जिन भाषणों से दूसरों को हराया, उसी से हार रहे हैं मोदी !

रवीश कुमार

2014 में प्रधानमंत्री मोदी के जा भाषण उनके विजय रथ का सारथी बना वही भाषण 2017 तक आते-आते उनका विरोधी हो गया है। अपने भाषणों से मात देने वाले प्रधानमंत्री अपने ही भाषणों में मात खा रहे हैं। कम बोलना अगर समस्या है तो बहुत ज़्यादा बोलना भी समस्या है। बोलना सबको अच्छा लगता है लेकिन कुछ भी बोल देना किसी को अच्छा नहीं लगता है। प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में कुछ भी बोलने लगे हैं। तीन साल पहले की बात है, प्रधानमंत्री के भाषणों के आगे कांग्रेस को बोलने का मौक़ा नहीं मिल पाता था, आज उन्हीं भाषणों ने कांग्रेस को बोलने का मौक़ा दे दिया है। राहुल गांधी ने कहा है कि बोलते बोलते प्रधानमंत्री के पास कुछ बचा नहीं है। सच्चाई ने उन्हें घेर लिया है इसलिए नरेंद्र मोदी जी अब नरेंद्र मोदी जी पर ही भाषण दे रहे हैं। किसने सोचा था कि मोदी का यह मज़बूत हथियार उन्हीं के ख़िलाफ़ इस्तमाल होने लगेगा।

2014 का साल अलग था। मनमोहन सिंह आकर्षक वक्ता नहीं थे और न ही आक्रामक। 2009 में मनमोहन सिंह के सामने भाजपा का कमज़ोर प्रधानमंत्री का नारा नहीं चला था, 2014 में मनमोहन सिंह के सामने भाजपा का मज़बूत प्रधानमंत्री का नारा चल गया। चला ही नहीं, आंधी-तूफ़ान में बदल गया। 2009 में मनमोहन सिंह के कमज़ोर प्रधानमंत्री के सामने ख़ुद को महामज़बूत होने का दावा करने वाले आडवाणी 2014 के बाद मनमोहन सिंह से भी कमज़ोर साबित हुए। आडवाणी की चुप्पी इस तरह की हो चुकी है जैसे उन्होंने कभी माइक और लाउडस्पीकर भी नहीं देखा हो। वक्त का पहिया कैसे घूमता है। नोटबंदी पर मनमोहन सिंह का बयान मोदी सरकार पर जा चिपका। वही मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि ग़रीब तो मैं भी था मगर मैं नहीं चाहता कि देश मुझ पर तरस खाए।

प्रधानमंत्री मोदी लगातार अपनी पृष्ठभूमि को उभारते रहते हैं। ग़रीब का बेटा, चाय वाले का बेटा। बहुत आसानी से 12 साल तक देश के अमीर राज्यों में से एक गुजरात के मुख्यमंत्री होने के तमाम अनुभवों को खारिज कर देते हैं। ग़रीब का बेटा कहने के लिए जिस राजनीति का वह नेतृत्व कर रहे हैं उसमें कितना धन है, वैभव है, पैसे का प्रदर्शन है, सब जानते हैं। करोड़ों रुपये ख़र्च कर सभाओं की तैयारी होती है जहां जाकर प्रधानमंत्री ख़ुद को ग़रीब का बेटा बताते हैं। दुनिया के इतिहास का यह सबसे महंगा ग़रीबी का सर्टिफिकेट है।

फिर भी किसने सोचा था कि उनकी इस ग़रीबी का जवाब मनमोहन सिंह से आएगा जो ख़ुद भी बेहद ग़रीब परिवार के थे मगर अपनी प्रतिभा के दम पर दुनिया के बड़े विश्वविद्यालयों तक पहुंचे और प्रधानमंत्री भी हुए। मनमोहन सिंह अपनी पृष्ठभूमि पर बात नहीं करना चाहते, प्रधानमंत्री मोदी इसके बिना कोई भाषण ही नहीं देते हैं।

2014 के लोक सभा चुनाव में मोदी की जीत सिर्फ भाषण के कारण नहीं थी। भाषण भी बड़ा कारण था। लोगों को लगा कि कोई बोलने वाला नेता भी होना चाहिए, मोदी ने लोगों ने यह इच्छा पूरी कर दी। मगर प्रधानमंत्री कभी नहीं समझ पाए कि अच्छे वक्ता की चाह रखने वाले लोग अच्छे भाषण की भी चाह रखते होंगे। प्रधानमंत्री मोदी लगातार इस कसौटी पर फेल होते चले जा रहे हैं। कभी ख़ुद को नसीब वाला कहा तो कभी किसी का डीएनए ही ख़राब बता दिया। दिल्ली से लेकर बिहार तक में देखा था कि लोग कैसे एक अच्छे वक्ता के ख़राब भाषण से चिंतित थे। प्रधानमंत्री मोदी वक्ता बहुत अच्छे हैं मगर भाषण बहुत ख़राब देते हैं।

एक कद्दावर नेता के लिए चुनावी जीत ही सब नहीं होता है। आख़िर वे इतनी जीत का करेंगे क्या? एक दिन यही जीत उनके भाषणों पर मलबे की तरह पड़ी नज़र आएगी। लोगों का जीवन चुनावी जीत से नहीं बदलता है। अगर बदल पाए होते तो गुजरात में 22 साल का हिसाब दे रहे होते। बता रहे होते कि मैंने 50 लाख घर बनाने का दावा किया था, यह रही चाबी, सबको दे दिया है। बता रहे होते कि कैसे शिवराज सिंह चौहान से लेकर रमन सिंह की सरकारों ने शिक्षा और अस्पताल के अनुभव बदल दिए हैं। रोज़गार के मायने बदल दिए। किसी और न भी नहीं किए होंगे मगर क्या अब आप यह भी कह रहे हैं कि मैंने भी नहीं किए और मैं करूंगा भी नहीं। आप ही नहीं किसी भी दल के पास जीवन बदलने का आइडिया नहीं है। यह संकट आपके पास ज़्यादा है क्योंकि आप सबसे अधिक दावा करते हैं।

प्रधानमंत्री के भाषण में कुछ जवाब होने चाहिए जो नहीं होते हैं। वे बहुत आसानी से कह देते हैं कि कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण के नाम पर मुसलमानों को ठगा है। ख़ुद नहीं बताते कि वे और उनकी पार्टी मुस्लिम आरक्षण का नाम सुनते ही किस तरह हंगामा कर देते हैं। विरोध करते हैं। कांग्रेस पर उनका हमला सही भी है मगर अपनी बात वो ग़ायब कर देते हैं। वे यह बात शायद मुसलमानों को बता रहे थे कि कांग्रेस ने उन्हें ठगा है। यूपी, हरियाणा और राजस्थान के जाट भी उनसे यही पूछ रहे हैं कि जाट आरक्षण पर हमसे किया गया वादा क्या हुआ। क्या भाजपा ने वैसे ही जाटों को ठगा है जैसे कांग्रेस ने मुसलमानों को ठगा है। महीने भर से गुजराती में भाषण दे रहे प्रधानमंत्री को अपने बोलने पर बहुत यकीन हो चुका है कि वे कुछ भी बोल देंगे, लोगों को सुनना पड़ेगा। इस तरह का गुमान के सी बोकाडिया और राज सिप्पी को होता था कि कोई सी भी पिक्चर बना देंगे, हिट हो जाएगी।

प्रधानमंत्री विपक्ष के गंभीर सवालों का जवाब कभी नहीं देते हैं। बेतुकी बातों को लेकर बवाल मचा देते हैं। सारे मंत्री जुट जाते हैं, आई टी सेल जुट जाता है और गोदी मीडिया के एंकर हफ्तों के लिए एंजेंडा सेट कर देते हैं। आज न कल प्रधानमंत्री मोदी को इस गोदी मीडिया से छुटकारा पाना ही होगा। कई बार वो अपनी ग़लतियों को तुरंत सुधार लेते हैं, गुजरात चुनावों के कारण उन्हें जीएसटी की हकीकत दिख गई, सुधार किया, उसी तरह किसी चुनावी मजबूरी के कारण ही प्रधानमंत्री को अपनी गोद से इस मीडिया को उठाकर फेंकना होगा। ऐसा होकर रहेगा वरना यह मीडिया एक दिन उनके भाषणों की तरह उन्हीं को निगलने लगेगा। कोई भी सक्रिय समाज मीडिया को सरकार की गोद में लंबे समय तक देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता है। वह समाज उसे ही सहन नहीं करेगा जिसकी गोद में मीडिया तरह तरह के दबावों से बिठाया जाता है।

प्रधानमंत्री ने ख़ुद भी किस तरह की राजनीतिक भाषा का इस्तमाल किया है। उनके नेतृत्व में तीन साल से किस भाषा का इस्तमाल हो रहा है, वे चाहें तो किसी भी भाषाविद से अध्ययन करा सकते हैं। आई टी सेल और ट्रोल संस्कृति के ज़रिए जो हमले होते रहे, झूठ का प्रसार होता रहा, ये सब जानना हो तो उन्हें ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत नहीं है। बस ऑल्ट न्यूज़ की वेबसाइट पर जाना है, काफी कुछ मिल जाएगा। उनके कार्यकाल का मूल्याकंन क्या सिर्फ चुनावी जीत से होगा या राजनीतिक संस्कृति से भी होगा।

इसी 15 अगस्त को प्रधानमंत्री ने कहा कि सांप्रदायिकता को मिटाना है लेकिन उनके भाषणों में मुग़ल, औरंगज़ेब या उनके प्रवक्ताओं की ज़ुबान पर खिलजी का ज़िक्र किस संदर्भ में आता है? सांप्रदायिकता की बुनियादी समझ रखने वाला भी इसका जवाब दे सकता है। वे बेहद चालाकी से सांप्रदायिक सोच को समर्थन देते हैं और सुविधा से ऐसी सोच का अपने हक़ में इस्तमाल करते हैं। क़ब्रिस्तान हो या औरंगज़ेब हो यह सारे उनकी शानदार जीत के पीछे मलबे के ढेर की तरह जमा है। वे चाहें तो टीवी खोल कर अपने प्रवक्ताओं की भाषा का भी अध्ययन कर सकते हैं।

विरोधी दलों ने वाक़ई उनके ख़िलाफ़ कई बार ख़राब भाषा का इस्तमाल किया है मगर क्या वे हर बार इसी से छूट लेते रहेंगे कि उन्हें ऐसा बोला गया है, क्या वे कभी इसका जवाब नहीं देंगे कि वे भी इसी तरह से बोलते रहें हैं? चुनावों के समय विरोधियों की सीडी बनवाना, स्टिंग करवाना यह सब आपके खिलाफ भी हुआ और आप भी दूसरों के खिलाफ खुलकर किए जा रहे हैं। कहीं कोई फुलस्टाप नहीं है। इसीलिए अब आप अलग से दिखने वाले नरेंद्र मोदी नहीं हैं। अब आप पहले से चली आ रही ख़राब राजनीतिक संस्कृति को आगे बढ़ाते रहने वाले नरेंद्र मोदी हैं। आप नरेंद्र मोदी को गाली दिए जाने को लेकर मुद्दा बनाने लगते हैं, मगर आपने या आपकी टीम ने नेहरू के साथ क्या किया है? क्या यह भी बताने की ज़रूरत होगी?

आपकी विश्वसनीयता या लोकप्रियता चाहे जितनी हो, आपके लोगों को भी पता है चुनाव आयोग से लेकर तमाम संस्थाओं की विश्वसनीयता बढ़ी नहीं है बल्कि पहले जैसी है या उससे भी घट गई है। सिर्फ आप ही नहीं, किसी भी राज्य में किसी भी नेता के सामने यही संकट है। संस्थाओं की विश्वसनीयता गिराते रहने से कोई नेता अपनी विश्वसनीयता के शिखर पर अनंत काल तक नहीं रह सकता है।

न्यूज़ 18 के चौपाल कार्यक्रम में संबित पात्रा कन्हैया से कह रहे थे कि आप वंदेमातरम नहीं बोलते हैं, कन्यैहा वंदेमातरम भी बोलते हैं, भारत की माता की जय भी बोलते हैं, फिर संबित से पूछते हैं कि अब आप बताओ गांधी को पूजते हैं या गोड्से को। संबित इस सवाल का जवाब नहीं नहीं देते हैं, कन्हैया लेनिन ज़िंदाबाद, स्टालिन मुर्दाबाद बोल रहे हैं, संबित जवाब नहीं देते हैं कि गांधी की पूजा करते हैं या गोड्स की पूजा करते हैं। अंत में बात इस पर ख़त्म होती है कि मोदी इस देश के बाप हैं।

मैं सन्न रह गया जब पात्रा ने कहा कि मोदी इस देश के बाप हैं। संबित को किसने कहा कि आप इस देश के बाप हैं। मुमकिन है आप भारत का कोई भी चुनाव नहीं हारें, लेकिन उन तमाम जीत से पहले और जीत के सामने मैं यह कहना चाहता हूं कि जनता इस देश की बाप है। आप इस देश के बाप नहीं है। इतनी सी बात संबित पात्रा को मालूम होनी चाहिए। इस देश में दरोगा, जांच एजेंसी के दम पर कोई भी कुछ करवा सकता है, यह पहले भी था और आपके राज में भी है, थाना पुलिस के दम पर दम भरना या भीड़ के दम पर दम भरना बहुत आसान है। इसे हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं है।

मोहल्ले का दादा और देश का बाप ये सब क्या है। आपने 2014 में कहा था कि आप भारत के प्रधान सेवक हैं, तीन साल बाद 2017 में संबित पात्रा कह रहे हैं कि आप इस देश के बाप हैं। मजबूरी में कोई किसी को बाप बना लेता है, यह मुहावरा सबने सुना है। क्या संबित आपको मज़बूत नेता से मजबूरी का नेता बना रहे हैं? विरोधियों को कोई क्लिन चिट नहीं दे रहा है, मगर प्रधानमंत्री को सत्ता में बिठाने में लोगों ने क्या कोई कमी की है जिसका बदला ऐसी ख़राब राजनीतिक संस्कृति के ज़रिए लिया जा रहा है। प्रधानमंत्री चाहें तो अपने इन प्रवक्ताओं को कुछ दिन टीवी से दूर रखें, ये तो नेता हैं नहीं, जो नेता हैं, उन्हीं का प्रभाव कमज़ोर कर रहे हैं।

यह आपका प्रभाव ही है कि नतीजा आने से पहले कोई नहीं लिखता है कि आप हार सकते हैं। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हार हुई तो वही संपादक और एंकर वही लिखेंगे जो मैं नतीजा आने से पहले लिख रहा हूं। आप भले चाहें जितना चुनाव जीतें, लेकिन आप भी आसानी से देख सकते हैं कि आप अपने भाषणों में किस तरह हर दिन हार रहे हैं।

मशहूर टी.वी पत्रकार रवीश कुमार का यह लेख उनके ब्लॉग कस्बा से साभार प्रकाशित

 



 

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