जज ‘मरे’ या पूर्व मुख्यमंत्री ख़ुदकुशी करे, मीडिया जाँच की माँग को ‘राजनीति’ बताता है !

” मैंने पिता की मौत की जांच के लिए उनसे एक जांच आयोग गठित करने को कहा था। मुझे डर है कि उनके खिलाफ हमें कुछ भी करने से रोकने के लिए वे हमारे परिवार के किसी भी सदस्‍य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हमारी जिंदगी खतरे में है।”

(जज लोया के बेटे अनुज लोया का 18 फ़रवरी 2015 का पत्र। इसमें ‘उनसे’ से मुराद बाम्ब हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह हैं। )

और 14 जनवरी 2018 का दृश्य-

डरे-सहमे  लग रहे अनुज लोया ने मीडिया के सामने आकर कहा कि उन्हें पिता की मौत पर किसी तरह का शक़ नहीं है !

जो कारोबारी मीडिया पहले पत्र पर चुप्पी साधे रहा, उसने इस बयान के आधार पर जज लोया की मौत पर सवाल उठाने वालों को निशाने पर लेना शुरू कर दिया। इसमें राजनीति खोजने लगा। हालाँकि जज लोया के बुज़ुर्ग पिता और बहन के वीडियो अब भी सामने हैं जिनमें वे साफ़ कह रहे हैं कि शाही रिहाई के बदले सौ करोड़ रुपये लेने का दबाव था जिसका ज़िक्र जज लोया ने घर वालों से किया था। उन्होंने कहा था कि मर जाएँगे पर झुकेंगे नहीं। कारवाँ के इस सनसनीखेज़ ख़बर को कथित मुख्यधारा का कारोबारी मीडिया पचा गया था। मीडिया विजिल ने इस स्टोरी का अनुवाद हिंदी में पेश किया था जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

अनुज लोया के इस यूटर्न से अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल की ख़ुदकुशी का मामला याद आता है। उनकी पत्नी ने 18 फरवरी 2017 को सुप्रीमकोर्ट में याचिका दाखिल करके ख़ुदकुशी की सीबीआई जाँच कराने की माँग की थी और 23 फ़रवरी को उसे वापस ले लिया।

आज़ाद भारत में न्यायतंत्र और सत्ता पर क़ाबिज़ अपराधियों के दु:श्चक्र को सबसे तीखे स्वरों समें सामने लाने वाली इस ख़ुदकुशी की जाँच का क्या हुआ, हमें नहीं पता।

अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल ने 9 अगस्त को ईटानगर में ख़ुदकुशी कर ली थी। उन्होंने 60 पेज का एक सुसाइड नोट छोड़ा था जिसका शीर्षक था- मेरे विचार।

इस सुसाइड नोट में उन्होंने विस्तार से लिखा था कि कैसे ‘सुप्रीम कोर्ट से उनके पक्ष में फ़ैसला करवाने के लिए 86 करोड़ रुपये माँगे गए थे। लेकिन वे ग़रीब आदमी हैं,इतना पैसा कहाँ से लाते।’

हद तो यह है कि पुल ने संपर्क करने वाले जिस व्यक्ति का नाम लिखा उसका एक मशहूर जज से क़रीबी रिश्ता है।

पुल कांग्रेस के नेता थे जिन्होंने बग़ावत करके बीजेपी के समर्थन से सरकार बना ली थी। वे करीब साढ़े चार महीने मुख्यमंत्री रहे। 13 जुलाई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सरकार की बरख़ास्तगी को असंवैधानिक करार दे दिया जिसके बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।

और फिर 9 अगस्त को भारत छोड़ो दिवस पर उन्होंने दुनिया छोड़ दी। लेकिन ऐसा करने के पहले उन्होंने 60 पन्नों के सुसाइड नोट में भ्रष्टाचार और अपराध में डूबे भारतीय तंत्र का रेशा-रेशा उधेड़ दिया।

क्या आपको यह संयोग लगता है कि मुख्यधारा का कारोबारी मीडिया के लिए यह ख़ुदकुशी और इसमें दर्ज बातें मुद्दा नहीं लगीं ?

क्या आपको यह संयोग लगता है है कि जस्टिस लोया की मौती की जाँच की माँग उसे राजनीतिक लगती है ?

जाँच से अपराधी डरते हैं, मीडिया पहली बार डर रहा है। जैसे पहली बार एक पूर्व मुख्यमंत्री यह कहते हुए मर गया कि भारत के सर्वोच्च अदालत से असंवैधानिक सरकार को संवैधानिक बनवाने की क़ीमत 86 करोड़ है।

न, यह मीडिया विजिल का आरोप नहीं है, न नतीजा। यह उस सुसाइड नोट में लिखा है। जाँच हो तो पता चलेगा कि आरोप कितना सही है। एक आदमी ने जान दे दी है। डाइंग डिक्लेरेशन का कुछ तो महत्व है है।

तो जाँच क्यों नहीं होती श्रीमान। चाहे कोई जज ‘मरे’ या पूर्व मुख्यमंत्री ख़ुदकुशी करे!

कौन रोक रहा है… ?

सोचिए !

 

.बर्बरीक  

 



 

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