मशहूर टी.वी. पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने हाल ही में एक वरिष्ठ बीजेपी नेता से मुलाक़ात की। चर्चा के दौरान उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी को लेकर जैसी गंभीर टिप्पणियाँ कीं, वह चौंकाती हैं। पत चलता है कि मोदी युग में पार्टी के अंदर किस तरह की घुटन है। प्रसून ने नेता का नाम तो नहीं लिखा लेकिन उन्होंने माना कि गुजरात में पार्टी की हालत गंभीर है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि बीजेपी अगर गुजरात नहीं जीती तो संविधान को थोड़ा और तोड़-मरोड़ा जाएगा। पढ़िए, इस बातचीत का दूसरा भाग जिसमें उन्होंने कहा कि वाजपेयी पाँच साल और होते तो लोग कांग्रेस को भूल जाते। मोदी के साढ़े तीन साल में लोगों को कांग्रेस की याद सताने लगी है – संपादक
‘हैलो’
‘….जी कहिये..’
‘सर तबियत बिगड़ी हुई है तो आज दफ्तर जाना हुआ नहीं…’
‘तो आ जाइये..साथ चाय पीयेंगे….’
‘सर मुश्किल है। गाड़ी चलाना संभव नही है।’
‘आपने सुना होगा…अभी से पांव के छाले न देखो/ अभी यारो सफर की इब्दिता है।’
‘वाह ’
‘अब ये ना पूछियेगा किसने लिखा। मैं मिजाज की बातकर रहा हूं। आपका गला बैठा हुआ है। मैं गाडी भेजता हूं आप आ जाइये। केसर के साथ गरम मसालो से निर्मित चाय पीजियेगा..ठीक हो जायेंगे। ’ .
…..और शीशे की केतली में गरम पानी …उसमें चाय की पत्ती मिलाने के बाद हवा में यूं ही गरम मसाले की खूशबू फैल गई ।…और एक डिब्बी से केसर के चंद दाने..
‘इसे कुछ देर घुलने दीजिये….क्या हो गया आपकी तबियत को ?’
‘सर्दी-खासी..हल्का सिर दर्द। शायद कुछ बुखार..’
‘आपको बीमारी नहीं बोरियत है। खबरो में कुछ बच नहीं रहा। एक ही तरीके की खबर। एक ही नायक। एक ही खलनायक।’
‘हा हा… नायक भी वहीं खलनायक भी वही ’
‘अब ये आप लोगों को सोचना है। आपका मीडिया तो बंट चुका है। वस्तु एक ही है..कोई इधर खड़ा है कोई उधर खड़ा है । कोई इधर से देख रहा है कोई उधर से।
‘सही कह रहे हैं..’
‘पहली बार मैंने देखा खबर के उपर खबर ’
‘मतलब ?’.
‘जी कारंवा ने जस्टिस लोया पर जो रिपोर्ट छापी। उसी रिपोर्ट को खारिज करते हुये इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट छाप दी। ये तो आप लोगो को समझना चाहिये…..अरे चाय तो कप में डालिये ’
‘वाह क्या शानदार रंग है ’
‘पी कर देखिये.. .तबियत कुछ ठीक होगी.’
‘हा अच्छा लग रहा है । आप क्या कह रहे हैं.. क्यों समझना चाहिये ? ’
‘यही कि पत्रकारिता करनी है या साथ या विरोध करते हुये दिखना है।’
‘ये क्या तर्क हुआ ?
‘न न हालात को समझें….कानून मंत्री कहते हैं चीफ जस्टिस को समझना चाहिये कि पीएम को जनता ने चुना है। और पीएम के निर्णय के विरोध का मतलब पीएम पर भरोसा नहीं करना है। …अब आप ही सोचिये। तब तो कल संपादक या कोई मीडिया हाउस पीएम के खिलाफ कुछ लिख देगा तो कहा जायेगा पीएम पर फला मीडिया को भरोसा ही नहीं है। याद कीजिये कांग्रेस क्या कहती थी। जब घोटाले हो रहे थे। तो सवाल करने पर जवाब मिलता था हमें पांच साल के लिये जनता ने चुना है। यानी पांच साल तक तानाशाही चलेगी …अब शब्द बदल गये हैं। अब कहा जा रहा है कि पीएम पर भरोसा नहीं है। तब तो लोकतंत्र ही गायब हो जायेगा !’
‘यानी चैक एंड बैलेस डगमगा रहा है !’
‘सवाल डगमगाने का नहीं । सवाल लोकतंत्र की परिभाषा ही बदलने का है । ऐसे में तो कल चीफ जस्टिस हो या आपके मीडिया का संपादक, उसके लिये भी देश में चुनाव करा लें। और जब जनता उसे चुन ले तो उसे मान्यता दें।
‘मै भी यही सवाल लगातार उठाता हूं कि देश में इंस्टिट्यूशन खत्म किये जा रहे है ! ’
‘सिर्फ खत्म ही नहीं किये जा रहे हैं, बल्कि राजनीतिक सत्ता को संविधान से ज्यादा ताकतवर बनाने की कोशिश हो रही है !’
‘पर ये हमारे देश में संभव है नहीं …बडा मजबूत लोकतंत्र है। जनता देख समझ लेती है ! ’
‘’आपने फ्रंटलाइन की गुजरात रिपोर्ट देखी ?’
‘नहीं
‘सर उसमें गुजरात को वाटर-लू लिखा गया है !
‘क्या वाकई ये संभव है’
‘देखिये …संभव तो सबकुछ है ’
‘पर दो तीन बातों को समझें। गुजरात अब 2002 वाला गोधरा नहीं है। ये 2017 है जब गोधरा नहीं गोधरा से निकले व्यक्ति पर जनमत होना है !’
‘गोधरा से निकले व्यक्ति यानी ’
‘यानी क्या, वाजपेयी जी ने यू ही राजधर्म का जिक्र नहीं किया था। और गोधरा की क्रिया की प्रतिक्रिया का जिक्र भी यूं ही नहीं हुआ था। आप याद किजिये क्या कभी किसी भी राज्य में ऐसा हुआ । तो अतीत के हर सवाल तो हर जहन में होंगे ही। फिर आप ही तो लगातार प्रवीण तोगडिया को दिखा रहे हैं, जो राम मंदिर या हिन्दुत्व के बोल भूलकर किसानों के संकट और नौजवानों के रोजगार के सवाल उठा रहा है। यानी दिल्ली से चाहे अयोध्या नजदीक हो पर समझना तो होगा ही कि आखिर जिस राम मंदिर के लिये विहिप को बनाया गया आज उसी का नायक मंदिर के बदले गुजरात के बिगड़े हालात को क्यों उठा रहा है। पता नहीं आप जानते भी है या नहीं तोगड़िया तो उस झोपडपट्टी से निकला है जहां रहते हुये आज कोई सोच भी नहीं सकता कि वह डाक्टर बनेगा। तो छात्र तोगडिया के वक्त का गुजरात और विहिप के अध्यक्ष पद पर रहने वाले तोगडिया के गुजरात में इतना अंतर आ गया है कि अब झोप़डपट्टी से कोई डाक्टर बन ही नहीं सकता। क्योंकि शिक्षा महंगी हो गई । माफिया के हाथ में आ गई। तो तोगडिया कौन सी लड़ाई लड़ें। 90 के दशक में गुजरात के किसान और युवा स्वयंसेवक बनकर कारसेवा करने अयोध्या पहुंचे थे। लेकिन गर आप आज कहें तो गुजरात से कोई कारसेवक बन नहीं निकलेगा। किसानों का भी तो यही हाल है। कीमत मिलती नहीं…’
‘मैंने कई रिपोर्ट दिखायीं..’
‘पर आपने इस अंतर को नहीं पकडा कि गुजरात का किसान देश के किसानो से अलग क्यों था और अब गुजरात का किसान देश के किसानो की तरह ही क्यों हो चला है। यही तो लूट है । किसानी खत्म करेंगे । खेती की जमीन पर कब्जा करेंगे । बाजार महंगा होते चले जायेगा। तो फिर योजना में लूट होगी। सरकारी नीतियों को बनाने और एलान कर प्रचार करने में ही सरकारे लगी रहेंगी। यही तो हो रहा है ! ’
‘हो तो यही रहा है…और शायद दिल्ली इस सच को समझ नहीं रही..’
‘खूब समझ रही है । अभी पिछले दिनो दिल्ली में किसान जुटे । उसमें शामिल होने अहमदाबाद से संघ परिवार के लालजी पटेल आये। उनके साथ दो और लोग थे । लालजी पटेल वह शख्स है जिन्होंने गुजरात में किसान संघ को बनाया। खड़ा किया। आज वही सरकार की नीतियों के विरोध में गुजरात के जिले-जिले घूम रहे हैं। उनके साथ जो शख्स दिल्ली आये थे । उनके पिताजी गुरु जी के वक्त यानी गोलवलकर के दौर में सबसे महत्वपूर्ण स्वयंसेवक हुआ करते थे ! ’
‘तो क्या से माने कि संघ परिवार का भी भ्रम टूट गया है..’
‘सवाल भ्रम का नहीं विकल्प का है । और मौजूदा वक्त में विकल्प की जगह विरोध ले रहा है जो ठीक नही है…’
‘क्यों ? ’
‘क्योकि सभी तो अपने ही है । अब भारतीय मजदूर संघ में गुस्सा है । उसके सदस्य गुजरात भर में फैले हैं। वह क्या कर रहे है ये आप पता कीजिये। देखिये हमारी मुश्किल यह नहीं है कि चुनाव जीतेंगे या हारेंगे। ये आपके लिये बडा खबर होगी। 18 दिसंबर को आप तमाम विश्लेषण करेंगे। पर जरा सोचिये वाजपेयी जी चाहते तो क्या तेरह दिन की सरकार बच नहीं जाती। दरअसल वाजपेयी और कांग्रेस के बीच इतनी मोटी लकीर थी कि कांग्रेसियों को भी वाजपेयी का मुरीद होना पड़ा। वह आज भी है।’
‘पर मोटी लकीर तो आज भी कांग्रेस और मोदी के बीच में है !’
‘सही कह रहे हैं, पर कांग्रेसी वाजपेयी के लिये कांग्रेस छोड़ सकते थे। कांग्रेसी मोदी के लिये कांग्रेस नहीं छोड़ सकते !’
‘क्यों नारायण राणे ने छोड़ी। उत्ताराखंड में भी कांग्रेसी बीजेपी के साथ गये।’
‘अब आप हल्की बात कर रहे हैं। मेरा कहना है सत्ता के लिये कोई पार्टी छोड़े तो फिर वह कांग्रेसी या बीजेपी का नहीं होता। स्वयंसेवक यूं ही स्वयंसेवक नहीं होता।
..एक कप गर्म पानी मंगा लें। चाय खत्म हो गई है ’
‘हाँ हाँ, क्यों नहीं इसी पत्ती में गर्म पानी डालने से चाय बन जायेगी ..’
’आप एक काम कीजिये.. थोडी सी चाय ले जाइये … रात में पीजियेगा ..गले को राहत मिलेगी !’
तो केतली में गर्म पानी डलते ही घुआं उठने लगा और पानी का रंग भी चाय के रंग में रंगने लगा । .
.’आप क्या यही चाय पीते हैं ?’
‘हमेशा नहीं । आप आ गये तो फिर ग्रीन टी या यही गांव की चाय । जब दूध के साथ चाय वाले आते है तो उनके साथ उन्ही के मिजाज के अनुसार ..’
‘सर आप स्वयंसेवकों का सवाल उठा रहे थे..’
‘हां .स्वयसेवक से मेरा मतलब है उसे फर्क नहीं पडता कि कौन सत्ता में है और कौन सत्ता के लिये मचल रहा है । क्योंकि हम तो कांग्रेसी कल्चर से हटकर राजनीति देखने वाले लोग हैं। पर अब तो स्वयंसेवक की सत्ता कांग्रेस की भी बाप है !’
‘हा हा …क्या बात है ..’
‘ना ना आप समझे जरा। वाजपेयी अगर पांच बरस और रह जाते तो लोग काग्रेस को भूल जाते । पर यहाँ तो साढे तीन बरस में ही कांग्रेस की याद सताने लगी है। अरे भाई नारा देने से कांग्रेस मुक्त भारत नहीं होगा। काम से होगा। और गुजरात में ही देख लीजिये। कौन कौन काग्रेस के साथ खडा है। जो कांग्रेस का कभी था ही नहीं । पाटीदार तो चिमनभाई पटेल के बाद ही कांग्रेस का साथ छोड़ चुका था । और अब फिर से वह काग्रेस की गोद में जा रहा है.. ’
‘ठीक कह रहे है …मैंने पढ़ा कि चिमनभाई देश के पहले सीएम थे जिन्होने गौ हत्या पर प्रतिबंध लगवाया। हिन्दु-जैन के त्यौहारो में मीट पर प्रतिंबध लगाया। ’
‘तो इससे क्या समझे आप ? ’
‘यही कि बीजेपी जिस हिन्दुत्व को उग्र अंदाज में रखती है उसे ही खामोशी से चिमनबाई ने अपनाया ।’
‘नहीं , दरअसल , संघ का प्रभाव समाज में इतना था कि काग्रेस भी संघ की बातो पर गौर करती । और अब मुश्किल ये है कि संघ की बातो को आप भी एंजेडा कहते है और बीजेपी की तरह काग्रेस भी संघ को किसी राजनीतिक दल की तरह निशाने पर लेने से नहीं चुकती । ’
‘तो क्या मान लें कि संघ का विस्तार थम गया ?’
‘सवाल संघ परिवार का इसलिये नहीं है क्योकि प्रतिबद्द स्वयसेवक तो प्रतिबद्द ही रहेगा । मुश्किल ये है कि संघ के कामकाज का असर सत्ता के असर के सामने फीका हो चुका है । और एक तरह से काम ना करने वाले हालात से स्वयंसेवक भी गुजर रहा है क्योकि सत्ता ने खुद को राजनीतिक शुद्दीकरण से लेकर सामाजिक विस्तार तक मान लिया है ।
‘तो अच्छा ही है, स्वयंसेवक पीएम, पीएम होकर भी स्वयंसेवक है !’
‘हा हा ठीक कहा आपने। ये बात कभी बुजुर्ग स्वयंसेवको से पूछिये…उनके साथ चाय पीजिये…..’
‘जरुर ..’
और गाड़ी ने हमे घर छोड दिया ..अब यही समझिये कि चाय की प्याली के इस तूफान का इंतजार कौन कैसे कर रहा है !
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