अभिषेक श्रीवास्तव / बनारस से
‘’ओकरे आगे नाथ न पीछे पगहा! मरी त देह में ढोला पड़ी’’- ललिता घाट के ऊपर बची-खुची इंसानी बस्ती में मलबे के ढेर के आगे खड़ी विमला देवी (बदला हुआ नाम) के मुंह से निकला हुआ यह वाक्य हिंदी भाषा के विकास में बरदाश्त करने की अंतिम क्षमता और कोसने की आखिरी कोशिश के रूप में हमारे सामने आता है। इसके बाद सारा विमर्श नियतिवाद की भेंट चढ जाने को अभिशप्त है- ‘’देखा, महादेव जहां ले जइहन चल जाइब।‘’
यह संवाद आज सुबह नौ बजे का है। यह संवाद उन गलियों से निकला है जहां इस वक्त तक खुली धूप झांका करती थी लेकिन आज मंज़र कुछ यों है गोया बीती रात भूकंप आया रहा हो। कल बनारस में प्रधानमंत्री मोदी आ रहे हैं। जिन्हें पता है उनके आने का, वे या तो गाली दे रहे हैं या किसी अदृश्य लाभ की आस में टकटकी लगाए बैठे हैं। जिन्हें नहीं पता, वे बिना नाम लिए दूसरों से लगातार पूछ रहे हैं- ‘’कब आवत हउवन?’’ इस जिज्ञासा में कुछ ऐसा भाव है गोया कहीं कुछ और अनिष्ट न होने पाए। मुझे बनारस आए तीन दिन हुए हैं और कोई दर्जन भर लोग मुझसे उनके आने की तारीख पूछ चुके हैं। यह जानकर वे क्या करेंगे, समझ नहीं आता लेकिन इस बहाने जो बात निकल पड़ती है, असल चीज़ वह है।
कल सुबह शहर में एक साथ कई लोगों से बिना संदर्भ के सुनने को मिला कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाली एसपीजी यहां आ चुकी है। उसके बाद चौक के आसपास हलचल बढ़ी। एक विशाल स्वागत द्वार ज्ञानवापी मस्जिद के ठीक पीछे मेन रोड पर तैयार करवाया गया है जहां भारी सुरक्षा में जेसीबी मशीनें और अन्य उपकरण सीमेंट, गिट्टी और गारे से ज़मीन समतल कर रहे हैं। जिन बनारसियों ने सघन बसावट के चलते जिंदगी में कभी ज्ञानवापी को आंख भर नहीं देखा, उनकी नज़रों को अब राह से गुज़रते हुए भी पूरी की पूरी मस्जिद अपने आप बरामद हो जा रही है। इन राहगीरों में कम ही ऐसे हैं जिन्हें इस बात का अंदाजा हो कि सदियों से चले आ रहे विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के सघन युग्म को बेपर्द करने की कीमत क्या है। यह जानने के लिए उन्हें गलियों में घुसना होगा और वहां जाना होगा जहां से मंदिर और मस्जिद का परिसर पूरी तरह उघड़ कर खुले में दिख रहा है।
बीते अगस्त में मैं बनारस आया था। उस वक्त मंदिर के ठीक सामने 70 फुट गहरा गड्ढा था। लोग देख न पाएं इसलिए लोहे की चादर तान दी गई थी। त्रिसंध्येश्वर गणेश के ठीक सामने मुन्ना मारवाडी की दुकान पर बैठक हुई। वहां उनसे पहली बार समझ आया कि यहां क्या हो रहा है। सरस्वती फाटक पर एक दुकान में मंदिर के महंत रहे राकेशजी से मुलाकात हुई। उस वक्त जो समझाया जा रहा था उस पर पूरा यकीन नहीं हो पा रहा था क्योंकि काशी विश्वनाथ मंदिर से गंगा के बीच का आधा किलोमीटर का क्षेत्र समतल करना कोई मज़ाक की बात नहीं थी। आज सुबह इस मज़ाक को हमने नंगी आंखों से देखा। मणिकर्णिका से ऊपर चढकर टूटे हुए मकानों से होते हुए जब हम विमला देवी के घर के पास पहुंचे, तो वहां से ऊपर का नज़ारा भयावह था।
‘’जाइए जाइए, और ऊपर जाइए, तब दिखाई देगा। पूरा इलाका मैदान बन चुका है। मस्जिद एकदम सामने दिखाई दे रही है‘’- पंप स्टेशन के सामने बैठे एक युवक ने मलबे की ओर इशारा किया। बचे हु दो संस्थानों गोयनका संस्कृत विद्यालय और विश्वनाथ लाइब्रेरी के आगे मलबे पर ऊपर चढते हुए भुज के भूकंप की याद हो आई। दाहिने हाथ पर मलबे के बीच संकटमोचन और शिव मंदिर साबुत बरामद हुए। इन दोनों के बाहर प्रशासन ने बोर्ड लगवा दिया है जिस पर लिखा है: ‘’वर्तमान में भवन संख्या … की आवासीय/व्यावसायिक संरचना को हटाने के बाद यह मंदिर आपके सुलभ दर्शन के लिए उपलब्ध् है।‘’ ये वही मंदिर हैं जो किसी आवासीय परिसर का हिस्सा थे और ध्वस्तीकरण की प्रक्रिया में जिन्हें बख्श दिया गया है। जिनके साथ भी ऐसा किया गया है, उनके बाहर ऐसे ही पीले रंग के डिसप्ले बोर्ड लगे हैं।
मलबा पार के हम ऊपर पहुंचे तो सहज विश्वास नहीं हुआ। सिर के ऊपर खुला आसमान था। सामने विशाल मैदान। मैदान के पीछे विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी एकदम खुले में। दाहिने हाथ पर त्रिसंध्येश्वर गणेश। बाकी सब सपाट। मैं पिछली बार जहां बैठा था, जिस गली से निकला था, जो देखा था, सब कुछ गायब। मकान तोड़ना एक बात है। नक्शा बदलना दूसरी बात। यह परिकल्पना से परे था कि गलियां गायब, गलियों की पहचान भवन गायब, दुकान गायब, चारों दिशाएं ही गायब कर दी जाएं छह महीने के वक्फ़े में। सदियों पुराने मलबे पर बने उस दिशाहीन मैदान में तबाही के मंज़रों को ढंकने के लिए सफेद चादर लगाए जा रहे थे। प्रधानमंत्री के स्वागत में एक बैनर टंगना था जिस पर काम चल रहा था। पुलिसवालों के साथ कुछ ईवेंट मैनेजर और बाउंसर किस्म के लोग चीजों को मैनेज कर रहे थे। मंदिर परिसर के ठीक सामने प्रधानमंत्री के लिए मंच खड़ा किया जा रहा था। इसी मंच से खड़े होकर वे कल सीधे गंगा दर्शन करेंगे और काशी विश्वनाथ कॉरीडोर नाम से एक सभ्यता के अंत का उद्घाटन करेंगे।
मुन्ना मारवाड़ी की तीनों दिशाएं बिक चुकी थीं, वे अकेले पड़ गए तो जो मिला लेकर मंड़ुआडीह चले गए। मंदिर के महंत रहे राकेशजी और खन्नाजी का मकान अब भी बचा है और मुकदमा जारी है। इन लोगों का जिक्र इसलिए क्योंकि धरोहर बचाओ के संघर्ष में ये सभी अग्रणी थे। बाकी अधिकतर मकानों में जो लोग रहते थे, वे सहर्ष मुआवजा लेकर निकल लिए। नीचे केवल वही बचे हैं जो घाटिया हैं। घाटिया यानी घाट के मूल निवासी। जिनकी पीढि़यां घाटों पर रहते आई हैं। जिन्हें नहीं पता कि यहां से जाना और कहां जाना होता है।
प्रकाश हमारे आने से नाराज़ था। कह रहा था कि उसकी अच्छी-खासी सुबह हुई थी, हम लोगों ने इस मुद्दे को छेड़कर सुबह बरबाद कर दी। वह बुरी तरह भड़का हुआ था। उसका कहना था कि अभी तो यह परियोजना का पहला चरण है, ‘’अभी तो वे बैठे हैं, तब ये हालत है। ठीक से बैठे भी नहीं टेढे हैं। इसके बाद सुस्ताएंगे। फिर धीरे-धीरे कर के लेट जाएंगे।‘’ उसने बताया कि कॉरीडोर प्रोजेक्ट अस्सी से लेकर वरुणा नदी के बीच फैला हुआ है और यह इसका पहला चरण है। मुन्नाजी भी यही कह रहे थे। उन्होंने कुल 25 चरण बताए थे। विडंबना यह है कि जिन लोगों पर इस परियोजना का सीधा असर नहीं पड़ा है वे मानकर चल रहे हैं कि विस्थापित लोगों को भारी मुआवजा मिला है। विमला देवी कहती हैं, ‘’हमार चार परिवार है। हर परिवार के छह-छह लाख मिलल हव। बतावा एतने में का आई।‘’ बनारस में मोदी के सांसद चुने जाने और प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही रियल एस्टेट के दाम आसमान पर हैं। आपकी जेब में बीस लाख नकद भी हो तो शहर की चौहद्दी में रहने लायक एक घर नहीं मिलने वाला।
इस परिदृश्य की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार ने लोगों के पास कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा है, लिहाजा विरोध की निरर्थकता का बोध सबके मन में है, चाहे वह पीडि़त हो या नहीं। विश्वनाथ मंदिर से मीर घाट जाने वाली गली में एक कपडा विक्रेता परियोजना पर खुशी जताते हुए कहते हैं कि मोदी को दोबारा लाना है। यह पूछे जाने पर कि अगले चरण में कहीं उनकी दुकान भी जद में आ जाए तो क्या करेंगे, वे मुस्कराते हुए कहते हैं कि महादेव जहां ले जाएंगे चले जाएंगे। इसी तरह और निवासियों ने भी मन बना लिया है। वे आसन्न खतरे को सूंघ चुके हैं और शहर को मन ही मन मोदी को सौंप चुके हैं। भाजपा के समर्थक और शहर के कारोबारी वीरू विश्वनाथ मंदिर का अपना तजुर्बा सुनाते हुए संकट की अलग ही व्याख्या करते हैं। वे बताते हैं कि पिछली बार वे कुछ महीने सपरिवार मंदिर दर्शन करने आए थे। जिस तरीके से पुलिसवालों ने बरताव किया, फूल माला और प्रसाद बेचने वालों ने जबरदस्ती की और दर्शन के नाम पर गरदन पर हाथ रखकर निपटा दिया गया, उनका मन खिन्न हो गया। वे कहते हैं, ‘’हम महादेव से माफी मांग ले ली कि अगली बार न आइब। जब महादेव खुद बिजनेसमैन हो गए तो हम क्या करेंगे यहां आकर।‘’
उनकी बात में दम है। चौक पर विशेष दर्शन के लिए बुकिंग कराने का एक अत्याधुनिक सुविधा केंद्र खुल गया है। टिकट बिक रहे हैं। जिसके पास पैसा उसके महादेव। व्यस्त दिनों में तीन सौ का टिकट अठारह सौ में बिकता है। फुटकर फूल माला और प्रसाद बेचने वालों का काम मंदिर के ट्रस्ट ने हड़प लिया है। जिन पंडों और गाइडों को अपना रोजगार चलाना है, उन्होंने बनारस के बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों के लिए इस तबाही से नया नैरेटिव निकाल लिया है। एक गाइड हमारे सामने एक सम्भ्रांत महिला को बता रहा था कि ध्वस्तीकरण के बाद जो मैदान बना है, उसमें एक ओर आरती होगी और दूसरी तरफ नमाज़। हिंदू-मुस्लिम साथ बैठ कर प्रार्थना करेंगे। इस पर चौंकते हुए सैलानी महिला पूछती है- ‘’यु मीन गंगा-जमुनी कल्चर?” गाइठ सिर हिला देता है।
पिछले साल इस परियोजना की तह में एक प्रच्छन्न नैरेटिव यह था कि कॉरीडोर दरअसल बहाना है, असल उद्देश्य मस्जिद को ढहाना है। कई जगह प्रमुखता से ऐसी बात आई थी। आज भी लोगों के मन में यह बात है लेकिन छह महीने में बदले हुए मंज़र को देखकर लोग इतना हदस गए हैं कि कुछ बोल नहीं रहे। प्रकाश सुबह-सुबह इस मुद्दे के छेड़े जाने से चिढ़कर लगातार गाली बक रहा था। जब उसे पूछा गया कि कहीं मस्जिद को तो कोई खतरा नहीं, तब उसने उसी लय में खुलकर कहा- ‘’अगर मस्जिद गिरावे के प्लान हव तब ठीक हव। हम खुद आपन मकान सरकार के दे देब। मस्जिद का मामला त असली हव न।‘’
ऐसी बातें पिछले साल भी सुनने में आई थीं। इलाके में मुस्लिम आबादी नहीं होने के चलते किसी किस्म का प्रतिरोध नहीं है। जब इतना कुछ ढह ही गया, सैकड़ों मंदिर काल कवलित हो गए, तो एक मस्जिद का क्या ही है। आज की तारीख में, जब मोदी खुद कॉरीडोर का उद्घाटन करने जा रहे हैं, सवाल मस्जिद से कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है। सवाल यह है कि आधा किलोमीटर लंबाई और करीब एक मैदान जितनी चौड़ाई का जो प्रयोग एक पॉकेट में किया गया है, उसके पचीस चरण के बाद बनारस कैसा दिखेगा?
अभी जो स्थिति है उसके मुताबिक चौक पर स्थित शापूरी मॉल को सरकार ने कब्जे में ले लिया है। ऐसे ही कई और भवनों के साथ किया जा रहा है। हर सोमवार से लेकर शिवरात्रि और सावन जैसे वक्त में भक्तों की कतारें लगाने के लिए बनाए गए बांस के बैरीकेडों के कारण मैदागिन से गोदौलिया के बीच का कारोबार वैसे ही ठप रहता है। यहां के दुकानदारों को अगर सही मुआवजा मिले तो किसी को यहां से जाने में दिक्कत नहीं होगी, ऐसा वे खुद कहते हैं। इस स्थिति में अस्सी से लेकर पंचगंगा के बीच मोटे तौर पर पक्कामहाल कहा जाने वाला बनारस अगर पचीस चरणों वाली परियोजना का हिस्सा हुआ, तो बनारस में बचेगा क्या? प्राकृतिक रूप से चंद्राकार घाटों और उनके किनारे बसी एक सभ्यता को साबरमती के रिवरफ्रंट की तर्ज पर विकसित करना प्रकृति को तबाह करने का पर्याय होगा। आखिर इसकी ज़रूरत क्या है?
‘’गोधरा के बाद यहां सतुआ बाबा के आश्रम में आ के मोदी रहत रहलन। जो शहर उनके सहारा देहलस, ओही के बरबाद करल चाहत हउवन। उनके बस देखावे के हव कि हम भी कुछ हूं। वो प्रूव करना चाहता है। बताना चाहता है कि देखो मैं ऐसा कर सकता हूं। ताकि लोग याद रखें। हम्मे मिल जाई तो दउड़ा के चप्पले चप्पल मारब’’- इस उद्धरण के अलग-अलग संस्करण अलग-अलग कारणों से बनारस में आज की तारीख में आप सुन सकते हैं। विमला कहती हैं, ‘’महादेव सब देखत हउवन। जब ऊ खुद चुप बइठल हउवन त हम का करी। लेकिन ई हव कि एके सराप जरूर लगी उनकर।‘’
शापने, कोसने, सराहने और निबाहने की मजबूरियों के बीच मंच सज चुका है। आज से 27 साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने किन्हीं संदर्भों में ज़मीन समतल करने की बात कही थी। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी के सामने वाली ज़मीन समतल हो चुकी है। पीपल के झरोखे से गंगा की लहरें सीधे दिख रही हैं। नीचे कुछ मलबा बचा है, जिसकी वीडियोग्राफी करवायी जा रही है। योगीजी को इसकी रिपोर्ट दी जानी है। दो दिन पहले वे खुद यहां आए थे। एक दुकानदार ने यह जानकारी देते हुए बताया कि जहां मोटरसाइकिल नहीं पहुंच पाती थी वहां योगीजी गाड़ी लेकर चले गए, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। चौरस मैदान पर खड़े होकर एक पुलिसवाला कहता है कि अब तो यहां एक ट्रक भी आ सकती है। कहने का मतलब यह है कि सदियों से ठहरे हुए बनारस में जो आज तक नहीं हुआ, अब वह सब कुछ मुमकिन हो रहा है। मुमकिन के इस पार और उस पार दो दुनिया है। एक दुनिया उनकी है जो समझते हैं कि मुमकिन का दायरा कितना बड़ा हो सकता है। दूसरी उनकी, जो मुमकिन को अपनी रोजी-रोटी और लाभ-लोभ से आगे बढ़कर नहीं देख पाते।
दोनों तरह के लोगों के लिए संदेश स्पष्ट है। ‘’जिन्हें यात्रा करनी है केवल वे ही गाडी में चढ़ें। छोडने आने वाले, विदा करने आने वाले, परिजन, रिश्तेदार, सहयोगी गा्ड़ी में न चढ़ें। जुर्माना लगेगा। दरवाजे में ऑटोमैटिक लॉक है। फंस गए तो उतर नहीं पाएंगे।‘’ अगर आप बनारस से इतर किसी और दुनिया के रहने वाले हैं और आपको कोई भ्रम हो तो दिल्ली और बनारस के बीच की दूरी को आठ घंटे में पाट देने वाली वंदे भारत ट्रेन की एक बार यात्रा कर लें। मगज के जाले साफ हो जाएंगे। पाला चुनने में आसानी रहेगी। बनारसियों को अब कोई भ्रम नहीं है। वे समझ चुके हैं कि विकास के ऑटोमैटिक लॉक में फंसने से बेहतर है कि पैसे चुका कर गाड़ी में चुपचाप चढ़ लिया जाए।
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