आईआईटी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल के लिए दशकों से संघर्ष कर रहे श्यामरुद्र पाठक आजकल खुलेआम नक्सलियों को सलाम पेश कर रहे हैं। उनका मानना है कि नक्सली ग़रीबों की लड़ाई लड़ रहे हैं और भारत की असली दुश्मन भारत की सरकार है। श्याम रुद्र पाठक ना वामपंथी हैं और ना ऐसी कोई उनकी छवि ही रही है। उलटे, उनके आंदोलन और धरने में आरएसएस समर्थकों की भागीदारी दिखती रही है। ऐसे में उनका इस तरह नक्सलियों को सलाम करना चौंकाता है। इससे ज़्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जेएनयू को ‘देशद्रोही’ साबित करने के लिए नकली तस्वीर तक गढ़ने वाला मीडिया हो या फिर वामपंथी छात्रों और शिक्षकों को दिन रात ‘देशद्रोही’ घोषित करने वाले भक्तों की सेना, किसी को भी पाठक जी देशद्रोही नज़र नहीं आ रहे हैं। सोशल मीडिया हो या फिर आग उगलने वाले चैनल और उनके ऐंकर, किसी के लिए भी यह मुद्दा नहीं है।
नीचे 25 अप्रैल से फ़ेसबुक पर लिखी जा रही उनकी टिप्पणियाँ पढ़िये और जानिए कि कैसे एक प्रतिबद्ध व्यक्ति भारत सरकार को क्रूर और अत्याचारी मानने को मजबूर है। उसे लगता है कि नक्सलियों की गोलियाँ, उसके घावों पर मलहम लगाती हैं।
श्यामरुद्र पाठक ने भारतीय भाषाओं को सम्मान देने के मुद्दे को लेकर मार्च 2013 में काँग्रेस मुख्यालय पर सौ दिन से ज़्यादा दिनों तक धरना दिया था। वे रोज़ गिरफ़्तार होते थे और रोज़ छोड़ दिए जाते थे। पंकज श्रीवास्तव ने तब इस मुद्दे पर एक लेख लिखा था जिसके ज़रिये आप उन्हें और उनके मुद्दे को समझ सकते हैं।
सौ दिन से जारी धरने को हजार सलाम…
श्याम रुद्र पाठक को सलाम। जैसा जज्बा वो दिखा रहे हैं, उसे खाए-अघाए लोगों के बीच पागलपन कहने का चलन है। पाठक जी, बीते सौ दिनों से दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय के बाहर धरना दे रहे हैं। रोज सुबह पहुंच जाते हैं। पहले घंटे-दो घंटे में ही गिरफ्तार हो जाते थे, लेकिन उनकी लगन और सच्चाई देखकर पलिस वालों को भी शर्म आने लगी है। लिहाजा कई बार शाम तक बैठने को मिलता है, बशर्ते सोनिया गांधी या राहुल गांधी को वहां न आना हो। उनके आने पर पाठक जी नारे लगाते हैं जिसे रोकने के लिए, पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। जो भी हो, सौ दिन से रात रोज तुगलक रोड थाने में कट रही है। 24 घंटा होने के पहले पुलिस छोड़ देती है, वरना कोर्ट-कचहरी का लफड़ा फंस सकता है। जो तस्वीर मैंने इंटरनेट से हासिल करके यहां पोस्ट की है, उसमे वे कुछ जवान लग रहे हैं। सच्चाई ये है कि इस समय उनके चेहरे पर लंबी खिचड़ी दाढ़ी लहरा रही है।
मेरी नजर में ये मांग भारत मे लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए है, उसे सार्थक बनाने के लिए है। दुनिया का कौन सा देश होग जहां जनता को न्याय जनता की भाषा में नहीं दिया जाता है। न..न..इसे हिंदी थोपने का षड़यंत्र न मानें। श्यामरुद्र जी इसे भारतीय भाषाओं का मोर्चा मानते हैं। यानी मद्रास हाईकोर्ट में तमिल में काम हो और बंबई हाईकोर्ट में मराठी में। इसी तरह यूपी सहित सभी हिंदी प्रदेशों में हिंदी मे हो। सुप्रीम कोर्ट में भी हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को जगह मिले। त्रिभाषा फार्मूले को लागू किय जा सकता है। मैं समझता हूं कि ऐसा जाए तो जिले का वकील भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकेगा और 5-10 लाख रुपये प्रति पेशी वसूलने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकीलों का एकाधिकार खत्म हो जाएगा। धीरे-धीरे ये बात लोगों को समझ में आ रही है। कांग्रेस महासचिव आस्कर फर्नांडिज ने उनके ज्ञापन को गंभीर मानते हुए सितंबर में तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को पत्र लिखा था। ये अलग बात है कि नतीजा ठाक के तीन पात वाला रहा।
बहरहाल, श्यामरुद्र पाठक के दिमाग में भाषा का मसला किसी सनक की तरह नहीं उठा है। उन्होंने 1980 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा में टॉप किया था। फिर, आईआईटी दिल्ली के छात्र हुए लेकिन बी.टेक के आखिरी साल का प्रोजेक्ट हिंदी में लिखने पर अड़ गए। संस्थान ने डिग्री देने से मना कर दिया। श्याम जी भी अड़ गए। मामला संसद में गूंजा तो जाकर कहीं बात बनी। लेकिन इंजीनियर बन चुके श्यामरुद्र पाठक के लिए देश विदेश मे पैसा कमाना नहीं, देश की गाड़ी को भारतीय भाषाओं के इंजन से जोड़ना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बन गया।.. 1985 में उन्होंने भारतीय भाषाओं में आईआईटी की प्रवेश परीक्षा कराने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया। तमाम धरने-प्रदर्शन के बाद 1990 में ये फैसला हो पाया। अब उन्होंने भारतीय अदालतों को भारतीय भाषाओं से समृद्ध करने का बीड़ा उठाया है।…सौ दिन से थाने में रात काटने वाले श्यामरुद्र पाठक जिस सवेरे के लिए लड़ रहे हैं उसका इंतजार 95 फीसदी भारतीयों को शिद्दत से है। समर्थन देना इतिहास की मांग है। देंगे न..?