उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के बिलरियागंज स्थित मौलाना जौहर अली पार्क में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शांतिपूर्वक धरने पर बैठी महिलाओं पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया, रबर की गोलियां चलायीं और आंसू गैस के गोले दागे। यह सब जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान की मौजूदगी में किया गया। आधी रात में पुलिस आयी और पूरे पार्क को घेरकर वहां मौजूद लोगों को खदेड़ने लगी। जब पार्क में सिर्फ महिलाएं बचीं तब पुलिस ने उन्हें वहां से चले जाने को कहा। इस पर महिलाएं संविधान और लोकतंत्र की बात कहने लगीं। इसके बाद पुलिस बर्बरता पर उतर आयी। सबको खदेड़कर पार्क में पानी भरा गया। पुलिस ने उलेमा कांउसिल के कुछ नेताओं समेत बीस लोगों को देशद्रोह के आरोप में हिरासत में लिया है। पुलिस का कहना है कि वहां ’आजादी’ के नारे लगाए जा रहे थे। इस कार्यवाही में कई लोग घायल भी हुए हैं। इस घटना केे तत्काल बाद भाकपा माले, रिहाई मंच और कांग्रेस समेत कई अन्य संगठनों ने योगी सरकार की आलोचना की है, लेकिन इसी आजमगढ़ से समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी सांसद हैं और इस पर उनकी प्रतिक्रिया अब तक नहीं आयी है।
उत्तर प्रदेश के कई अन्य शहरों में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहे हैं जिससे योगी आदित्यनाथ सरकार न केवल असहज है बल्कि उन्हें कई तरह से खत्म कराने की कोशिश कर रही है। सरकार का प्रयास है कि इसे केवल मुसलमानों का आंदोलन साबित किया जाए जिसके लिए संघ और भाजपा सभी मोर्चे पर जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। बहरहाल, उग्र और हिंसक हिन्दुत्व की काॅरपोरेट हितैषी राजनीति के इस दौर में आज उत्तर प्रदेश जहां अल्पसंख्यक मुसलमानों के उत्पीड़न का नया अध्याय लिख रहा है, वहीं उनके सियासी नुमाइंदे कहे जाने वाले लोग खामोश हैं। ऐसा लगता है कि उनके लिए यह सवाल ’बेमतलब’ है।
बसपा के पास जहां ट्विटर पर ही समय बचा है, वहीं सपा अपने जातिगत वोट बैंक यानी ’यादव’ को खुद से जोड़े रखने की माथापच्ची कर रही है। हाल के दिनों में केवल कांग्रेस ही ऐसी है जो इस कानून के खिलाफ हुए पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ सड़क पर उतरी है और ’योगी’ सरकार को लगातार घेर रही है।
समाजवादी पार्टी की इस चुप्पी पर कई सवाल उठे हैं। आखिर अखिलेश यादव चुप क्यों हैं? ऐसा क्या है कि उन्हें ’नुकसान’ का डर सता रहा है? क्या वह इस सवाल को राजनीति का कोई ’मुद्दा’ नहीं मानते? या फिर समाजवादी पार्टी को लगता है कि वह ’चुप’ रहकर ही खुद को सियासी नुकसान से बचा सकती है? क्या अखिलेश यादव के पास आक्रामक हिन्दुत्व के दौर में खुद को सुरक्षित कर पाने का कोई तरीका बचा है? क्या उत्तर प्रदेश का मुसलमान उनसे यह सवाल कभी पूछ सकेगा कि वह उनके उत्पीड़न पर मौन क्यों थे? यह सवाल तब और जरूरी हो जाता है जब कांग्रेस प्रदेश के मुस्लिम समुदाय में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रही हो।
गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून पर समाजवादी पार्टी का स्टैंड और खासकर आजमगढ़ की घटना पर अखिलेश यादव की चुप्पी के बाबत जब मैंने प्रख्यात अंबेडकरवादी एक्टिविस्ट और एआईपीएफ के राष्ट्रीय संयोजक भूतपूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी से सवाल किया तब उनका जवाब था- ’सपा पर अपने जातिगत वोट बैंक ’यादव’ का बहुत दबाव है और वह इस कानून के खिलाफ नहीं है। ऐसे में अखिलेश यादव की मजबूरी है कि अपने जातिगत वोट बैंक की परवाह करें और उसकी मंशा के मुताबिक चुप रहें’।
वे कहते हैं कि अगर अखिलेश यादव इस कानून का विरोध कर दें तो उनका बचा खुचा यादव वोट भी मोदीजी के साथ खड़ा हो जाएगा। अगर वह समर्थन करते हैं तब मुसलमान साथ छोड़ देगा। ऐसी स्थिति में बोलने का मतलब राजनैतिक ’आत्महत्या’ करना है। इसलिए एक रणनीति के तहत सपा ने प्रदेश के मुसलमानों के उत्पीड़न पर चुप्पी साध रखी है। दारापुरी कहते हैं कि पूर्वांचल में योगी की हिंदू युवा वाहिनी में बड़े स्तर पर ओबीसी और यादव सदस्य हैं। सपा ने हमेशा से जातिगत गोलबंदी में छिपी सांप्रदायिकता को मजबूत किया है। इसी जातिगत सांप्रदायिकता को संतुष्ट करने के लिए अखिलेश यादव नागरिकता संशोधन कानून पर और आजमगढ़ की घटना पर चुप हैं।
स्वतंत्र टिप्पणीकार और डाॅ. फरीदी विचार मंच के अध्यक्ष जैद अहमद फारूकी अखिलेश यादव की इस चुप्पी पर कुछ अलग राय रखते हैं। वह कहते हैं कि समूचा विपक्ष इतना डरा हुआ है कि वह बोलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा है। केन्द्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करके केन्द्र सरकार ने जिस भय का वातावरण निर्मित किया है उसके कारण विपक्ष घबराया हुआ है। विपक्ष की चुप्पी के यही मायने हैं कि वह जेल जाने या किसी जांच का ’रिस्क’ नहीं लेना चाहता है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम हालांकि ऐसा नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि जाति की राजनीति का आखिरी ठिकाना संघ और सांप्रदायिक भाजपा ही है। यह समाजवादी पार्टी का केन्द्रीय तत्व रहा है कि मुसलमान केवल उसे वोट देने वाले प्राणी भर बने रहें और कभी अपने हक और अधिकार के लिए कोई मांग नहीं करें। हक अधिकार की मांग करने वाले मुसलमानों से सपा बहुत घबराती है। समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को सियासी तौर पर खत्म करने का प्रयास किया है। समाजवादी पार्टी ने वोट भले मुसलमानों से लिया हो लेकिन उनकी सामाजिक बेहतरी और नागरिक हैसियत को सुनिश्चित करने के लिए कभी कुछ नहीं किया।
वह कहते हैं कि सामाजिक न्याय की पिछड़ा राजनीति मूलतः मुसलमान विरोधी है और यह हिन्दुत्व के दायरे में जगह पाने का हिन्दू धर्म का उनका आपसी झगड़ा है। अखिलेश यादव और उनका यादव वोट बैंक मुसलमानों के खिलाफ योगी आदित्यनाथ जैसी ही सोच रखता है। आज अगर अखिलेश यादव चुप हैं तो उसके पीछे उनके और मुलायम सिंह द्वारा वर्षों से की गई सामाजिक न्याय की सांप्रदायिक राजनीति है। शाहनवाज़ कहते हैं कि अखिलेश यादव के लिए कांग्रेस खतरनाक है जबकि भाजपा से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है।
शाहनवाज आलम की बात से सहमति जताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शम्स तबरेज़ कहते हैं, “जहां तक मैं समझ पाया हूं समाजवादी पार्टी का बेसिक जातिगत वोट यानि कि ’यादव’ इस अधिनियम के खिलाफ नहीं है। वह यह मानता है कि मोदीजी दुनिया के हिंदुओं की मदद करने के लिए यह कानून लागू कर रहे हैं। वह यह समझता है कि हिन्दू राष्ट्र में वर्ण व्यवस्था में उसकी तीसरे नंबर की स्थिति होने के कारण उसे कोई दिक्कत नहीं होगी। इसी कारण से वह इस सवाल पर बोलना ’बेमानी’ समझता है। अखिलेश पर यही दबाव है और वह इस जातिगत दबाव के आगे नतमस्तक हैं। सपा के वोटर के लिए संविधान बचाने की बात तभी तक प्रासंगिक है जब उसके आरक्षण और सामाजिक भागीदारी पर कोई चोट हो। एक बात और है कि अखिलेश यादव का वोटर खुद को मयूरवंशी क्षत्रिय समझता है और उसे हिन्दुत्व के प्रसार में अपना कोई नुकसान नजर ही नहीं आता है। उसे हिन्दू राष्ट्र से कोई समस्या नहीं है। बस उसे भी ’उचित’ जगह चाहिए। सपा के यादवों को मोदीजी से कोई समस्या नहीं है। वह उन्हें राष्ट्रहित की सुरक्षा के लिए ’दिल्ली’ में ही देखना चाहता है।”
इस संदर्भ में समाजवादी पार्टी के मुखिया की चुप्पी से पार्टी के मुस्लिम नेताओं में भी गहरी निराशा है। समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता अमीक जामई पिछड़ी राजनीति की सांप्रदायिकता और अवसरवाद पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून पर उत्तर प्रदेश का अल्पसंख्यक आज अकेला महसूस कर रहा है। दलितों और पिछड़ों के साथ उनके रोस्टर और अन्य सामाजिक न्याय, भागीदारी के सवालों पर होने वाले संघर्षों में उनके साथ खड़ा रहने वाला मुसलमान आज अगर अकेला महसूस कर रहा है तब उनके नेताओं को अपनी पूरी राजनीति पर विचार करना चाहिए।
कुल मिलाकर, ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी आज ऐसे दोराहे पर फंस चुकी है जहां उसके पास चुप्पी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। स्वयं मुलायम सिंह यादव, नरेन्द्र मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते थे और एक कदम और आगे बढ़कर अखिलेश यादव ने अस्तित्व बचाने के लिए ’हिन्दुत्व’ की चाकरी स्वीकार कर ली है।
क्या यह चुप्पी हिन्दुत्व की इस हिंसक राजनीति में अखिलेश यादव को सियासी पटल पर ’प्रासंगिक’ रख पाएगी- यह आने वाला 2022 का विधानसभा चुनाव बताएगा।