व्यालोक
अब चूंकि छठ बीत चुका है, धूल बैठ चुकी है, तो लगता है कि इस पर कुछ बात संभव हो सकती है। छठ के दौरान या पहले के कुछ दिनों में जिस कदर गदर मचा, उसमें कुल मिलाकर दो-तीन बातें समझ आयीं। जाहिर तौर पर बात छठ को लेकर सोशल मीडिया पर मचे विवाद पर ही होगी, जिसकी शुरुआत हिंदी की वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की सिंदूर से जुड़ी एक फेसबुक पोस्ट से हुई थी। पूरे प्रकरण को अगर आज के समय में थोड़ी दूरी से देखें तो एक बात बिल्कुल सीधे तौर पर समझ आती है— सोशल मीडिया का इसे कुप्रभाव कहें या सार्थकता, कि हिंदुओं के अधिकांश पर्व-त्योहारों के समय इस तरह की रस्साकशी शुरू हो जाती है (हिंदू, सनातनी, वैदिक, ब्राह्रण- आदि नामों के बहाने धर्म पर बहस का एक अलग मसला तो है ही, उस पर कहीं और बात होगी)। हमें तो यह भी लगता है कि जब से एक दक्षिणपंथी पार्टी (क्या सचमुच?) पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में आयी है और एक हार्डलाइनर प्रधानमंत्री (अहा, क्या वाकई?) भारत का इस्तकबाल निर्धारित कर रहा है, यह बहसें और भी तेज़, और भी गरम हो गयी हैं। वरना सोशल मीडिया तो तीन साल के पहले भी था।
बात दरअसल यह है कि दुनिया को एक रंग में रंगने की ज़िद हमारा सबसे अधिक नुकसान कर रही है। हिंदू या सनातन धर्म जिसे हम कहते हैं, उसमें कुछ भी एकरेखीय नहीं है। वैसे, इतिहास भी कभी एकरेखीय नहीं होता। मेरे परिवार में शैव, वैष्णव से लेकर 33 कोटि देवताओं को पूजनेवाली मां तक मौजूद है। इसी परिवार में मेरे ब्रह्मवादी होने की भी रियायत है। छठ से जुड़ी सात पौराणिक कथाएं मौजूद हैं। आप उनमें से किसी एक को भी कैसे अंतिम मान लेंगे? उसी तरह सिंदूर लगाना या न लगाना, नाक से लगाना या माथे पर लगाना, यह धर्म और कर्मकांड का मसला है। इसे विवादित करने से क्या हासिल होगा? क्या छठ जैसे लेाकपर्व में नामक तक सिंदूर ‘पोतने’ (बकौल मैत्रेयीजी) से अहम कुछ और सवाल नहीं हैं?
एक वेबसाइट ने नोएडा में गंदे पानी में छठ-व्रतियों के खड़े होने के बहाने इस व्रत को विवादों में लाने की कोशिश की, तो इसके उलट कुछ बिहारी इसे पुनरुत्थान और अस्मिता से जोड़ रहे थे। जो भी अभागे बिहारी गाजियाबाद, वजीराबाद, मुंबई या दिल्ली के नालों-पोखरों-समदर के तटों पर अर्घ्य देती तस्वीरों को बिहारी अस्मिता का प्रतीक बता रहे हैं, उनसे बड़े अभागे शायद ही कोई होंगे। मजाक में कही बात को सच मान लें, तो आज बिहार का सबसे बड़ा शहर पटना नहीं, दिल्ली है। सरकारी आंकड़े कुछ भी हों, लेकिन कम से कम तीन-चार करोड़ बिहारी अपने राज्य से बाहर जाने और रहने को मजबूर हैं।
गाजियाबाद के शिप्रा-रिविएरा या बेंगलुरू के शेंकी टैंक अपार्टमेंट से लेकर अमेरिकी राज्यों तक में छठ की तस्वीरें मेरे पास आयीं। ऐसी तस्वीरें किसी के लिए गर्व का बायस हो सकती हैं, लेकिन मेरे लिए नहीं। यह च्वाइस (पसंद) का मामला नहीं है, कंपल्शन (मजबूरी) का मसला है। मेरा राज्य इतना बीमार है कि उसके चार करोड़ लोग अपने जीवनयापन के लिए बाहर जाने को मजबूर हैं। मेरी रेल-व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह इन प्रवासियों के लौटने तक का इंतजाम नहीं कर सकती। मेरे देश का आधारभूत ढांचा इतना कमज़ोर है कि वह इन बिहारियों के लिए साफ पानी में खड़े होने का इंतज़ाम तक नहीं कर सकता। क्या नाक तक सिंदूर ‘पोतने’ का सवाल इससे ज्यादा अहम है?
दरअसल, आजकल जिसे पोस्ट-ट्रुथ कहा जा रहा है और जो लोग इस शब्द का राजनीतिक इस्तेमाल अपने हक़ में लगातार कर रहे हैं, अफवाहबाज़ी, दुरंगेपन और तर्कों की कसौटी पर उनकी काट के सारे अस्त्र-शस्त्र दरअसल उनके ही लिए जी का जंजाल हो गए हैं। उनके वैचारिक विरोधियों ने सारे अस्त्रों का इस्तेमाल करना सीख लिया है। अब किसी विचारधारा विशेष के वाहकों के ‘ज्ञान का आतंक’ खत्म हो गया है। सामान्य लोगों ने प्रश्न पूछना शुरू कर दिया है। यह संयोग नहीं है कि जेएनयू के छात्रों के बचाव में पिछले साल कम्युनिस्ट-कांग्रेस गठज़ोड़ के बड़े-बड़े बौद्धिकों और धुरंधरों को मैदान में उतरना पड़ा था।
मैत्रेयी पुष्पा छठ पर प्रहार करती हैं लेकिन वह भूल जाती हैं कि अब सारे बौद्धिक गढ़ और मठ टूट चुके हैं। उनके लेखन का आतंक भी अब नहीं रहा (वैसे तो कभी नहीं रहा), इसीलिए 18 साल के युवक-युवती से लेकर 60 वर्ष तक के उनके हमजोली भी इस मामले में उन पर पिल पड़े। ज्ञान और लेखन के क्षेत्र पर जिनकी परंपरागत बपौती थी, उन्हें सामान्य अनाम चेहरों से चुनौती मिल रही है और यही उनकी बेचैनी का बायस है। कम्युनिस्टों-कांग्रेसियों की यह बेचैनी अतार्किक है। मौजूदा सरकार से उसका कुछ काडर अगर असंतुष्ट है, तो इसलिए कि यह सरकार भी कुछ नहीं कर रही।
छठ के एक दिन बाद जाकर नदियों और पोखरों का नज़ारा कीजिएगा। मैं उस मिथिलांचल का हूं जहां के गर्वीले ब्राह्मण बड़ी ठसक से अपना परिचय देते हैं:
“पग-पग पोखरि माछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान
विद्या-वैभव शांति प्रतीक, ललित नगर दरभंगा थीक…।”
इसी दरभंगा में इन्हीं दरभंगियों ने सैकड़ों तालाबों की हत्या कर दी। मैं खुद अपने मोहल्ले के दो पोखरों की हत्या में शरीक रहा हूं- अपने पैसिवनेस की वजह से। मेरे घर के पास वाला पोखर मर गया है। मेरी दादी ने उसमें छठ किया था। मैंने तैरना उसी में सीखा। पिताजी इस पार से उस पार तक तैरा करते थे। पोखर के साथ एक सुरंग भी थी- सीधा बागमती से जुड़ी हुई। पानी आने-जाने के लिए वही जरिया था, ताकि पोखर स्वच्छ रहे। उसका पानी ठहरा हुआ न रहे। ट्रैक्टर और दैत्याकार जेसीबी की मदद से उस पोखर का आखिरी निशां मिटा दिया गया। मेरे मुहल्ले का हरेक आदमी चुप था। चुप इसलिए, क्योंकि सब उसमें सहभागी हैं। अपने घरों का कूड़ा डालकर सबने उसकी धीमी मौत का सामान तैयार किया है।
मां अपनी तुलसी को पानी देते हुए कोसती है उन लोगों को जिन्होंने छीन लिया उनसे उनका पोखर। कहती हैं, कि विनाश छा गया है सब पर- कहीं पोखर और नदी-नाले भी बेचे जाते हैं? भोली है मां मेरी। उसको कैसे बताऊं कि इस देश में अब नदियां भी बेच दी गयी हैं। यमुना बन गयी है नाला और गंगा का घुट सकता है किसी भी दिन दम। मां को तो लेकिन उसका पोखर ही सदमा दे गया है। इतनी बड़ी सूचनाएं कैसे झेलेंगी वह? पिता से पूछता हूं, तो कहते हैं, “अरे, पूरा शहर ही जब खत्म हो गया, तो फिर क्या कहूं? कुएं में ही भंग पड़ गयी है। देखो न, स्टेशन के पास का हड़ाही पोखर, मारवाड़ी कॉलेज के पास का गंगासागर तालाब और राज के किला के अंदर के अगणित तालाब… सब तो खत्म हो गये। अब यहां अगर मैं इसे रुकवा भी दूं, तो उड़ाही के पैसे कहां लाऊंगा?”
इन हत्याओं में तमाम सफेदपोश शामिल थे- प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉक्टर, बैंकर, सरकारी कर्मचारी। स्टेशन के पास जिस पोखर में इस बार बड़ी श्रद्धा से अर्घ्यदान हुआ, आज जाकर उसकी हालत देखिए। पाखाने का ढेर और बजबजाता कूडा आपका स्वागत करेगा। ऐतिहासिक स्मारकों पर भी भू-माफिया ने कब्जा कर लिया है। यूनिवर्सिटी की वजह से जो इमारतें बची हैं, वे भी दरभंगियों की बेशर्म पीकों से लाल हैं। मैं उस पोखर के पास जाकर पूछना चाहता हूं, ‘क्या कुछ कहना चाहोगे तुम, इस पल, इस मंजर या लिखवाना चाहोगे कोई शोक-पट्ट अपने नाम का?’ उसकी मटमैली, राख सी हो गयी धार मानो समझ लेती है मुझे। कहता है, पोखर उनकी मार्फत मुझसे, ”दूसरों का दोष तो लगा दिया है, कहो, तुमने क्या किया मेरे लिए? चले गये, जो परदेस…तो क्या कभी सुध आयी? कभी सोचा, कि इसे उड़हवा (साफ-सफाई) करवाकर, बनवा दें इसके घाट, ताकि आबाद हो जाय यह भी, बच्चों, स्त्रियों और जवान-बूढ़ों की कलरव से हो जाय यह भी गुंजार?”
क्या कहीं पोखर भी बोलता है? मैंने सुना है उस पोखर को बोलते हुए। उसने देखा मुझे बेधती नज़रों से और कहा कि जाओ, जाकर पता करो, अपने आसपास का सच और फिर बनना मेरे हमदर्द, मेरे अफसानानिगार। जो बिहारी दरभंगा से लेकर दिल्ली तक एकसमान तन्मयता से गंदगी फैलाता-बिखेरता है, उसे इतना तो सुनना ही पड़ेगा। अगर बिहारियों में छठ को लेकर सचमुच कोई आस्था होती, तो बिहार का दरभंगा स्टेशन सबसे गंदा स्टेशन नहीं होता, बिहार एक बजबजाता कूडाघर नहीं होता और बिहार की नदियां व पोखर अकाल मौत नहीं मरते।