बेहद धीमी सुनवाई की प्रकृति को तोड़ने की जरूरत है।
वस्तुस्थिति यह है कि अंबेडकर ने ‘एक वोट एक वैल्यू’ की राजनीतिक समानता की संवैधानिक अवधारणा में जो आस्था प्रकट की थी,आज उसका भी अस्तित्व खतरे में है। जातिगत आरक्षण और सोशल सिक्योरिटी के सेफ्टी वाल्व तक बेहद दबाव में हैं। ऐसा हुआ है मुख्यतः कॉर्पोरेट धनतंत्र के लंबे समय से चले आ रहे प्रभाव में,और फिलहाल साम्प्रदायिक धर्मतंत्र के आक्रामक दखल के चलते। यानी असमानता के आर्थिक और सामाजिक विरोधाभास भारत में राजनीतिक लोकतंत्र को उसी खतरे में धकेल रहे हैं जिसे संविधान के अनावरण के साथ अंबेडकर ने रेखांकित किया था।
मोदी सरकार के सत्ता में आने के साथ,जेएनयू पर अंधाधुंध संघी हमलों ने समाज को रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार के रूप में युवा प्रगतिशील हीरो दिए। दाभोलकर,पानसरे,कलबुर्गी और गौरी लंकेश की शहादत ने यह भी रेखांकित किया है कि संवैधानिक लिंचिंग किसी सीमा को स्वीकार नहीं करती। अख़लाक़ से शुरू हुयी साम्प्रदायिक लिंचिंग अंतहीन सिलसिला लगने लगी है। स्वामी अग्निवेश के भीतर आज भी बंधुआ मुक्ति दौर का प्रगतिशील हीरो जी रहा है,इस बार के संघी हमले ने उसे संजीवनी भी दी है। मेरी कामना है यह हीरो समाज में नयी ऊर्जा से अपनी भूमिका निभाए।
(अवकाश प्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)